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साक्षात्कार | मोदी का उदय चंद कारपोरेट घरानों का विकास है : आरएलडी उपाध्यक्ष जयंत सिंह चौधरी
मोदी का उदय चंद कारपोरेट घरानों का विकास है : आरएलडी उपाध्यक्ष जयंत सिंह चौधरी

मोदी का उदय चंद कारपोरेट घरानों का विकास है : आरएलडी उपाध्यक्ष जयंत सिंह चौधरी

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published Published on Jan 6, 2021   modified Modified on Jan 7, 2021

-कारवां,

जयंत सिंह चौधरी राष्ट्रीय लोक दल के उपाध्यक्ष हैं. इस पार्टी का पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आधार है. आरएलडी का गठन 1996 में जयंत के पिता अजित ने जनता दल से अलग हो कर किया था. इसकी पूर्ववर्ती पार्टी लोक दल थी, जिसकी स्थापना 1980 में जयंत के दादा चौधरी चरण सिंह ने की थी. चरण सिंह भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और प्रसिद्ध किसान नेता रहे. अपनी स्थापना के बाद से आरएलडी ने कई बिंदुओं पर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया और उत्तर प्रदेश से विधान परिषद, विधानसभा और लोक सभा चुनाव लड़ा. 2018 में उसने राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए पहली बार यूपी के बाहर एक उम्मीदवार को मैदान में उतारा. उम्मीदवार सुभाष गर्ग ने जीत दर्ज की और फिलहाल पार्टी के एकमात्र विधायक हैं. पार्टी का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2009 में था, जब उसने बीजेपी के साथ गठबंधन बना कर लोक सभा की पांच सीटें जीती. दो साल बाद आरएलडी बीजेपी से अलग हो गई और कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में शामिल हो गई.

जयंत 2009 और 2014 के बीच मथुरा से आरएलडी के सांसद रहे. 2019 में उन्होंने बागपत से लोक सभा चुनाव लड़ा लेकिन बीजेपी के सत्यपाल सिंह से हार गए. वह लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के पूर्व छात्र हैं और लोक सभा में अपने समय में कृषि, वित्त और नैतिकता की स्थायी समितियों में काम किया. कारवां के फेलो सुनील कश्यप ने जयंत से बीजेपी सरकार द्वारा हाल ही में लागू किए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसानों के आंदोलन और यूपी के राजनीतिक परिदृश्य के बारे में बात की.

सुनील कश्यप : क्या आप बता सकते हैं कि कृषि कानून क्या हैं और किसान इतने गुस्से में क्यों हैं कि उन्हें सड़कों पर उतर आना पड़ा है? क्या आपको लगता है कि उनकी मांगें जायज हैं?

जयंत सिंह चौधरी : किसानों के नाम पर कानून बना दिया गया है. यह सरकार चीजों का नामकरण करने में माहिर है. इसके पीछे जो कारण है, जो जल्दबाजी है, जो मोटिवेशन है उनका किसान और खेती से कम ही लेना-देना है. इनमें से एक कानून मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अधिनियम है. न तो इसका सशक्तीकरण से कोई लेना-देना है, न ही यह कोई सुरक्षा ही देता है और मूल्य आश्वासन के बारे में भी कुछ नहीं कहता है. अगर मूल्य आश्वासन होता, तो इस कानून के तहत एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) का प्रावधान एक कानूनी गारंटी होता. वे एमएसपी का जिक्र तक नहीं करते हैं लेकिन उन्होंने इसे यह नाम दिया है.

जब से बीजेपी सत्ता में आई है यही उसका मुख्य फोकस है. वे राजनीति का केंद्रीकरण, सत्ता का केंद्रीकरण चाहते हैं, चाहे वह आर्थिक हो या सामाजिक. उसी नाते अर्थव्यवस्था में एक फॉर्मूलाइजेशन की ओर जा रहे हैं. यानी जो व्यवस्थित क्षेत्र है उनको बढ़ावा देना.

देश आर्थिक तंगी से गुजर रहा है. लोगों के पास अपने बच्चों की स्कूल की फीस जमा करने तक के पैसे नहीं है. जो किसानों के भुगतान समय पर होने चाहिए थे वे नहीं हो पा रहे हैं. बिजली का बिल भी नहीं चुका पा रहे हैं. लेकिन स्टॉक मार्केट की ओर देखेंगे तो, नई ऊंचाई, अब तक सबसे ऊंची स्थिति में शेयर बाजार छलांग लगा रहा है. ऐसा इसलिए है क्योंकि उस औपचारिक क्षेत्र में- देश में लगभग 200 से 250 ऐसे कारपोरेट घराने हैं. और उनमें से केवल 4 या 5 ही मुख्य खिलाड़ी हैं, जिन्होंने बीजेपी के सत्ता में आने के बाद सबसे अधिक लाभ उठाया है. ये लोग वे हैं जो इस सरकार को चला रहे हैं. जो कानून बनाए जा रहे हैं, उनके पीछे इनकी ही ताकत है.

लेकिन किसानों को क्या बताया जा रहा है? “खेती करो, सरकार चलाने की कोशिश न करो. तुम शासन को नहीं समझ सकते, तुम अनपढ़ लोग कानून को नहीं समझ सकते.” ये कानून केवल नाम के किसानों के लिए हैं, और किसान इसे समझता है, यही कारण है कि किसान कानूनों को नहीं चाहते हैं और विरोध कर रहे हैं.

सुनील कश्यप : बार-बार लगाए जा रहे आरोपों कि प्रदर्शनकारी किसान किसानों की तरह नहीं दिखते, इस बारे में आपका क्या कहना है?

जयंत सिंह चौधरी : उनसे बात करें, उनके साथ जुड़ें, देखें कि क्या उन्हें खेती के बारे में पता है कि नहीं और आप उनकी भाषा से पता लगा लेंगे. मैं  सिंघु बॉर्डर पर गया. मैंने उनसे बात की, मैंने उनसे पूछा, “आप कहां से आए हैं?” मैंने पाया कि सरकार के खिलाफ उनमें आक्रोश है. लेकिन करुणा भी है. वे किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते. आप यह मूखर्तापूर्ण बात सुनते होंगे कि अज्ञात ताकतें किसानों का समर्थन कर रही हैं, ये लोग ठंड में सड़कों पर डेरा जमाए हुए हैं. उन्होंने अपने गांवों को छोड़ दिया है, अपने परिवारों को छोड़ दिया है और अब भी डटे हुए हैं. उन्हें क्या इनाम मिल रहा है? क्या वे केवल अपने लिए लड़ रहे हैं? पंजाब के किसानों ने आज इस सरकार को हिला दिया है. मध्य प्रदेश, तेलंगाना, आंध्र और बिहार के किसानों को भी इससे फायदा होता है, तो इसमें गलत क्या है?

सुनील कश्यप : एमएसपी के मुद्दे पर सरकार क्यों झिझकती है?

जयंत सिंह चौधरी : एमएसपी कोई गारंटी नहीं है, यह कोई अधिकार नहीं है, इसके लिए कोई कानूनी मंच नहीं है, कोई भी किसान यह कहने के लिए अदालत में नहीं जा सकता है कि मुझे एमएसपी नहीं दिया गया है जबकि इसकी घोषणा की गई थी. और तथ्य यह है कि नए कानून एपीएमसी मंडियों को काफी कमजोर कर देंगे (कृषि उपज बाजार समितियां राज्य सरकारों द्वारा लेनदेन को विनियमित करने और खुदरा विक्रेताओं द्वारा शोषणकारी प्रथाओं से किसानों को बचाने के लिए स्थापित विपणन बोर्ड हैं). मंडियों में व्यापार नहीं होगा और मंडी व्यवस्था निरर्थक हो जाएगी. एक बार ऐसा हो जाए तो सरकार कहां से खरीद करेगी? क्या वे रिलायंस से खरीदेंगे या किसान से खरीदेंगे? जब बड़ी निजी कंपनियां किसानों की उपज खरीदती हैं और सरकार को राशन वितरण के लिए उपज की खरीद करनी होती है, तो सरकार उन खरीदों को कैसे प्राप्त करेगी? कहीं न कहीं उन्हें रिलायंस से ही खरीदना होगा. इसलिए किसान डर गया है कि ये कारपोरेट न केवल निजी भागीदारी को प्रोत्साहित कर रहे हैं बल्कि एमएसपी को भी निशाना बना रहे हैं क्योंकि इस नई प्रणाली में एमएसपी की घोषणा का कोई अर्थ नहीं होगा और यह निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की आड़ में किया जा रहा है क्योंकि सरकार इससे बाहर निकलना चाहती है.

आज भी सरकार पर खरीदने का दबाव है और इसीलिए एफसीई (भारतीय खाद्य निगम) के गोदाम भरे हुए हैं. लेकिन हालत ऐसी है कि हमारे अनाज का भंडार आवश्यक स्तर का पांच गुना है और फिर भी भुखमरी है. जब इस विषमता, इस खराब नीति पर सवाल उठाया जाता है, वे जवाबदेह नहीं होना चाहते और उससे मुक्त होना चाहते हैं. उनकी सोच है कि आज हमने उनके खाते में 2000 रुपए दिए (प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत, जिसमें छोटे और सीमांत किसानों को न्यूनतम आय सहायता के रूप में प्रति वर्ष 6000 रुपए तक मिलेंगे, जिसमें पहली किश्त 2000 रुपए होगी.) कल हम 3000 रुपए देंगे. हमें खरीदने की आवश्यकता क्यों है? अर्थशास्त्रियों, नीति निर्माताओं की एक बड़ी लॉबी है जो इस सरकार पर हावी है. वे सरकार को इन बातों को समझा रहे हैं.

सुनील कश्यप : किसानों के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति क्या है? क्या आपको लगता है कि नए कानून निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे रहे हैं?

जयंत सिंह चौधरी : हां, बिल्कुल ऐसा है. लेकिन देखिए कृषि में निजी क्षेत्र का आना कोई बुरी चीज नहीं है. मैं उस वक्त खुद संसद सदस्य था जब खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर चर्चा हो रही थी. उस समय ये लोग (बीजेपी) विपक्ष में थे. उन्होंने कहा कि यह खेती में कहर बरपाएगा, एजेंट और किसान का रिश्ता खराब हो जाएगा, कृषि में क्यों निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया जा रहा है? आज भी हमारा तर्क यह नहीं है कि निजी क्षेत्र को कृषि में प्रवेश नहीं करना चाहिए. अगर कुछ निजी कंपनियां आती हैं तो किसानों के पास अधिक विकल्प होंगे.

लेकिन मौजूदा मंडी (विनियमित बाजार) प्रणाली को पहले सुधारना होगा. बिहार को देखें तो एफसीआई कुल उत्पादन का केवल दो प्रतिशत खरीदता है. और अगर एफसीआई खरीद नहीं करेगा, अगर सरकारी मंडी प्रणाली को बुनियादी ढांचे द्वारा समर्थित नहीं किया जाता है, तो किसान को उचित मूल्य नहीं मिलेगा. यह उन राज्यों का (बिहार में सुधार) अनुभव है जो पहले ही (2006 में) निजीकरण कर चुके हैं. और अब, वे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसा ही करना चाहते हैं, वे यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि किसान के पास कोई विकल्प नहीं है.

एक मौजूदा प्रणाली है, एक संरचना है, जिससे किसान परिचित हैं. आप इसे ध्वस्त करना चाहते हैं और नए सिरे से निर्माण करना चाहते हैं लेकिन सुधार के इरादे से नहीं. आप ऐसा करना चाहते हैं ताकि आप पूरी दुनिया में साबित कर सकें कि आप बहुत बड़े सुधारक हैं. और यह मोदी जी की इच्छा है. वह जो भी करते हैं, उसे कुछ शानदार, अद्वितीय होना चाहिए. अपनी दूसरी जीत के बाद वह यह स्थापित करना चाहते हैं कि हमारे इतिहास के 70 वर्षों में उनके जैसे महान नेता नहीं हुआ.

इसलिए वे ऐसे कानून लाते हैं. नोटबंदी को देखिए. सभी जानते हैं कि इससे नुकसान हुआ. आप सड़क पर एक बच्चे से पूछ लीजिए, किसानों से पूछ लीजिए, व्यापारियों से पूछ लीजिए, बीजेपी के मतदाताओं से पूछ लीजिए, बीजेपी के नेताओं से पूछ लीजिए. बंद दरवाजों के पीछे, हर कोई स्वीकार करता है कि नोटबंदी एक विफलता थी. लेकिन क्या (बीजेपी) सरकार यह स्वीकार करेगी? नहीं. वे कहेंगे यह एक बहुत अच्छा फैसला था. वे जिद्दी लोग हैं, वे बदलेंगे नहीं. उनका किया हम भुगतते हैं.

सुनील कश्यप : "न्यू इंडिया" में किसानों की क्या जगह होगी?

जयंत सिंह चौधरी : न्यू इंडिया में किसान खाली हाथ घंटी बजाएगा, वह मंदिरों के बाहर खड़ा रहेगा, वह भीख मांगेगा. जो कारपोरेट कह रहे हैं कि बिचौलियों को हटा दिया जाएगा, बिचौलिए गायब नहीं होंगे. अब यह टाई-सूट वाला कोई नौजवान होगा, जो रिलायंस या आईटीसी में नौकरी करता होगा, वह किसान से आधी या एक चौथाई कीमत पर खरीद करेगा. किसान एक मजदूर बन जाएगा. आज वह जिस जमीन का मालिक है, जिस जमीन पर उसका पैतृक अधिकार है इस परिदृश्य में जाने कब वह उससे छिन जाएगी. यह न्यू इंडिया है और हम जैसे लोग लव जिहाद पर बातें करने में उलझे रहेंगे और बॉलीवुड और खेल हस्तियां, जिन्हें हम टेलीविजन पर देखते और जिनके हम दीवाने हैं, वे सरकारी नीतियों में हस्तक्षेप और मध्यस्थता करेंगे. और दिखावा किया जाएगा कि देश कितना अच्छा कर रहा है, देश बदल रहा है, प्रगति हो रही है.

सुनील कश्यप : क्या आपको लगता है कि किसान अपने विरोध को बनाए रखने में सक्षम होंगे या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी धर्म, क्षेत्र या जाति के नाम पर इस एकजुटता को तोड़ सकती है?

जयंत सिंह चौधरी : पहले से ही बहुत अधिक मोड़ है. मैं पढ़ रहा था और अब आप देख सकते हैं, बुद्धिजीवी अपनी भाषा में बात कर रहे हैं, कि "ग्रामीण राजनीति बहुत हुई. ये ग्रामीण देश को दिशा देने का फैसला क्यों कर रहे हैं? ” यह शहरी राजनीति का उदय है. जिस तरह से इसे प्रसारित किया जा रहा है, जिस तरह की चर्चाएं चल रही हैं और जिस तरह का नैरेटिव चल रहा है. शहरी राजनीति देश की राजनीति कैसे तय करेगी, यह इन सबका विश्लेषण है. ये वे बुद्धिजीवी हैं जो आरएसएस के घेरे में आते हैं और संघ की ताकतें उन्हें और बढ़ावा देती हैं. चौधरी चरण सिंह के बाद गांवों के लोगों ने अपनी ताकत का एहसास कराया. वे (आरएसएस) इसे वापस लेना चाहते हैं.

सुनील कश्यप : चौधरी चरण सिंह को किसानों के मसीहा के रूप में जाना जाता है. यह आपकी विरासत है लेकिन किसानों के आंदोलन में आपकी कोई मौजूदगी नहीं है.

जयंत सिंह चौधरी : अगर हम संसद में होते तो हम पहले ही दिन से जब इस कानून का मसौदा तैयार किया जा रहा था, इस विधेयक का जोरदार विरोध करते. लेकिन मैं और चौधरी अजीत सिंह चुनाव हार गए. तथ्य यह है कि राजनीतिक पहलू को हल किया जा सकता था अगर ऐसा करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति होती; तब आंदोलन नहीं हुआ होता.

अभी, किसानों की राजनीतिक शक्ति कमजोर हुई है. यह एक सामाजिक आंदोलन है. यह एक सहज आंदोलन है; यह जमीन से जुड़े एक जमीनी आंदोलन के रूप में सामने आया है. इन लोगों को यहां बुलाया नहीं गया है. उनके पीछे कोई बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं है और यही इस विरोध की ताकत है. यही कारण है कि इन विरोधों को स्वीकृति मिली है. यही कारण है कि दिल्ली और मुंबई के ड्रॉइंग रूम में विरोध को गंभीरता से लिया जा रहा है. अगर हमने आरएलडी की तरफ से आह्वान किया होता, तो सभी किसान इसमें भाग नहीं ले पाते. मैं सिंघु सीमा पर गया. मैं सेवा की भावना के साथ गया ताकि मैं उनकी चिंताओं को समझ सकूं और उन्हें आगे बढ़ा सकूं. हम उस दिशा में राजनीतिक व्यवस्था के भीतर काम कर रहे हैं.

सुनील कश्यप : आज हिंदुत्व की राजनीति के प्रमुख प्रभाव के भीतर आप अपनी राजनीति को कैसे रखते हैं? आप भारत में राजनीति के भविष्य को कैसे विकसित होते हुए देखते हैं?

जयंत सिंह चौधरी : पहचान की राजनीति समाप्त नहीं होती है. राजनीति हमेशा पहचान के इर्द-गिर्द घूमती है. सवाल यह है कि वह पहचान क्या है? चरण सिंह ने कहा था कि हम गांव की बात करेंगे जिसमें मजदूरों, खेतिहर मजदूरों, किरायेदारों, छोटे व्यवसायियों, आराम से रहने वालों सभी को शामिल किया जाएगा. अगर सभी को शामिल किया जाता है, तो गांव का विभाजन नहीं होगा. शायद यही उनकी इच्छा थी जब चौधरी चरण सिंह ने इस पहचान को अपनी राजनीति के रूप में चुना.

लेकिन एक संघी केवल एक ही चीज जानता है, वह केवल एक ही भाषा समझता है, उसे बचपन से केवल एक ही चीज सिखाई जाती है : उसकी हिंदू पहचान. एक बांटने वाली पहचान जिसे इस देश की भावना और संविधान में कोई मंजूरी नहीं है. जिनका इतिहास इस देश में है, जिनकी पीढ़ी दर पीढ़ी बलिदान हुए हैं, जिन्होंने इस देश को आजाद कराने और बनाने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया है, आज वे खुद को व्यवस्था की मुख्यधारा से बाहर पाते हैं. अब, नैरेटिव यह है कि यह हिंदुत्व का समय है, अब उनकी बारी है.

यही कारण है कि लव जिहाद और गौ रक्षा जैसे मुद्दे बढ़ते ही जा रहे हैं. और यह कहना गलत नहीं होगा कि यह सब पैसे देख कर कराया जा रहा है. क्या आप जानते हैं कि रातोंरात वे बेरोजगार युवाओं से भरे ऐसे समूहों को कैसे बनाते हैं? वे उन्हें इकठ्ठा करते हैं, उनके सिर पर केसरिया दुपट्टा बांधते हैं, उन्हें कुछ पैसे देकर तैयार करते हैं और फिर उन्हें तलवारें दे देते हैं. फिर वे पुलिस थानों, जिलों और राज्य की सीमाओं पर चेकपोस्ट पर जाकर खड़े हो जाते हैं. जब कोई गायों के साथ चेकपोस्ट पार करता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कौन है, भले ही वह किसान हो, वे अपना झंडा लगाएंगे और पैसे वसूलेंगे और उसके बाद ही उन्हें जाने देंगे. पुलिस ने भी उनके साथ तालमेल बैठाना शुरू कर दिया है. पुलिस, प्रशासन, नौकरशाही इन सभी ने बीजेपी को पूरी तरह से अपना लिया है और इस प्रणाली का हिस्सा बन गए हैं. वे इस राजनीति का हिस्सा बन गए हैं और इसका पूरी तरह से प्रचार कर रहे हैं.

मामला गाय बचाने का नहीं है, मामला पैसा कमाने का है. राजनीति के वक्त भाषण मुगलों से भरा होगा. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री (अजय सिंह बिष्ट, जिन्हें आमतौर पर आदित्यनाथ कहा जाता है), जहां भी जाते हैं, 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बारे में बात करते हैं, वह मुगलों के बारे में बात करते हैं, वह लव जिहाद के बारे में बात करते हैं. इसके अलावा उनके पास बात करने के लिए कुछ भी नहीं है. मैं उन्हें चुनौती देता हूं कि आप इनके बिना किसी भी चीज पर चर्चा करके दिखाएं. उनका एजेंडा देश का विकास नहीं है. यह हिंदुत्व ही उनका एकमात्र स्तंभ है और यह खेदजनक है कि यह नैरेटिव आज देश पर हावी हो रही है.

सुनील कश्यप : उत्तर प्रदेश की बात करें तो अपराध के मामले पर आदित्यनाथ सरकार का प्रदर्शन कैसा रहा है क्योंकि हत्या, बलात्कार और डकैती की घटनाएं दिन पर दिन बढ़ती जा रही हैं?

जयंत सिंह चौधरी : बीजेपी के लोगों के संरक्षण में, उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में एक राजनीतिक माफिया विकसित हुआ है, जहां कभी अपराध या संगठित माफिया नहीं थे. मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में बात कर रहा हूं, जो उत्तर प्रदेश के अन्य हिस्सों से अलग था.

हमारे क्षेत्रों में, अगर किसी नेता के साथ बंदूक लेकर आदमी चलता था तो लोग उसे अच्छा नहीं मानते थे. लेकिन अब यहां भी आपराधिक तत्वों को राजनीतिक संरक्षण मिलता है और हर जगह दिखाई देता है, चाहे वह रेत खनन हो, अनुबंध कार्य हो, जिला कार्य हो, पंचायत कार्य हो, विधायक निधि कार्य हो या कुछ भी हो.

और फिर एनकाउंटर संस्कृति चल पड़ी है. पुलिस निहत्थे लोगों पर हमला करती है. सभी को हमेशा एक ही स्थान पर गोली मारी जाती है, एक ही कोण पर, सभी एफआईआर भी एक ही तरह की हैं. पुलिस की वर्दी दागी हो गई है. जब से उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने सत्ता संभाली है न्याय व्यवस्था पूरी तरह से कमजोर हो गई है. हाथरस को देखिए. मैं परिवार से मिलने गया था. एक तरफ गरीब परिवार के साथ घोर अन्याय और दूसरी तरफ सरकार की पूरी ताकत.

सुनील कश्यप : खासकर आदित्यनाथ पर तेजी से जाति को मजबूत करने का आरोप लगाया गया है. क्या उनकी सरकार नए सिरे से जातिवाद को बढ़ावा दे रही है? इस पर आपकी क्या राय है?

जयंत सिंह चौधरी : हम लोगों ने जिन्होंने इसे नहीं सहा है, हम जाति की कल्पना भी नहीं कर सकते. हम यह नहीं समझते कि सभी जाति कितनी व्यापक है. एक व्यक्ति उच्च शिक्षित होने के बाद भी अपनी जाति नहीं भूलता, और जाति धर्म परिवर्तन के बाद भी मौजूद है.

यह गल्प है कि मोदी जी विकास चाहते हैं या मोदी जी जाति को नहीं मानते हैं. वह हर जगह जाति का उपयोग कर रहे हैं, वह इसका पूरा उपयोग कर रहे हैं. जहां उन्हें विभाजित करना है, वह जाति का उपयोग करते हैं; जहां उन्हें एकजुट होना पड़ता है, वह हिंदू होने की बात करने लगते हैं. यह उनकी रणनीति का हिस्सा है. कहीं भी जाति की पकड़ कमजोर नहीं हुई है. विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार में मुख्यमंत्री की जाति आक्रामक हो जाती है. यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है. उन्हें लगता है कि आखिरकार सत्ता हमारे हाथ में आ गई है.

उनके खिलाफ लगे आरोपों में कुछ तो सच्चाई है और यह मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की जिम्मेदारी है कि वह उनसे निपटें. समाज एक जाति से नहीं चल सकता. जिसे हम 36 बिरादरी कहते हैं उससे समाज चलाता है. यदि समाज का एक हिस्सा भी वंचित है, तो इतिहास गवाह है कि यह सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन का कारण बनता है. सत्ता में रहने वाले सभी लोगों को सत्ता गंवानी पड़ी है.

सुनील कश्यप : आपकी पार्टी की स्थिति पहले से कमजोर हुई है. हाल के उप चुनावों में आरएलडी का प्रदर्शन भी निराशाजनक था. आपको क्या लगता है कि इसके क्या कारण हैं?

जयंत सिंह चौधरी : चुनौतियां हैं. हमारे पारंपरिक वोट आधार में सामाजिक बदलाव आया है. बीजेपी सिर्फ एक डर दिखा कर चुनाव जीतना चाहती है, केवल एक ही चीज है : हिंदू खतरे में है. तो एक तरफ लोग एक पहचान के संकट का सामना कर रहे हैं. आज जिन समूहों, संगठनों के साथ हमने गठबंधन किया है, हमने उनके साथ संबंध बनाए हैं, वे रिश्ते पर ही सवाल उठा रहे हैं. मेरा मानना ​​है कि यही वह समय है जब हमें मजबूत रहना होगा. हम अपना रास्ता या अपना रुख नहीं बदल सकते लेकिन हमें सार्वजनिक भावना के प्रति सम्मान के साथ ऐसा करना होगा. हम उन चीजों को करेंगे जो जनता की भावना को समझने के लिए किए जाने की जरूरत है. हमें लोगों के वास्तविक मुद्दों को समझने के लिए जमीनी स्तर के कार्यक्रमों में वापस जाने की आवश्यकता है.

जनता द्वारा (बीजेपी के लिए) इतने बड़े जनादेश के बावजूद कोई काम क्यों नहीं किया जा रहा है? कोई विकास नहीं है, वे अभी तक कोई प्रगति नहीं कर पाए हैं. ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? जब मोदी जी कहते हैं कि वे खुद एक गरीब परिवार से हैं तो किसानों को इतने सारे मुद्दों पर आंदोलन करने की क्या जरूरत है? जनता ने उन्हें इतना बहुमत क्यों दिया और उन्होंने इसका क्या किया है? हमें यह सब समझने की जरूरत है.

हम एक नया कार्यक्रम शुरू कर रहे हैं जिसका नाम है "मेरा गांव मेरा संगठन." इसे एक माइक्रो प्रोग्राम के रूप में तैयार किया गया है जिसमें मैं अन्य पार्टी नेताओं के साथ भाग लूंगा. हम बिना किसी भेदभाव के ग्रामीणों की बात सुनेंगे. मैं ग्रामीणों को सुनना चाहता हूं, मैं देखना चाहता हूं कि हमने कहां और क्यों ताकत खो दी है. हम लोकदल की राजनीति को जमीनी स्तर पर ले जाएंगे.

सुनील कश्यप : क्या 2022 के चुनावों के लिए समाजवादी पार्टी के साथ आपका गठबंधन जारी रहेगा? इस गठबंधन की भविष्य की योजना क्या है?

जयंत सिंह चौधरी : हमारा गठबंधन जारी रहेगा और 2022 में हम बीजेपी के खिलाफ एक मजबूत विकल्प खड़ा करने का इरादा रखते हैं. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव एक युवा नेता हैं, उनके पास प्रगतिशील विचार हैं. हमारा गठबंधन लव जिहाद और मुगलों से आगे बढ़ेगा, हम विकास और प्रगति के मुद्दों पर ध्यान देंगे.

सुनील कश्यप : क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आरएसएस, बीजेपी और उनके राजनीतिक हिंदुत्व ने आपको नुकसान पहुंचाया है?

जयंत सिंह चौधरी : उन्होंने बहुत मुश्किलें पैदा की हैं क्योंकि पिछले दस वर्षों में मीडिया के प्रभाव के कारण व्यक्तिवाद बढ़ा है. "मैं" की भावना हमारे समाज में विकसित हुई है और बीजेपी ने खुद को इस प्रणाली में बहुत अच्छी तरह से उलझाया हुआ है. अब जब मैं गांवों में जाता हूं तो देखता हूं कि बेरोजगार युवा हमेशा फोन पर रहते हैं. और उन तक फर्जी खबर बहुत तेजी से पहुंच जाती है. बीजेपी समय-समय पर इन फर्जी खबरों का इस्तेमाल करती रहती है.

कुछ समय पहले, मुख्यधारा के मीडिया ने पाकिस्तान पर यह फर्जी खबर चलाई कि हमने पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी और उनके कुछ इलाकों को नष्ट कर दिया. सेना ने तब स्पष्ट किया कि ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी. [19 नवंबर 2020 को कई समाचार चैनलों ने गलत तरीके से पीटीआई की एक रिपोर्ट को उद्धृत किया और गलत तरीके से दावा किया कि भारतीय सेना ने पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में हवाई हमले किए, जिसमें कई हताहत हुए और बुनियादी ढांचे को नष्ट कर दिया गया. बाद में सेना ने दावों का खंडन किया.]

सवाल यह है कि इस फर्जी खबर को पहले क्यों जारी किया गया था? क्योंकि वे दिखाना चाहते थे कि वे किसी भी स्तर की झूठी सूचना जारी कर सकते हैं और वे इसे जहां तक चाहें फैल सकते हैं. वे इस प्रकार की रणनीतियों में वास्तव में प्रभावी हैं.

लेकिन मेरा मानना ​​है कि एक झूठ को दूसरे झूठ से नहीं काटा जा सकता, केवल सत्य ही ऐसा कर सकता है. हमारा प्रयास होगा कि गांव के युवाओं को जमीनी स्तर पर उन्हें फर्जी खबरों से अवगत कराया जाए. हमें उन्हें बताना होगा कि पाकिस्तान पर नकली वीडियो देखकर यहां दंगा न करें, हमारा जो भाईचारा है, उसे बनाए रखो. हमें अपने कार्यकर्ताओं को इस रचनात्मक अभ्यास में प्रशिक्षित करना होगा और उन्हें जमीनी स्तर पर ले जाना होगा.

सुनील कश्यप : आपने कृषि बिल और कॉर्पोरेट क्षेत्र के बीच की कड़ी के बारे में बात की. वही मुख्य धारा के मीडिया के अधिकांश कारपोरेट भी एक खास तरह का नैरेटिव बना रहे हैं. क्या आपको लगता है कि यह मीडिया आरएसएस की विचारधारा को सामने लाता है? आप इसे राजनीतिक रूप से कैसे देखते हैं?

जयंत सिंह चौधरी : मीडिया एक विशेष तरीके से कार्य करता था. संपादकीय बोर्ड की भूमिका यह तय करने की होती थी कि जिम्मेदार रिपोर्टिंग, पत्रकारिता कैसे हो. यह सब आंतरिक रूप से किया गया था, मीडिया सरकार या उद्योग से हस्तक्षेप नहीं चाहता था क्योंकि एक स्वतंत्र मीडिया एक लोकतांत्रिक समाज के मुख्य स्तंभों में से एक है और इसकी आवश्यकता नागरिकों के हित में है.

अब समाचार पत्र सिर्फ सदस्यता शुल्क पर जीवित नहीं रह सकते हैं. अंतत: कुछ कारपोरेट घरानों ने कुछ चैनल खरीदे. उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि उनके दर्शकों के पास भुगतान करने की क्षमता है या नहीं क्योंकि उनका पैसा विज्ञापनों से आ रहा है. कॉर्पोरेट घरानों का अपना एजेंडा होता है.

मुझे नहीं पता कि यह कितना सच है - आज कितने ऐसे संपादक हैं, जिनमे अपने मालिकों के पास खड़े होने और यह कहने की हिम्मत है कि "हमारे काम में हस्तक्षेप न करें." मीडिया में सरकार का हस्तक्षेप निश्चित रूप से काफी बढ़ गया है. यह संकट है कि सरकार सभी एजेंडों को निर्धारित करना चाहती है.

मीडिया को भी इस बारे में सोचना होगा. यह उनकी विश्वसनीयता का सवाल है. जब तक जनता देख रही है, आप नाच रहे हैं लेकिन जिस दिन तकनीक बदल जाएगी कोई भी आपकी तरफ नहीं देखेगा. कई मीडिया के लोग सब्सक्रिप्शन मॉडल ला रहे हैं. कारवां की इसमें भूमिका रही है. जब यह परिवर्तन होता है, तो इन मीडिया हाउसों को दुकान बंद करनी होगी. बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि जनता उन पर कितना भरोसा करती है. व्यक्तिगत रूप से मैं कोई भी समाचार चैनल नहीं देखता और न ही अपने परिवार को देखने देता हूं. आज समाचार तथ्यों के बारे में कम और किसी और की राय के बारे में ज्यादा बताता है. यह मनोरंजन के बारे में ज्यादा बताता है और कभी-कभी आपको लगता है जैसे वे लोगों को लड़ाने-मारने के लिए उसका रहे हैं. इससे तो फिल्म देखना बेहतर है.

पूरी इंटरव्यू पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


जयंत चौधरी, https://hindi.caravanmagazine.in/interview/jayant-chaudhary-rld-farmers-protests-bjp-rss-uttar-pradesh-narendra-modi-media-hindi


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