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गरीबों की गिनती का सच : हर्ष मंदर

मानवीय अस्मिता के साथ जीवन बिताने के लिए किसी गरीब व्यक्ति को कितने पैसे की जरूरत हो सकती है? हम जिस समय में जी रहे हैं, उसमें ऐसा कभी-कभार ही होता है कि अखबारों के फ्रंट पेज और खबरिया चैनलों के प्राइम टाइम बुलेटिनों में यह सवाल सुर्खियों में आया हो। यह भी आम तौर पर नहीं होता कि इस पहेली ने मध्यवर्ग की चेतना को चुनौती दी हो। लेकिन जब...

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गरीबी और अमीरी का पैमाना : हर्ष मंदर

मई की एक तपती हुई दोपहर को मैं नई दिल्ली में योजना आयोग भवन के सामने एक विचित्र विरोध प्रदर्शन में सम्मिलित हुआ था। प्रदर्शनकारी तख्तियां लहरा रहे थे, जोशोखरोश से नारे लगा रहे थे, लेकिन साथ ही वे देश की शीर्ष योजना निर्मात्री संस्था के सदस्यों के लिए कुछ ‘भेंट’ भी लेकर आए थे। उनकी भेंट ठुकरा दी गईं और प्रदर्शनकारियों की भीड़ को पुलिस ने मामूली झड़प के बाद...

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आशा और गरिमा से विस्थापन : हर्ष मंदर

भारत के अनेक मनोचिकित्सालय लंबे समय से विस्मृत दीन-दुखियों के लिए अंधकारपूर्ण बंदीगृह बने हुए हैं। मानवाधिकारों की सुरक्षा करने और सभी के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के हमारे मिले-जुले रिकॉर्ड में मानसिक रूप से विकलांग लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा और उनका पुनर्वास संभवत: सबसे चिंतनीय प्रसंगों में से एक है। कुछ साल पहले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट सहित कई अन्य स्वतंत्र रिपोर्टो द्वारा प्रस्तुत एक सर्वेक्षण...

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मुश्किल है गरीबों की पहचान? : हर्ष मंदर

यदि आप किसी गांव में जाएं और ग्रामीणों से पूछें कि यहां रहने वाले लोगों में से कौन गरीब हैं, तो उनके लिए इस सवाल का जवाब देना कठिन नहीं होगा। शायद वे किसी दृष्टिहीन विधवा का नाम बताएं, या किसी बुजुर्ग दंपती की ओर इशारा करें, जो भीख मांगकर पेट भरते हैं, या कर्ज के बोझ तले दबे किन्हीं किसानों का उल्लेख करें। वे गरीबों की अपनी सूची में पिछड़ी जाति के...

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मुद्दा: गरीब की नई परिभाषा

गरीबी: सभ्य समाज के इस सबसे बड़े अभिशाप को राष्ट्रपिता गांधी जी ने हिंसा का सबसे खराब रूप कहा। करेला उस पर नीम चढ़ा कि स्थिति यह कि गरीबों को 'गरीब' न मानना। हमारे हुक्मरानों ने गरीबों की नई परिभाषा गढ़ी है। अगर आप शहर में रहकर 32 रुपये और गांव में रहकर 26 रुपये प्रतिदिन से अधिक खर्च कर रहे हैं तो आप गरीब नहीं है। खुद को गरीब मानते...

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