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खोजी पत्रकारिता क्या अब भी संभव है- किंशुक पाठक

पिछली सदी के सातवें दशक में 'वाटरगेट कांड' ने दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन को अपनी गद्दी छोड़ने को मजबूर कर दिया, पर कांड को उजागर करने वाले पत्रकारों कार्ल बर्नस्टीन और बॉब वुडवर्ड ने अपने मुख्य स्रोत को 31 साल तक दुनिया की आंखों से ओझल ही रखा। निक्सन के हटने के तीन दशक और उनकी मृत्यु के 11 साल बाद ही स्रोत का नाम...

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धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व की चुप्पी का फल-- राजदीप सरदेसाई

सुधींद्र कुलकर्णी से बहुत पहले निखिल वागले और आपके इस मामूली स्तंभकार जैसे कई लोग शिवसेना के शिकार बन चुके हैं। 1991 में शिवसेना ने भारत-पाक क्रिकेट शृंखला के विरोध में वानखेड़े स्टेडियम का पिच खोद दिया था। मैंने इसकी कठोरतम शब्दों में आलोचना करते हुए लेख लिखा। जहां मैं काम करता था उस टाइम्स ऑफ इंडिया, मुंबई के दफ्तर के बाहर काले झंडे दिखाए गए, अपशब्द कहे गए, लेकिन...

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भारत की कहानी में बिहार कहां है?-- शंकर अय्यर

आज बिहार उम्मीदों और निराशा के दोराहे पर खड़ा है। पिछले कई दशकों से ‌अगर बिहार दुर्दशा झेल रहा है, तो इसकी वजह सिर्फ मंडल, कमंडल और जंगल राज नहीं है। इसकी असल वजह 'राजनीति' है, जिसमें 'राज' कुछ ज्यादा, तो 'नीति' जरूरत से काफी कम रही है। भारत में शासन को लेकर एक बेहद प्रचलित उक्ति है कि यहां वह सब कुछ जो गलत हो सकता है, वह लगातार...

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आदिवासियों के लिए नए खतरे-- के सी त्यागी

निजी क्षेत्र के उद्योगों को वन भूमि आवंटित करने वाले सरकार के हालिया फैसले ने एक बार फिर आदिवासियों को चिंतित किया है। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा लिए गए फैसले से निजी कंपनियों को पेड़ों की कटाई की आजादी होगी। यह विधेयक संसद के आगामी सत्र में पेश किया जा सकता है, लेकिन साफ है कि इस दिशा में किसी भी तरह का संशोधन वन अधिकार अधिनियम को...

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गांधी की अहिंसा का मर्म-- जैनेन्द्र कुमार

एक संपादक भाई अहिंसा के कायल थे। पर गांधीजी के यहां उन्होंने देखा कि भजन गाया जा रहा है- सुनेरी मैंने निर्बल के बल राम/ जब लगि गज बल अपनों बरत्यो/ नेक सरयो नहि काम/ निर्बल ह्वै बल राम पुकारयो/ तजि आए निज धाम/... द्रुपद-सुता निर्बल भई जा बिन/ नहि आयो कोई काम / आधे नाम कहत ही भैया/ बसन रूप भए श्याम/... अपबल, तपबल और बाहुबल/ चौथो बल...

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