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कृषि | बीजों का त्यौहार अक्ति और इससे जुड़ी जैविक खेती की अनोखी पहल -बाबा मायाराम
बीजों का त्यौहार अक्ति और इससे जुड़ी जैविक खेती की अनोखी पहल -बाबा मायाराम

बीजों का त्यौहार अक्ति और इससे जुड़ी जैविक खेती की अनोखी पहल -बाबा मायाराम

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published Published on May 19, 2020   modified Modified on May 19, 2020

छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के एक छोटा सा गांव कुहरी। गांव में पारंपरिक त्यौहार अक्ति मनाया गया, जिसके साथ जैविक खेती के नए आयाम जुड़े हैं। यहां की महिला किसानों ने इस मौके पर ठाकुरदेव की पूजा अर्चना की और अच्छी नई फसल की कामना की। पूजा-अर्चना के साथ ही इस त्यौहार के अवसर पर महिलाओं ने जैविक खेती करने का भी संकल्प लिया। 

कुहरी गांव, बांसकुडहा पंचायत के अंतर्गत आता है। यह कोडार बांध के पास है, जिसे शहीद वीर नारायण सिंह जलाशय के नाम से जाना जाता है। वीर नारायण सिंह 1857 के विद्रोह के नायक थे। इस बांध में कई गांव विस्थापित हुए थे जिसमें कुहरी भी एक है। इस गांव समेत 8 गांवों में देसी बीज बैंक और जैविक खेती का काम किया जा रहा है। यह पहल श्रीजन कल्याण समाजसेवी संस्था, महासमुंद ने की है, जिसे राजिम स्थित प्रेरक संस्था मदद कर रही है। 

छत्तीसगढ़ सांस्कृतिक रूप से समृद्ध प्रदेश है और यहां इसके कई रंग-रूप हैं। अक्ति त्यौहार पर गांवों में किसान चना, तिवरा, मसूर, उड़द और महुआ को भूनकर लाई बनाते हैं, ठाकुरदेव की पूजा करते हैं। इसी मौके पर धान के दानों को छींटकर नागर के लोहे से जोता जाता है। किसान घरों से धान बीज बांस की टोकरियों में लेकर खेत जाते हैं और सांकेतिक रूप से धान को बोते हैं। यह पारंपरिक तरीका है, जिसे किसान सालों से कर रहे हैं। एक हिसाब से यह बीजों के आदान- प्रदान, बीजों की विविधता और संरक्षण का किसानों का तरीका है। देसी बीजों के साथ पारंपरिक ज्ञान व किसानों की आत्मनिर्भरता जुड़ी हुई है, जिसे फिर से पुनर्जीवित किया जा रहा है। 

इस मौके पर बड़ी संख्या में गांव की महिला किसान आई थीं और श्रीजन कल्याण संस्था की हेमलता राजपूत शामिल हुई थीं। कोरोना महामारी में लॉकडाउन के कारण आपस में शारीरिक दूरी का खयाल रखा गया था। हेमलता राजपूत व उनकी संस्था की पहल से ही जैविक खेती का यह अनूठा कार्यक्रम चल रहा है। हेमलता राजपूत, सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो महिला अधिकारों के मुद्दे पर लम्बे समय से कार्यरत हैं।   

देसी बीजों के संरक्षण व संवर्धन के इस काम में प्रेरक संस्था ने अग्रणी भूमिका निभाई है। संस्था ने धान के देसी किस्मों का संग्रह किया है। संस्था के भिलाई स्थित वसुंधरा केन्द्र में 350 देसी धान की किस्मों का संग्रह है। जिसमें 27 किस्में लाल चावल की, 6 किस्में काले चावल की, 1 किस्म हरे चावल की है। इसके अलावा, इन किस्मों में कम पानी में पकने वाली, ज्यादा पानी में पकनेवाली, लंबी अवधि की माई धान, कम अवधि की हरूना धान इत्यादि शामिल हैं। इन किस्मों में जवाफूल, विष्णुभोग, बादशाह भोग, सोनामासुरी, पोरासटका, साठिया, लायचा, डाबर, दूबराज, मासुरी इत्यादि है। इनमें से कई किस्में औषधि गुणों वाली भी हैं और सुगंधित किस्में भी हैं। 

छत्तीसगढ़ के कई जिलों में जैविक खेती का सिलसिला शुरू हुआ है। जिसमें धमतरी, कोंडागांव, बस्तर, कबीरधाम, राजनांदगांव, जांजगीर-चापा, बिलासपुर और कोरबा शामिल है। इसी कड़ी में महासमुंद जिले में कार्यरत श्रीजन कल्याण समिति के साथ मिलकर काम कर रही है। देसी बीज, जैविक खेती, आदिवासियों की आजीविका, वन अधिकार आदि पर काम किया जा रहा है।

कुहरी में श्रीजन सामुदायिक बीज बैंक हैं। यहां देसी धान की 19 प्रजातियां, दलहन की 13, उड़द की 4, मूंग की 4, कुलथी की 2 और झुरगा की 2 प्रजातियां हैं। इसके अलावा, कई तरह हरी भाजियों की बीज हैं। लाल भाजी, चैंच भाजी, खेड़ा भाजी, पटवा भाजी, अमाड़ी भाजी, पालक भाजी, मखना भाजी, कुसुम भाजी, चौलाई भाजी इत्यादि। इस बीज बैंक की शुरूआत वर्ष 2016 में हुई थी और इसकी संचालन समिति में 10 सदस्य हैं। यहां से किसानों को बीज दिया जाता है, जिसे उन्हें फसल आने पर वापस करना होता है। 

कुहरी गांव की कौशल्या बाई कहती हैं कि देसी बीजों में रोग ज्यादा नहीं लगते हैं, और उनसे प्राप्त अनाज खाने में भी स्वादिष्ट होता है। अगर फसलों में कीट प्रकोप लगता भी है तो जैव कीटनाशक बनाकर छिड़कते हैं। जिसे वे स्थानीय पौधों की पत्तियों से तैयार कर लेते हैं। कर्रा, आक, नीम, कड़वा रोहना, बिरहा आदि की पत्तियों से जीवामृत बनाया जाता है। इसके लिए बोड़रा, बरबसपुर, खैरा, कोमा आदि गांवों में जैव कीटनाशक व जैव खाद बनाने का प्रशिक्षण शिविर लगाया गया। कुहरी के साथ बांसकुडहा, बिरगिरा, बोड़रा, घोघीबाहरा, सेनकपाट, कुसेराडीह, केशलडीह, वनसिवनी, कर्राडीह गांव में भी जैविक खेती होती है।

प्रेरक संस्था के रामगुलाम सिन्हा कहते हैं पारंपरिक देसी बीजों को किसानों ने सैकड़ों सालों में विकसित किया है। यह मानव समाज व किसानों की धरोहर हैं जिनका संरक्षण व संवर्धन जरूरी है। छत्तीसगढ़ में खेतों में देसी धान की हजारों प्रजातियां हैं। यहां खेत में धान और मेड़ों पर अरहर, तिली बोई जाती है। यही यहां की खान-पान की संस्कृति है।

जंगलों में वन खाद्य, कंद मूल, अनाज, दलहनें, जड़ी बूटी और औषधियां हैं। इनके साथ जुड़ा हुआ परंपरागत ज्ञान है और इसके साथ जीवामृत व जैविक खाद के आधुनिक ज्ञान को जोड़कर बदलाव लाया जा सकता है। खाद्य सुरक्षा के साथ लोगों की आजीविका की सुरक्षा की जा सकती है। देसी बीजों का संरक्षण व संवर्धन किया जा सकता है। जैव विविधता के साथ पर्यावरण की सुरक्षा की जा सकती है। यह छत्तीसगढ़ की खेती किसानी की संस्कृति में भी शामिल है, जिससे काफी कुछ सीखा जा सकता है। 


बाबा मायाराम


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