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शिक्षा | मुंबई की झुग्गी में शिक्षा की अलख जगाते सुपरहीरो अंकल

मुंबई की झुग्गी में शिक्षा की अलख जगाते सुपरहीरो अंकल

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published Published on Nov 11, 2014   modified Modified on Nov 11, 2014
फिरोज अशरफ ने बीस साल पहले नौकरी छोड़ दी थी। उनके पढ़ाए बच्चे आज झुग्गियों से निकलकर बड़े बैंक अधिकारी और वकील बन गए हैं।

73 वर्षीय फिरोज अशरफ जोगेश्वरी की झुग्गी बस्तियों के बच्चों के लिए सुपरहीरो अंकल से कम नहीं हैं। उम्र के इस पड़ाव पर आकर फिरोज का कहना है कि जब तक हाथ-पांव चल रहे हैं, बच्चों को पढ़ाता रहूंगा। 1997 से अब तक 5000 से ज्यादा बच्चे उनसे शिक्षा ले चुके हैं।

फिरोज बताते हैं, उनका मकसद शिक्षा की उस कमी को पूरा करना है जो सरकारी स्कूलों की अनदेखी के कारण बनी है। यही कारण है कि उन्होंने झुग्गी बस्तियों को चुना है। सरकारी स्कूलों में उचित बंदोबस्त नहीं हैं और गरीब बच्चे प्रायवेट स्कूलों की फीस नहीं भर सकते हैं।

अपने इस सफर का जिक्र करते हुए वे बताते हैं कि यह सिलसिला 1997 में शुरू हुआ था। तब मैंने अपनी बिल्डिंग के चौकीदार के बच्चों को निःशुल्क पढ़ाना शुरू किया था। चौकीदार ने बताया था कि उसकी बेटी गणित में फेल हो गई है और वो ट्यूशन फीस नहीं भर सकता है। उसने गुजारिश की तो मैं पढ़ाने लगा।

बकौल फिरोज, कुछ दिनों बाद बिल्डिंग के सफाईकर्मी ने भी ऐसी ही मदद मांगी। उसने भी अपने बच्चों को भेज दिया। अगले साल तो मुझे 30-30 बच्चों की कक्षाएं लगाना पड़ीं क्योंकि मेरे घर में इससे ज्यादा बच्चों को एक साथ बैठाने की व्यवस्था नहीं थी।

जैसा गुरु वैसे चेले


फिरोज द्वारा शुरू की गई मुहीम उन तक ही सीमित नहीं है। वे जिन बच्चों को पढ़ा रहे हैं, वे अपने माता-पिता का नाम तो रोशन कर ही रहे हैं, साथ ही दूसरे गरीब बच्चों को शिक्षित करने का बेड़ा भी उठा रहे हैं। फिरोज के अनुसार, ऊर्दू माध्यम के कई सरकारी स्कूलों में गणित और विज्ञान के लिए शिक्षक नहीं हैं। मेरे पढ़ाए बच्चे वहां सेवाएं दे रहे हैं।


1965 में झारखंड से बीएससी करने के बाद फिरोज मुंबई चले आए थे और भवन्स कॉलेज से पत्रकारिता में डिप्लोमा किया था। इसके बाद दिल्ली और मुबई में रहकर कई अखबारों में काम किया। लोकप्रिय टीवी शो सुरभि की पटकथा लिखने वालों में फिरोज भी एक थे। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके स्तंभ ‘पाकिस्तानामा' के लेखों से हाल ही में एक किताब का प्रकाशन भी हुआ है।


फिरोज के शब्दों में, मैं 1993 तक मीडिया जगत से जुड़ा रहा। इसके बाद मुंबई में प्रायवेट फर्म की ट्रेड यूनियन के लिए नौकरी की, लेकिन तभी अहसास हुआ कि मैं अब ये काम नहीं कर पाऊंगा। कई गरीब बच्चों को मेरी जरूरत है। इस तरह 1997 में मैंने नौकरी छोड़ दी। तब से मैं पूरी तरह से बच्चों को पढ़ाने में लगा हूं। अब तक मैं करीब 5000 बच्चों को शिक्षा दे चुका हूं। अब मेरी कक्षाओं में सभी आयु वर्ग के बच्चे आते हैं। यहां तक कि कई कॉलेज स्टुडेंट भी नियमित आते हैं।


एनजीओ से आर्थिक मदद

फिरोज बताते हैं कि मैं सभी विषयों का जानकार नहीं हूं, इसलिए मैंने अपने साथ कुछ शिक्षकों को भी जोड़ा है। मेरे कई छात्र-छात्राएं किताबें नहीं खरीद पाते हैं। ऐसे बच्चों को हम मुफ्त किताबें भी उपलब्ध कराते हैं। मैं नहीं चाहता कोई भी बच्चा किताबों के अभाव में पढ़ाई छोड़ दे। फिरोज के इन्हीं प्रयासों से प्रभावित होकर कई गैर सरकारी संगठन मदद के लिए आगे आए हैं। फिरोज के अनुसार, उन्हें अक्षर, मजली, राजीव गांधी फाउंडेशन जैसे संस्थानों से मदद मिलती है। अब मैंने भी एक गैर-सरकारी संगठन शुरू किया है, जिसका नाम विकास अभियान केंद्र है, जहां से 100- 150 बच्चों की शिक्षा का खर्च उठाया जा रहा है।


यूनिसेफ ने भी माना लोहा

फिरोज से प्रभावित होकर मुंबई स्थित ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेसन (ओआरएफ) ने हाल ही में एक डाक्यूमेंट्री और बुकलेट जारी की थी, जिसका शीर्षक था- अंकल - द स्कूल इन हिमसेल्फ। ओआरएफ के अध्यक्ष सुधींद्र कुलकर्णी का अनुसार, हम फिरोज साहब को बीते एक दशक से देख रहे हैं और हमें लगता है कि उनके अच्छे कार्यों का प्रचार करने की जरूरत है। डाक्यूमेंट्री मजहर कामरान ने बनाई थी, जबकि बुकलेट आआरएफ के कर्मचारियों ने लिखी थी। 2001 में यूनिसेफ ने फिरोज के कार्यों को पहचाना और टोक्यो में शिक्षण तकनीक पर आयोजित एक कार्यशाला में आमंत्रित भी किया था। फिरोज के मुताबिक, उस अनुभव को मैं जीवनपर्यंत नहीं भुला पाऊंगा।

 


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