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शिक्षा | पढ़ाई के साथ हुनर भी सीखते हैं आदिवासी बच्चे
पढ़ाई के साथ हुनर भी सीखते हैं आदिवासी बच्चे

पढ़ाई के साथ हुनर भी सीखते हैं आदिवासी बच्चे

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published Published on Nov 9, 2023   modified Modified on Nov 9, 2023

बाबा मायाराम
मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के ककराना गांव में ऐसा आवासीय स्कूल है, जहां न केवल पलायन करनेवाले आदिवासी मजदूरों के बच्चे पढ़ते हैं बल्कि हुनर भी सीखते हैं। यहां उनकी पढ़ाई भिलाली, हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में होती है। वे यहां खेती-किसानी से लेकर कढ़ाई, बुनाई, बागवानी और मोबाइल पर वीडियो बनाना सीखते हैं। अब इस स्कूल का एक भील वॉयस नामक यू ट्यूब चैनल भी चल रहा है।


पश्चिमी मध्यप्रदेश का अलीराजपुर जिला सबसे कम साक्षरता वाले जिलों में से एक है। यह पूरा इलाका सरदार सरोवर बांध से विस्थापित है। यहां के बाशिन्दे भील आदिवासी हैं। यहां की प्रमुख आजीविका खेती है। लेकिन चूंकि असिंचित और पहाड़ी खेती है, इसलिए अधिकांश लोग पलायन करते है। यहां के अधिकांश लोग राजस्थान और गुजरात में मजदूरी के लिए जाते हैं, इसलिए उनके बच्चों की पढ़ाई नहीं हो पाती थी। लेकिन इस आवासीय स्कूल से बच्चों की पढ़ाई हो रही है।


इस इलाके में आदिवासियों के हक और सम्मान के लिए खेडुत मजदूर चेतना संगठन सक्रिय है। शुरुआत में इस संगठन ने अनौपचारिक रूप से आदिवासी बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। लेकिन बाद में इसके कार्यकर्त्ता कैमत गवले व गांववासियों ने मिलकर ककराना गांव में आवासीय स्कूल की शुरुआत की। यह वर्ष 2000  की बात है। स्कूल का नाम रानी काजल जीवनशाला है। यह स्कूल, मध्यप्रदेश शिक्षा विभाग में पंजीकृत है और यहां माध्यमिक स्तर की शिक्षा दी जाती है। 
स्कूल के प्राचार्य निंगा सोलंकी बताते हैं कि वर्ष 2008 में हमने कल्पांतर शिक्षण एवं अनुसंधान केन्द्र समिति गठित की, जो स्कूल के संचालन के लिए वित्तीय मदद जुटाती है। हाल ही में महिला जगत लिहाज समिति नामक संस्था ने भी संचालन में सहयोग करना शुरू किया है,जिसकी मदद से नए भवन बने हैं और छात्रावास भी संचालित हो रहा है। स्कूल का सर्व सुविधायुक्त परिसर है, भवन हैं और 2 एकड़ जमीन है, जिसमें हरे-भरे पेड़ पौधों के साथ जैविक खेती भी होती है।
यह परिसर पहाड़ियों से घिरा हुआ है। यहां मिट्टी-पानी का संरक्षण हो, यह सुनिश्चित किया जा रहा है। मिट्टी का क्षरण न हो और पानी की एक बूंद भी परिसर से बाहर न जाए, इसलिए परिसर में पेड़-पौधों का रोपण किया गया है। यहां सागौन, महुआ, शीशम, कटहल, बादाम, सीताफल, जाम, नीम, नींबू, अंजन जैसे करीब 2000 पौधे रोपे गए हैं। विद्यार्थी प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व संवर्धन का काम करते हैं। परिसर में सैकड़ों तरह के पक्षियों का बसेरा भी है।


वे आगे बताते हैं कि आदिवासी बच्चों के लिए आवासीय स्कूल की जरूरत है, क्योंकि उनके परिवार में पढ़ाई-लिखाई का कोई माहौल नहीं है। वे आजाद भारत में पहली पीढ़ी हैं, जो शिक्षित हो रहे हैं। हमने यह महसूस किया कि बच्चों को एक दिन के स्कूल की तुलना में ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। इसलिए आवासीय स्कूल का निर्णय लिया गया। दैनिक स्कूलों में कामकाज की समीक्षा से पता चला कि अशिक्षित माता-पिता के बच्चों के प्रभावी शिक्षण के लिए उन्हें नियमित स्कूली घंटों के अलावा भी पढ़ाने की जरूरत है। इन्हें जो शिक्षक पढ़ाते हैं, वे भी उनके बीच के हैं और परिसर में ही रहते हैं।

तस्वीर में- स्कूल का नया भवन.


इस शाला का नाम आदिवासियों की देवी रानी काजल के नाम पर रखा गया है। जिसके बारे में मान्यता है कि यह देवी महामारी व संकट के समय उनकी रक्षा करती है। स्कूल की फीस का ढांचा ऐसा है कि अभिभावक इसे वहन कर सकें। लड़कों के लिए रहने, भोजन व स्कूल की सालाना फीस 12,500 रूपए निर्धारित है। इसके अलावा, 1 क्विंटल अनाज और 5 किलो दाल भी देना होती है। जबकि लड़कियों के लिए आधी फीस 6,000 रूपए ली जाती है। अनाज और दाल भी देना होता है। हालाँकि कई बच्चे इसे नहीं दे पाते हैं, फिर भी उनकी पढ़ाई जारी रहती है।


प्राचार्य सोलंकी बतलाते हैं कि इस स्कूल का उद्देश्य आदिवासी पहचान और संस्कृति का संरक्षण करना भी है। इसमें दूसरी कक्षा तक भिलाली भाषा में बच्चों को पढ़ाया जाता है। और इसके बाद हिन्दी और अंग्रेजी भी पढ़ाई जाती है। कुछ भीली किताबों का अंग्रेजी और हिन्दी में भी अनुवाद किया गया है।
वे आगे बताते हैं कि यहां पढ़ाई के साथ हाथ के हुनर व कारीगरी सिखाई जाती है। किसानी, लोहारी, बढ़ईगिरी, सिलाई और बागवानी इसमें प्रमुख हैं। पिछले वर्ष मध्यप्रदेश शिक्षा मंडल द्वारा आयोजित पांचवी और आठवीं कक्षा की परीक्षाओं में इस विद्यालय के विद्यार्थी जिले में अव्वल आए थे। कुछ अधिकारी और सरकारी नौकरियों में गए हैं। स्कूल के एक शिक्षक हैं, जो पहले इसी स्कूल के विद्यार्थी रह चुके हैं। पहली बार नर्मदा किनारे गांवों की लड़कियां पढ़ रही हैं, और उनमें से एक शिक्षिका भी बन गई हैं। 


इसके अलावा, यहां आधुनिक रिकार्डिंग स्टूडियों भी है, जहां आदिवासी संस्कृति पर वीडियो बनाए जाते हैं। और भील वॉयस नामक यू ट्यूब चैनल पर प्रसारित किए जाते हैं।
स्कूल की शुरुआत में बिना पाठ्यपुस्तकों के ही पढ़ाई होती थी। भिलाली और हिन्दी में बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाया जाता था। लेकिन जल्द ही पाठ्यक्रम विकसित किया गया। अब तो मध्यप्रदेश के स्कूली पाठ्यक्रम के अलावा कौशल आधारित शिक्षा व प्रशिक्षण दिया जाता है।पढ़ाई के अलावा, बच्चों को खेतों में दो घंटे मेहनत करनी होती है, जिससे उनका खेती से नाता न टूटे। 


हर साल गर्मी की छुट्टियों के दौरान प्राचार्य निंगा सोलंकी और शिक्षिका रायटी बाई ने नई शिक्षण पद्धति अपनाई है। वे पाठ्यक्रम से संबंधित शैक्षणिक वीडियो व ऑडियो बनाते हैं, जिन्हें बाद में बच्चों के माता-पिता के मोबाइल पर साझा किया जाता है। इससे बच्चे परिसर के बाहर घर में भी उनकी पढ़ाई जारी रखते हैं। महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए फोन कॉल और संदेशों का आदान-प्रदान भी किया जाता है।
प्राचार्य सोलंकी बतलाते हैं कि आदिवासियों की संस्कृति, बोलियां और जीवनशैली आधुनिक प्रभावों के कारण तेजी से बदल रही है। उनकी पारंपरिक जीवनशैली का अनूठापन लुप्त हो रहा है, इसलिए हमने भीली में यह कार्यक्रम शुरू किया है, जिससे उसका संरक्षण किया जा सके।


इसके लिए अमरीका में प्रवासीय भारतीय प्रोफेसर उत्तरन दत्ता ने सहयोग दिया है और उनके मार्गदर्शन में 15-20 बच्चों को मोबाइल वीडियोग्राफी और वीडियो संपादन का प्रशिक्षण दिया गया है। इसके माध्यम से लोकगीत, कहानियां और पारंपरिक उपचार विधियों और जंगलों के खान-पान व महत्व पर आधारित कार्यक्रम तैयार किए जाते हैं।


कुल मिलाकर, यह आदिवासी मजदूर बच्चों का आवासीय स्कूल है, जिसमें न केवल पढ़ाई करते हैं, बल्कि गतिविधि आधारित शिक्षा भी हासिल करते हैं। प्रकृति अवलोकन, श्रम आधारित उत्पादन पद्धति से भी सीखते हैं। उनकी भीली-भिलाली भाषा में मौलिक अभिव्यक्ति भी करते हैं। इसके लिए उनका यू ट्यूब चैनल भी है। इस स्कूल के मूल्यों में एक आदिवासी पहचान,संस्कृति व अच्छी परंपराओं का संरक्षण करना भी है। 
इस स्कूल की खास बात यह भी है कि स्कूली शिक्षक उनके बीच रहते हैं। जिज्ञासा, सवाल व समस्याओं के हल के लिए सहज ही उपलब्ध हैं। वे एक परिवार की तरह रहते हैं। बच्चों को तोतारटंत किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि श्रम के मूल्य साथ समझ विकसित करने की कोशिश की जाती है। इस स्कूल ने श्रम के मूल्य का बोध भी कराया है, जिसका पूरी शिक्षा व्यवस्था में लोप हो गया है। यह पूरी पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।


 


बाबा मायाराम
 

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