चुनाव के दौरान सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद और व्यक्तिवाद की बातें की जा रही हैं, पर गांव, खेती और 54 प्रतिशत जनता के मुद्दे गौण हैं। कृषि क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), पूंजी निर्माण और कृषि निर्यात लगातार घटते जा रहे हैं। 1950-51 में जीडीपी में कृषि की भागीदारी 53.1 प्रतिशत थी, जो 2012-13 में घटकर 13.7 प्रतिशत रह गई। गांव-शहर तथा किसान-गैर किसान के बीच खाई बढ़ती जा रही है।...
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घोषणापत्रों में नजरंदाज होते किसान
चुनाव अभियान पूरे देश में जोर-शोर से जारी है, लेकिन इसमें न किसान कहीं दिख रहा है और न किसान की चिंता। जहां भारत की लगभग 60 प्रतिशत आबादी कृषि और उससे जुड़े उद्योगों पर निर्भर है, वहां उस तबके की उपेक्षा हैरान करने वाली है। यह भी खबर आ रही है कि इस बार प्रमुख पार्टियों का ध्यान उन 250 सीटों पर ही है, जिनके बारे में माना जा...
More »उपज का घटता भाव- संजीव झा
एक तरफ खाद-उर्वरक के बढ़ते उपयोग के चलते कृषि पैदावार में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई, तो दूसरी तरफ तेजी से बढ़ रहे शहरीकरण ने कृषि योग्य भूमि के विस्तार को सीमित कर दिया। पिछली सदी के दौरान खाद्यान्न की मांग में खासी तेजी के बावजूद खाद्यान्न की कीमत में वास्तविक अर्थों में हर वर्ष 0.7 फीसदी तक की गिरावट दर्ज की गई। खेती की उपज को लेकर देश के साथ-साथ दुनियाभर के आंकड़ों...
More »जंगल के असल दावेदार- विनय सुल्तान
जनसत्ता 19 मार्च, 2014 : पिछले साल की दो घटनाएं इस देश में जल, जंगल और जमीन की तमाम लड़ाइयों पर लंबा और गहरा असर छोड़ेंगी। पहली घटना दिल्ली से दो हजार किलोमीटर की दूरी पर स्थित नियमगिरि की है। यहां ग्रामसभाओं ने एक सुर में अपनी जमीन ‘वेदांता’ के हवाले करने से इनकार कर दिया। इसके बाद वेदांता कंपनी को नियमगिरि छोड़ना पड़ा। नियमगिरि जल, जंगल और जमीन की...
More »कृषि नीति और नीयत का संकट- अविनाश पांडेय समर
आंकड़ों की नजर से देखा जाये, तो भारतीय कृषि सहज बोध को धता बतानेवाली अजूबे सी दिखती है. कुछ इस तरह कि भारत की विकास दर के दहाई पार कर देश को अगली विश्व शक्ति बनाने के सपने दिखाने के ठीक बाद वैश्विक आर्थिक मंदी की चपेट में आते हुए ध्वस्त हो जाने पर कृषि क्षेत्र में सुधार ने ही संभाला था. और यह भी कि कुल आबादी के करीब 67...
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