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वाराणसी: एग्रो फूड पार्क की फैक्ट्रियों की गंदगी से काली हुई नाद नदी, ग्रामीण परेशान

गांव कनेक्शन,  जोखू राम प्रजापति न ज्यादा बचपन में बीमार न हुए न जवानी के दिनों में, लेकिन बुढ़ापे में ऐसा बुखार आया कि अस्पताल में लाखों रुपए खर्च करने के बाद अब वो चारपाई पर आ गए हैं। घर के मुख्य दरवाजे पर पड़ी चारपाई पर ही लेटे रहते हैं। सीमेंट वाली चादर से लटकी ग्लूकोज की बोतल से बूंद-बूंद ग्लूकोज उनके शरीर में जाता रहता है, खाना-पानी भी नाक...

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ऐसी MSP योजना जो खेती का उद्धार करे

-गांव सवेरा, किसानों का संघर्ष जारी है। यह राजनीतिक सत्ता हासिल करने का संघर्ष नहीं है। यह संघर्ष है भारत की खेती और खेतिहर आबादी के बहुत बड़े हिस्से की आजीविका और रहन सहन को बेहतर करने का जो देश के ज्यादातर हिस्सों में बहुत ही बुरी दशा में है। इसलिए यह निहायत जरूरी हो गया है कि इस शांतिमय जनांदोलन को एक नई दिशा दी जाए ताकि छोटी खेती किसानी...

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भारतीय अर्थव्यवस्था में त्योहारों के उत्साह का माहौल है, उम्मीद है यह कायम रहेगा

-द प्रिंट, ये त्योहारों के दिन हैं और शेयर बाज़ार की तेजी बाकी अर्थव्यवस्था के लिए नयी खबर लेकर आई है, या कह सकते हैं कि इसके विपरीत भी हो रहा है. निर्यात में उछाल बनी हुआ है, टैक्स से आमदनी में भी वृद्धि हो रही है, औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े आशा जगा रहे हैं, मुद्रास्फीति में गिरावट आ रही है, बैंकों में खराब कर्जों की तादाद घट रही है, कॉर्पोरेट...

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इस 22 अगस्त से दुनिया एक बार फिर से पृथ्वी की लूट-खसोट में लग गई है

-सत्यहिंदी, दुनिया के लगभग हर देश की सरकारें करों आदि से होने वाले अपने राजस्व से अधिक ख़र्च करती हैं. अपने अतिरिक्त ख़र्च के लिए उन्हें ऋण लेने पड़ते हैं. उदाहरण के लिए, भारत की सरकारों द्वारा लिए गये ऋण, भारत के हर नागरिक पर इस समय औसतन 1,400 डॉलर से भी अधिक बैठते हैं. एक डॉलर इस समय लगभग 75 रूपये के बराबर है. घाटे के बजट की ही तरह दुनिया...

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मोदी सरकार और रिजर्व बैंक 2008 के संकट में की गई भूलों से सबक ले सकते हैं, मगर समय हाथ से निकल रहा है

-द प्रिंट, लॉकडाउन में पांचवां महीना बीत रहा है मगर कोविड-19 की महामारी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है और अर्थव्यवस्था निरंतर नीचे फिसलती जा रही है. आधुनिक भारत ने ऐसी महामारी पहले नहीं झेली थी, लेकिन इसका आर्थिक प्रभाव जाना-पहचाना है— सुस्त आर्थिक वृद्धि, ऊंची मुद्रास्फीति, और बेहिसाब बुरे कर्जों का घातक मेल. 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट (जीएफसी) के बाद के दौर में भी यही स्थिति थी....

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