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हाशिमपुरा- इकतीस साल बाद-- विभूति नारायण राय

बुधवार को जब उच्च न्यायालय ने हाशिमपुरा नरसंहार के सभी आरोपियों को दोषी करार देते हुए सजा सुनाई, तो 31 साल पुरानी इस दुखद घटना के सारे दृश्य एक के बाद एक मेरी आंखों के सामने से गुजरने लगे।   कुछ अनुभव ऐसे होते हैं, जो जिंदगी भर आपका पीछा नहीं छोड़ते। दु:स्वप्न की तरह वे हमेशा आपके साथ चलते हैं। कई बार तो कर्ज की तरह आपके सीने पर सवार रहते...

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अस्मिता की राजनीति से परे-- मणींद्र नाथ ठाकुर

भारतीय जनतंत्र में अस्मिता की राजनीति का प्रभाव काफी समय से रहा है. पिछले कुछ वर्षों में ऐसा लगने लगा था कि शायद इसका युग अब समाप्त हो जायेगा. लेकिन अब इसके विकृत रूप के उभार की संभावनाएं बढ़ती दिख रही हैं.     बिहार-बंगाल में दंगे, राजपूती शान के नाम पर पद्मावत फिल्म के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन, आरक्षण के लिए विभिन्न जातियों का आंदोलन, दलितों का राष्ट्रव्यापी बंद और राष्ट्रवाद व धर्म...

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परदेसी मीडिया का पूर्वाग्रह-- तवलीन सिंह

पिछले सप्ताह न्यूयार्क टाइम्स में एक लेख छपा था, जिसे पढ़ कर कई भारतीयों का खून खौलने लगा। मेरा भी। इसलिए कि इतना बकवास लेख में मैंने पहली बार पढ़ा होगा। लेखक भारतीय मूल का था शायद, लेकिन इतना भी नहीं जानता था कि हर हर महादेव का मतलब यह नहीं है कि हम सब शिव हैं। यही एक गलती होती इस लेख में तो उस पर लिखने की जरूरत...

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पुलिस तंत्र में बदलाव की जरूरत -- आकार पटेल

पिछले 30 वर्षों में भारतीय शहर काफी हद तक बदल चुके हैं और इससे पुलिस के काम-काज का तरीका भी प्रभावित हुआ है. हमारे शहर कैसे बड़े होते चले गये या उनकी जनसंख्या बढ़ती गयी और ज्यादातर लोगों के लिए ये अब रहने योग्य नहीं हैं, मैं इस बारे में बात नहीं कर रहा हूं. यहां बात उस संदर्भ में हो रही है कि पहले उन शहरों को किस योजना...

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मेड और मैडम का वर्ग संघर्ष-- आशुतोष चतुर्वेदी

दिल्ली से सटे नोएडा से कुछ दिनों पहले खबर आयी कि घरेलू दाइयों, जिन्हें अंगरेजी में लोग ‘मेड' कहते हैं और ‘मैडम' लोगों में संघर्ष हो गया. यह अपने तरह की अलग घटना है. दाइयां घरों में काम करती रहती हैं. उनकी ओर न तो समाज का और न ही सरकारों का ध्यान जाता है. इन घरेलू सहायकों के बिना उच्च और मध्य वर्ग का जीवन कितना कठिन हो...

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