वर्ष 2018 का आगाज आर्थिक वृद्धि के लिए एक बड़े आशावाद के साथ हुआ. साल 2017 के समापन ने भी साल की वास्तविक वृद्धि को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्वानुमानों से आगे पहुंचा दिया था, जबकि इसके पहले के छह वर्षों के दौरान प्रत्येक वर्ष की शुरुआत में उसके द्वारा घोषित वार्षिक पूर्वानुमानों को लगातार नीचे लाने की जरूरत पड़ती रही, क्योंकि वास्तविक वृद्धि उन पर कभी खरी नहीं उतर...
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मंदी के सबक और भविष्य के अंदेशे-- मोंटेक सिंह अहलूवालिया
लेहमन ब्रदर्स के पतन की 10वीं वर्षगांठ पर उम्मीद के मुताबिक विचारों की बाढ़ दिखी है। गुणा-भाग इन सवालों पर हो रहे हैं कि इस संकट की वजह क्या थी? क्या बेहतर तरीके से इससे निपटा गया, और हमने इससे किस तरह के सबक सीखे? ज्यादातर लेखों की बुनियाद समान है, सिवाय एक को छोड़कर, जो पूरी तरह मूल विचार लग रहा है। इसे पेश किया है अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष...
More »बैंकिंग में सुधार की दरकार-- अरविन्द मोहन
मौजूदा दौर में बैंकिंग सेक्टर से जुड़े दो-तीन मुद्दे हैं, जिनको अलग-अलग तरीके से देखा जाना चाहिए. पहला यह कि अगर गैर-निष्पादित संपत्तियों (एनपीए) का स्तर देखें, तो बीते दिनों सकल एनपीए 17 फीसदी के पास पहुंच चुका था. यह स्थिति लगातार बिगड़ती ही जा रही है. इस सदी की शुरुआत से ही देखें, तो एनपीए का स्तर बढ़ना शुरू हो गया था. इस समस्या के तात्कालिक हल के लिए...
More »कम हो रही हैं श्रमबल में महिलाएं-- अजीत रानाडे
भारत की श्रमबल भागीदारी दर (एलएफपीआर) में महिलाओं का हिस्सा पिछले तेरह वर्षों के दौरान तेजी से गिरा है. यह कामकाजी उम्र की महिलाओं की कुल संख्या की तुलना में वैसी महिलाओं का अनुपात है, जो पारिश्रमिक पाते हुए रोजगार कर रही हैं. इस अनुपात में आयी गिरावट दरअसल एक अरसे के दौरान आयी है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, 15 वर्ष से 24 वर्ष की महिलाओं...
More »लाइलाज हो चुकी है एनपीए की बीमारी-- आदर्श तिवारी
बैंकों की तेजी से बढ़ती गैर निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) आज एक ऐसी लाइलाज बीमारी बन चुकी हैं जिसका इलाज विशेषज्ञों को भी नहीं सूझ रहा है। इसलिए ऐसे में सवाल उठता है कि एनपीए के इस अंधकार से रोशनी कब और कैसे मिलेगी? दरअसल, बैंकों की बुनियाद को कमजोर करने में बढ़ता एनपीए एक बड़ा कारक है। बैंकों के बढ़ते एनपीए को लेकर सरकार और रिजर्व बैंक भी चिंता जाहिर...
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