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अगर आप समाचारों के ऑनलाइन पाठक हैं तो ये न्यूज एलर्ट जरुर पढ़ें!

भारत में समाचारों के आस्वाद की दुनिया तेजी से बदली है : लोगों का समाचारों पर से विश्वास घटा है और समाचार के पाठकों की दुनिया की एक बड़ी तादाद को आशंका सताती है कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर अपने राजनीतिक विचारों का इजहार किया तो उन्हें अधिकारी-वर्ग से परेशानी उठानी पड़ेगी.   अंग्रेजी भाषी पाठकों के बीच किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक टेलिविजन, अखबार या फिर रेडियो नहीं बल्कि समाचार हासिल करने...

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कम नहीं चुनाव आयोग की शक्तियां- नवीन चावला

भारत में जाति पर बहस राजनीतिक परिणामों की एक निर्धारक है। यह वर्ष 2019 के आम चुनाव सहित भारत में तमाम चुनावों की एक रोचक विशिष्टता है। यह ऐसी निर्धारक है कि मतदाताओं के बीच अति लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी चुनाव अभियान में अपनी जातिगत पहचान बतानी पड़ती है। उत्तर और केंद्रीय भारत की ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों को किसी जाति या बिरादरी विशेष के लिए पहचाना जाता है।...

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‘सरकार हमें पानी और गंदगी की समस्याओं से आगे बढ़ने दे तो शिक्षा या दूसरी चीज़ों के बारे में सोचें’

वर्तमान चुनावों के संदर्भ में टीवी चैनलों के लिए भले ही हिंदू-मुस्लिम, पाकिस्तान, राष्ट्रवाद, चौकीदार आदि सबसे ज़रूरी मुद्दे हों, पर देश की राजधानी दिल्ली में एक ऐसा इलाक़ा भी है जहां के क़रीब 70 हज़ार लोग पीने के पानी, गंदगी आदि से जुड़ी बुनियादी समस्याओं से आए दिन जूझ रहे हैं. यह इलाका संजय कॉलोनी है, जो दक्षिणी दिल्ली में आने वाले ओखला इंडस्ट्रियल एरिया का हिस्सा है. 1977 में...

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अयोध्या का एक गांव जहां लोगों ने कभी वोट नहीं डाला- कृष्णप्रताप सिंह

इस बात को आप शायद हाज़मोला खाकर भी हज़म न कर सकें कि 17वीं लोकसभा के चुनावों से जुड़ी गहमागहमी के उतार पर पहुंच जाने के बावजूद देश में 100 से ज़्यादा मतदाताओं वाला एक ऐसा भी गांव है, जिसके किसी भी मतदाता ने कभी किसी चुनाव में मतदान नहीं किया. यहां आप यह अनुमान लगाएंगे कि इस गांव के मतदाता चुनावों का बहिष्कार करते रहे होंगे तो ग़लती करेंगे और...

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वनबंधु कल्याण योजना: 100 करोड़ का बजट घटा कर एक करोड़ किया गया, ख़र्च नहीं हो रही राशि

नई दिल्ली: तारीख पे तारीख. ये अकेला डायलॉग भारतीय न्यायिक व्यवस्था की कहानी बता देता है. ठीक इसी तरह का एक शब्द भारतीय शासन व्यवस्था में काफी प्रचलित है. इस शब्द का नाम है ‘योजना'. सरकारें सोचती हैं कि योजना बना दो, विकास हो जाएगा. योजनाएं बनती हैं, पैसा आवंटित होता है और फिर उसके बाद योजनाओं को स्थानीय अधिकारियों के भरोसे क्रियान्वयन के लिए छोड़ दिया जाता है. पिछले 70 सालों...

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