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पर्याप्त सरकारी मदद के जरिये ही पहुंच सकती हैं सभी तक स्वास्थ्य सेवाएं

भारत के विशाल और विविध भू-भागों में रहने वाली आबादी तक समुचित स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराना एक बड़ी चुनौती रही है. इसमें बड़ी कमी सरकारों की रही है, जो अपने कुल बजट का महज एक फीसदी तक हिस्सा ही सार्वजनिक स्वास्थ्य मद में खर्च करती रही है. स्वास्थ्य क्षेत्र के समूच परिदृश्य समेत इससे संबंधित अन्य पहलुओं को इंगित कर रहा है आज का वर्षारंभ ... अनंत कुमार एसोसिएट प्रोफेसर,...

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बहुत कठिन है खेती की राह..जानिए कैसे

भारत में किसानों की दशा दशकों तक नजरअंदाज किये जाने के कारण अब बुरी तरह बिगड़ चुकी है. सरकार ने खेतिहरों की आय दोगुना करने तथा उपज का उचित दाम दिलाने का वादा किया है, जिसे पूरा करने की दिशा में इस साल कुछ ठोस कोशिश की उम्मीद है. खेती को फायदेमंद पेशा बनाने, फसलों के सही मूल्य दिलाने, कर्ज से राहत आदि की प्राथमिकताएं इस साल हैं. इस संबंध...

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अधूरे बदलाव और शोषण की कथाएं- विभूति नारायण राय

पुलिस की कठोर, उबाऊ और यांत्रिक दैनंदिनी में कई बार आपका साबका मानवीय जीवन के ऐसे कारुणिक पक्ष से पड़ता है कि आप अंदर-बाहर भीग जाते हैं। बरसों तक वे आपकी स्मृति का अंग बने रहते हैं। ऐसा ही एक अनुभव 1989 के इलाहाबाद कुंभ के दौरान मुझे हुआ था। हर 12 साल पर लगने वाले कुंभ के दौरान माघ (जनवरी-फरवरी) महीने में गंगा-यमुना के संगम तट पर एक अद्भुत...

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विज्ञापन, समाज और कानून--- महेश तिवारी

प्रौद्योगिकी के विकास के साथ देश के भीतर विज्ञापनों की बाढ़-सी आ गई है। विज्ञापनों के द्वारा कंपनियां अपने उत्पाद के प्रति लोगों को रिझाने और आकर्षित करने के चक्कर में उपभोक्ताओं के प्रति अपने कर्तव्य और नैतिक जिम्मेदारियों से दूर हटती जा रही हैं। अपने उत्पाद के प्रचार के लिए कंपनियां मनोरंजन और खेल की दुनिया के सितारों को पेश करती हैं, ताकि लोग उनके सम्मोहन के प्रभाव में...

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नये साल में विकास की चुनौतियां-- मणीन्द्र नाथ ठाकुर

बिहार और झारखंड जैसे राज्यों के सामने आनेवाले साल में क्या चुनौतियां हैं? विडंबना यह है कि प्राकृतिक संपदा और उपजाऊ जमीन के बावजूद ये राज्य भारत के सबसे गरीब राज्यों में आते हैं. कमाल की बात यह है कि यहां के मानव संसाधन का लोहा दुनिया मानती है. कई विद्वानों के लिए यह एक पहेली है. मुझे याद है कि लंदन स्कूल ऑफ इकोनाॅमिक्स के प्रो जॉन हैरिस ने...

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