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जरूरी है जूट को सरकारी संरक्षण-- पंकज चतुर्वेदी

सीएसीपी यानी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की ताजा सिफारिशें जूट के किसानों के लिए आफत बन सकती हैं। आयोग का कहना है कि चीनी मिलों में शत-प्रतिशत जूट के बोरे के इस्तेमाल की मौजूदा नीति को बंद कर दिया जाए तथा खाद्य पदार्थों में नब्बे फीसद जूट की अनिवार्यता को पचहत्तर फीसद किया जाए। अगर ऐसा हुआ तो बंगाल का जूट किसान भूखों मर जाएगा।   यही नहीं, जूट कारखानों व...

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‘गाइड’ के दृश्य का दोहराव क्यों?- शेखर गुप्ता

यदि आपने देव आनंद की 1965 की क्लासिक फिल्म ‘गाइड' देखी हो तो टीवी स्क्रीन पर सूखे से प्रभावित क्षेत्रों खासतौर पर महाराष्ट्र के दृश्य अापको पहले देखे हुए से लगेंगे। फिल्म के अंतिम हिस्से में राजू गाइड सूखे से प्रभावित क्षेत्र के एक मंदिर में शरण लेता है। गांव वालों को लगता है कि वे कोई पहुंचे हुए स्वामीजी हैं और ग्रामीण उसे तब तक उपवास करने पर मजबूर...

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झुमरा : बारूद की गंध की जगह फसल की खुशबू

देश में बाेकाराे के जिस झुमरा पहाड़ की चर्चा बारूदी सुरंग विस्फोट व मुठभेड़ों के लिए होती थी, वह झुमरा अब बदल गया है. टूटी-फूटी सड़कों की जगह अब पक्की सड़क पर चार घंटे का सफर 17 मिनट में तय होने लगा है. नक्सलियों की जनसभा की जगह अब महिला गोष्ठी अौर क्रांतिकारी गीत की जगह रोपा के गीत गूंजने लगे हैं. बच्चों के चेहरे पर दहशत नहीं, खुशी है....

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इंडिया नहीं, भारत का बजट-- अनुपम त्रिवेदी

मोदी सरकार के तीसरे बजट पर मध्यम-वर्ग की प्रतिक्रिया तीखी रही है. न आयकर छूट की सीमा में बढ़ोत्तरी हुई, न बढ़ते दामों से राहत मिली, बल्कि सेवाकर में बढ़ोत्तरी ने एनडीए सरकार के सबसे बड़े समर्थक मिडिल क्लास को जैसे विपक्षी दलों के साथ ले जाकर खड़ा कर दिया है. महंगी कारें, महंगा सोना, महंगे होटल और कर्मचारी भविष्य निधि (इपीएफ) की निकासी पर लगाये गये कर से चमकती...

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हमारी संवेदना का अकाल-- योगेन्द्र यादव

अकेले नहीं आता अकाल. पानी, प्रकृति और समाज के देशज चिंतक अनुपम मिश्र के लेख का यह शीर्षक अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है. कुदरत सूखा देती है, अकाल नहीं. हर चौथे-पांचवें साल हमारे देश में बारिश की कमी होती है. लेकिन जरूरी नहीं कि इससे अन्न की कमी हो, पीने के पानी का संकट हो, इंसानों और मवेशियों की जान पर बन आये, खेती-किसानी से जुड़े हर...

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