बीते सोमवार की रात को, दवाओं की कीमतों के नियामक, राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर सबको चौंका दिया. उसने उन 108 दवाओं को नियंत्रण से मुक्त कर दिया है, जिन्हें उसने दो महीने पहले ही ‘जनहित' के आधार पर मूल्य नियंत्रण के तहत लिया था. उसने इसकी कोई वजह नहीं बतायी. सिर्फ इतना कहा कि भारत सरकार के रसायन एवं उर्वरक मंत्रलय के...
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हिन्दी के विस्थापन का दौर- प्रभु जोशी
जनसत्ता 31 जुलाई, 2014 : अगर आप हिंदी को गरियाने के लिए आगे आने का नेक इरादा रखते हैं तो फिर निश्चिंत हो जाइए कि अब आप अकेले नहीं हैं, बल्कि वित्तीय पूंजी के इस सर्वग्रासी दौर में, नई-नई विचार प्रविधियों से, उपनिवेशीकृत बनाए जा रहे, भारतीय मध्यवर्ग के बुद्धिजीवियों की एक पूरी रेवड़ आपके पीछे दौड़ी चली आने वाली है। इस अनुगामिनी भीड़ को अगर आप थोड़े अतिरिक्त उन्माद...
More »सामाजिक न्याय की बलि- अनिल चमड़िया
जनसत्ता 9 जून, 2014 : यह एक तथ्य के रूप में ही नहीं दोहराया जा रहा है कि 1984 के बाद 2014 में ही दिल्ली की गद्दी के लिए किसी एक पार्टी को बहुमत मिला है, बल्कि इसके राजनीतिक आयाम भी अलग नहीं हैं। 1984 में हिंदुत्ववाद के उभार की एक चरम स्थिति थी, जब राजीव गांधी को दो तिहाई बहुमत मिला था। वह राजनीतिक हिंदुत्ववाद सिख-विरोधी हमलों की उपज...
More »अब देश की उम्मीदें पूरी करने की चुनौती - परंजॉय गुहा ठाकुरता
विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र निर्णायक ढंग से एक नई दिशा में मुड़ गया है। जिस भगवा लहर के उफान के कयास लगाए जा रहे थे, वह भाजपा और उसकी अगुआई वाले एनडीए के पक्ष में सुनामी बनकर उभरी है। देश के उन हिस्सों में भी नरेंद्र मोदी ने नाटकीय ढंग से अपनी पार्टी की तकदीर बदल दी है, जिनमें वह परंपरागत रूप से मजबूत नहीं रही थी। हिंदी पट्टी...
More »सुप्रीम कोर्ट ने सुनाए समाज और लोकतंत्र को प्रभावित करने वाले फैसले
नई दिल्ली। यह साल न्यायिक संक्रांति के लिए भी याद किया जाएगा। देश की शीर्ष अदालत ने समाज और हमारे लोकतंत्र को प्रभावित करने वाले कई अहम फैसले इस साल सुनाए। जेल में बंद लोगों के निर्वाचित प्रतिनिधि बनने और दो साल से अधिक की सजा पाने वाले सांसदों-विधायकों को सदन की सदस्यता के अयोग्य करार देने जैसे चुनाव सुधारों पर ऐतिहासिक फैसलों, ‘पिंजरे में बंद’ सीबीआइ की स्वायत्तता की गुहार...
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