एक कथन है- 'एक नागरिक की जवाबदेही यही होती है कि जो कुछ भी उसके आस-पास गलत हो रहा है, वह उस पर लोकतांत्रिक ढंग से अपना हस्तक्षेप दर्ज करे.' यह कथन प्रमुख सामाजिक, मानवाधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया का है, जो उन्होंने कुछ दिन पहले एक साक्षात्कार में कहा है. वर्ष 2005 से बस्तर अधिक अशांत है. इसी वर्ष छत्तीसगढ़ सरकार ने कई उद्योगपतियों-कॉरपोरेटरों के साथ एमओयू साइन किया था....
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भ्रष्टाचार और प्रदूषण का खनन-- रामचंद्र गुहा
जब नई सदी की शुरुआत हुई, तो मेरे गृह राज्य कर्नाटक में आर्थिक उदारीकरण के ‘पोस्टर बॉय' थे- एन आर नारायण मूर्ति। मध्यवर्गीय परिवार से निकले इस शख्स के पास उद्यमशीलता का कोई पारिवारिक अनुभव नहीं था। नारायण मूर्ति ने अपनी जैसी सोच वाले छह अन्य लोगों को जोड़ा और इन्फोसिस की नींव रखी। बहुत मामूली शुरुआत हुई थी इसकी, मगर साल 2000 तक इस कंपनी का मुख्यालय न सिर्फ बेंगलुरु...
More »टीवी एंकरों की बढ़ती ताकत! --- आकार पटेल
क्या हमारे देश में टेलीविजन एंकर बहुत ज्यादा ताकतवर हो गये हैं? मैं तो हां कहूंगा, खासकर टाइम्स नाउ के अर्नब गोस्वामी जैसे अंगरेजी के एंकर. यहां टेलीविजन एंकरों को ताकतवर कहने से मेरा तात्पर्य है कि वे रोजाना की बहस और महत्वपूर्ण बातों को प्रभावित कर सकते हैं. यह ताकत प्रिंट और इंटरनेट के बड़े पत्रकारों के पास नहीं है. मेरा यह भी कहना है कि अर्नब गोस्वामी जैसे...
More »आंकड़ों में ही कम हो रही महंगाई - अनुराग चतुर्वेदी
बढ़ती महंगाई एक बार फिर चर्चा में है। वरना तो महंगाई का जिक्र चुनावी सभाओं या नीति आयोग जैसी संस्थाओं की गंभीर बैठकों में होता है। अर्थशास्त्री इसे मुद्रास्फीति से जोड़ते हैं तो किसान-दुकानदार 'मुनाफाखोरी" से। महंगाई पर चर्चा क्या सिर्फ आंकड़ों की कलाबाजी है या फिर यह हकीकत से भी जुड़ी है? सरकार का दावा है कि मुद्रास्फीति की दर दो अंकों से गिरकर एक अंक की हो गई...
More »मिलावटी दूध की बहती गंगा - भवदीप कांग
शुरुआत इसी विरोधाभासी तथ्य से करें कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है! पिछले पंद्रह वर्षों में भारत में प्रति व्यक्ति दूध उपलब्धता बढ़कर लगभग दोगुनी हो गई है। अब यह 322 ग्राम प्रतिदिन है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब भारत में दूध की मांग व आपूर्ति का तंत्र अच्छी तरह विकसित हो चुका है तो हम मिलावटी दूध पीने को मजबूर क्यों हैं?...
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