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शिक्षा पर गंभीर सवाल- निरंजन कुमार

अरस्तू ने कहा था कि नेतृत्व के खराब कमरें और अदूरदर्शिता का खामियाजा बिना किसी गलती के भी आम जनता को भुगतना पड़ता है। आज यह बात पूरे भारत पर लागू होती दिख रही है-खासकर शिक्षा के क्षेत्र में। झारखंड का एक ताजा मामला इसका प्रमाण भी है।?सचमुच झारखंड में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद विकास का अभाव, भ्रष्टाचार, माओवाद आदि के बीच झारखंड की सरकार और शासन-व्यवस्था ने राज्य...

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असंतोष से सुधारों की ओर : डॉ महेश रंगाराजन

सिविल सोसायटी और यूपीए सरकार के बीच लोकपाल बिल पर चला आ रहा गतिरोध एक तरह से समाप्त हो गया है। दोनों पक्ष अपनी-अपनी असहमतियों पर सहमत हैं। दोनों ही जल्द से जल्द लोकपाल चाहते हैं, लेकिन नई व्यवस्था बनाने की प्रक्रियाओं के बारे में वे एकमत नहीं हो सकते। हकीकत यह है कि दोनों ही पक्ष मानते हैं कि वे लड़ाई जीत चुके हैं। बाबा रामदेव ने अपने आंदोलन के...

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पूंजी खेल की हकीकत- हरिवंश

चलते-चलते एक लेख में इस पुस्तक की चरचा की थी. आज के माहौल में इसे हर भारतीय को पढ़ना चाहिए. वह सच, जानने के लिए, जो लोगों से छुपाया जाता है. वह पद्धति-प्रक्रिया समझने के लिए, जिसके तहत भारत से पैसे-पूंजी बेधड़क स्विस या विदेशी बैंकों या टैक्स हेवेन (कर चोरी के लिए स्वर्ग या नितांत सुरक्षित) में जा रहे हैं. इसमें कौन लोग हैं? मीडिया का असली चेहरा भी...

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बदल रहे हैं, गांव, देहात और जंगल- हरिवंश

फ़रवरी 2008 में चतरा के नक्सल दृष्टि से सुपर सेंसिटिव गांवों में जाना हुआ. साथ के मित्रों के भय और आशंका के बीच, देर शाम तक घूमना हुआ. सूनी सड़कों पर मरघट की खामोशी के बीच. तब तक लिखा यह अनुभव भी छपा नहीं. पाठक पढ़ते समय ध्यान रखें यह फ़रवरी 2008 में लिखी गयी रपट है. कभी डालटनगंज-चतरा के इन इलाकों में खूब घूमना हुआ. समाजवादी चिंतक, अब बौद्ध अध्येता व...

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जन्म से बंधी सामाजिक बेड़ियां : हर्ष मंदर

लाखों महिलाएं, पुरुष और बच्चे आज भी उन अपमानजनक सामाजिक बेड़ियों में बंधे हुए हैं, जो उनके जन्म से ही उन पर लाद दी गई थीं। आधुनिकता की लहर के बावजूद आज भी भारत के दूरदराज के देहातों में जाति व्यवस्था जीवित है। यह वह व्यवस्था है, जो किसी व्यक्ति के जाति विशेष में जन्म लेने के आधार पर ही उसके कार्य की प्रकृति या उसके रोजगार का निर्धारण कर...

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