हाल ही में मैं दिल्ली की तपती गर्मी को पीठ दिखाते हुए संसद से कुछ ही फासले पर स्थित जंतर-मंतर गई तो मन में पहला सवाल यही उठा कि क्या यह वही स्थान है, जहां 16 दिसंबर 2012 को हुए निर्भया गैंगरेप कांड के बाद भारी संख्या में लोगों ने लगातार कई दिनों तक सरकार व व्यवस्था के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर दुनिया का...
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बदलती राजनीति के संकेत- जगदीप एस छोकर
लोकसभा चुनाव ने कई तरह की उम्मीदें जगाई हैं, मगर हताशा भी कम नहीं है। मतदाताओं में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन पूरे चुनाव के दौरान लगा कि राजनीतिक पार्टियां अब भी बदलने को तैयार नहीं। अभी सर्वोच्च न्यायालय का एक फैसला आया है कि चुनाव आयोग के पास पेड न्यूज की वजह से चुनाव खर्च की जांच करने का अधिकार है। दरअसल विरोधी पार्टी की शिकायत पर चुनाव आयोग 2009 के...
More »क्यों सुलगता है बोडोलैंड- संजय हजारिका
असम के बोडो क्षेत्रीय परिषद इलाके में हाल ही हुई हत्याओं और भय के माहौल की खबरें अखबारों के मुखपृष्ठ और टेलीविजन की हेडलाइंस से उसी तेजी से गायब हुईं, जिस तीव्रता से उन्होंने देश का ध्यान खींचा था। चुनावी गहमागहमी में ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं है। मगर लोग इससे परेशान थे कि मीडिया में इस घटना पर त्वरित टिप्पणियों की तो कमी नहीं थी, पर जिन जवाबों की उन्हें संजीदगी से...
More »राजनीतिक विमर्श और जन-स्वास्थ्य- नीकी नैनसी
जनसत्ता 9 मई, 2014 : सोलहवीं लोकसभा के चुनाव अपने आखिरी चरण में हैं, लेकिन अभी तक किसी पार्टी ने सामाजिक विकास को लेकर कोई ठोस बहस या तथ्य पर आधारित चर्चा करने की जरूरत नहीं समझी है। किसी भी पार्टी का घोषणापत्र उठा लें, एक बात पर सभी अपना दावा करते नजर आएंगे- आर्थिक और समेकित विकास। इन भारी-भरकम शब्दों के इस्तेमाल में आपको कोई कटौती नहीं मिलेगी, चाहे...
More »अस्वीकृति में उठे हाथ- कुमार प्रशांत
सारे देश में चुनाव की तेज हलचल है और कई जगहों पर, कई व्यक्तियों की किस्मत उन मशीनों में बंद हो गई है,मशीनों में बंद हो गई है,जिन पर राजनीतिक दलों का भरोसा कम होता जा रहा है। वोट डाल कर मतदाताओं ने मुंह मोड़ लिया है। वे जानते हैं कि अब जब तक अगला चुनाव नहीं आता, इस लोकतंत्र से, इससे बनने वाली लोकसभा और उस लोकसभा में बैठने...
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