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साक्षात्कार | प्रतिबद्ध पत्रकार बड़ा बदलाव ला सकते हैं- ज्यां द्रेज

प्रतिबद्ध पत्रकार बड़ा बदलाव ला सकते हैं- ज्यां द्रेज

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published Published on Nov 24, 2010   modified Modified on Nov 24, 2010
1. झारखंड की स्थापना का एक दशक पूरा हुआ। झारखंड के बारे में आपका मूल्यांकन क्या कहता है ?

 झारखंड की जनता ने अलग राज्य बनाने के लिए जब लडाई ठानी तो आस यह लगी थी कि राज्य बना तो उन्हें अपनी जिन्दगी संवारने के बेहतर मौके मिलेंगे।झारखंड की जनता के लिए यह एक तरह से मुक्ति-यज्ञ था।लेकिन हुआ इसके उलट, झारखंड की स्थापना से ताकत उन्हीं की बढ़ी जिनसे जनता पीड़ित थी। अलग राज्य की स्थापना से भ्रष्ट राजनेता, उद्योगपति और ठेकेदारों की आपसी पकड़ और मजबूत हुई। हालात यहां तक आ पहुंचे कि जो झारखंड की स्थापना की लड़ाई के मोर्चे के अगुआ थे वे भी जनता का हक मारने वालों की पांत में जा खड़े हुए। मुक्ति-आंदोलनों का इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है।

2. झारखंड के विकास की राह में मुख्य बाधाएं कौन सी हैं?

मुख्य बाधा राजनीतिक है- इस राज्य के संसाधनों पर एक आपराधिक गठजोड़ का कब्जा है और इसमें जनता की एक नहीं सुनी जाती। सच कहें तो झारखंड में लोकतंत्र है ही नहीं।इसी कारण, बात चाहे शिक्षा की हो या फिर सेहत, पोषण या फिर शोषण-उत्पीड़न से सुरक्षा की- लोगों की बुनियादी जरुरतें यहां राजनीतिक प्राथमिकताओं में शामिल नहीं हैं।

माफिया राज का एक और नतीजा यह हुआ है कि राज्य में शासन(गवर्नेंस) का भट्ठा बैठ गया है। झारखंड में शासन का एक नायाब तरीका अमल में आया है। आप चाहें तो इसे हवाई शासन कह सकते हैं। मतलब यह कि जो कुछ कागज पर नजर आता है, जमीनी हकीकत का उससे कुछ लेना-देना ही नहीं है। प्रशासन की मशीनरी काम नहीं करती इसलिए अधिकारी काम का दिखावा करते हैं। मिसाल के लिए, आदेश पारित किए जाते हैं लेकिन यह भी पक्का कर लिया जाता है कि इनका पालन ना हो। केंद्र सरकार को फर्जी रिपोर्ट भेजी जाती है और बेमायने मतलब के आंकड़े परोसे जाते हैं। नरेगा का क्रियान्वयन इस बात की सबसे बड़ी मिसाल हैं- सरकारी तस्वीर जो कह रही है जमीनी सच्चाई उससे बिल्कुल उलट है।

झारखंड में सार्वजनिक सेवाएं देश के बाकी राज्यों की तुलना में खस्ताहाल हैं। चंद हफ्ते पहले, एक शनिवार की दोपहर मैं लातेहर के जिला अस्पताल पहुंचा। वहां एक भी स्टॉफ मौजूद नहीं था। मरीज बिना दवा-दारु के राम भरोसे पड़े थे। अजब बात यह कि लोग-बाग चुपचाप इसे सहते हैं। लोग अपनी लाचारी के बारे बहुत कुछ कहते हैं, और ऐसा भी नहीं कि उन्हें विरोध में उठ खड़े होने का मन नहीं करता लेकिन उन्हें पता है कि जबान से विरोध की आवाज निकली नहीं कि किसी कोने से सताने वाले आ खड़े होंगे।

3. क्या आपको लगता है कि आर्थिक उदारीकरण से झारखंड की दुर्दशा एक हद तक दूर हो सकेगी?

जब हम कहते हैं कि आर्थिक उदारीकरण से झारखंड की दुर्दशा दूर होगी तो इसके पीछे यह विश्वास काम कर रहा होता है कि झारखंड में बाजार की ताकतों की राह सरकारी नियंत्रण और हस्तक्षेप के कारण अवरुद्ध है। लेकिन, सच्चाई यह है कि सरकारी नियंत्रण नाम-मात्र है। यहां भी हमें हवाई बात और जमीनी हकीकत के बीच अन्तर करके चलना चाहिए। कागजों को देखें तो लगेगा- बात ठीक है, बाजार की बढ़ती पर बहुत से सरकारी अंकुश हैं लेकिन ये अंकुश सिर्फ कहने भर को हैं। सच्चाई यह है कि वास्तविक नियमन के नाम पर कुछ है ही नहीं- कोई ऐसा नियमन नहीं है जिसे कायदे का यानी रचनात्मक कहा जा सके।

जहां बाजार की ताकतें अपनी वैधानिक हदों को लांघ जाती हैं वहां अर्थव्यवस्था में कुछ भी बिना किसी बाधा के खरीदा-बेचा जा सकता है और झारखंड इसका एक चमकता हुआ उदाहरण है। झारखंड की अर्थव्यवस्था के बारे में मान्यता है कि यह नियोजन की राह पर चलती है और अर्थव्यवस्था में सरकारी क्षेत्र का दायरा बहुत बड़ा है लेकिन मामला ऐसा है नहीं। बस कीमत चुकाने को तैयार रहिए, यहां कुछ भी मिल जाएगा - लाइसेंस खरीदा जा सकता है, डिग्री खरीदी जा सकती है, नौकरशाह खरीदे जा सकते हैं, पुलिस को खरीदा जा सकता है और एनजीओ को भी। नियम तो हैं लेकिन अगर आप कीमत देने को तैयार हैं तो नियम ताक पर रखे जा सकते हैं। ठीक इसी तरह झारखंड में सार्वजिनक सेवाएं एक तरह से निजी हाथों में चली गई हैं। अब इसे ज्यादातर वही चला रहे हैं जिन्हें बिचौलिया या फिर ठेकेदार कहा जाता है।

इस सबका नतीजा एक नरक के रुप में सामने आया है- पर्यावरण का नाश हो रहा है, लोकतंत्र की चूलें खिसक रही हैं, शोषण का बोलबाला है। सार्वजनिक सेवाएं ठप्प होकर रह गई हैं। सार्वजनिक संसाधन की जब निजी लूट मचती है तो कुछ होता है वह सब झारखंड में हो रहा है।ऐसी सूरत में उदारीकरण को एक समाधान के रुप में देखना मनमोदक खाना है। इसके उलट जरुरत यह आन पड़ी है कि यहां सरकार अर्थव्यवस्था में रचनात्मक भूमिका निभाये।

 
4. क्या झारखंड के ग्रामीण अंचलों में नरेगा का असर दिखता है?

बेशक, असर तो पड़ा है लेकिन सवाल यह है कि जितना असर पड़ना चाहिए था क्या नरेगा का उतना असर पड़ा है- इसका उत्तर है- नहीं।.

झारखंड में नरेगा के लिए बड़ी संभावनाएं हैं लेकिन इन संभावनाओं की जमीन तोड़ी नहीं गई है। मुझे विस्मय होता है कि क्या नरेगा के लिए झारखंड से भी ज्यादा संभावना किसी राज्य में मौजूद है।झारखंड की भौगोलिक संरचना नरेगा जैसी परियोजनाओं के लिए एकदम फिट है। यहां उत्पादक कामों मसलन तालाब, कुआं, चेकडैम, सड़क , वृक्षारोपण, जमीन की भराई आदि  के लिए भरपूर संभावनाएं हैं। झारखंड के ग्रामीण लोग तकनीकी कौशल में दक्ष हैं। यहां के आदिवासी इलाके में मिलजुल कर काम करने की पुरानी परिपाटी रही है। इस लिहाज से झारखंड नरेगा के लिए स्वर्ग ही कहा जाएगा। फिर यह सारा काम केंद्र सरकार के पैसों से किया जाना है। लेकिन झारखंड की सरकार ने नरेगा को सफल बनाने की इतनी कम कोशिशे की हैं कि उससे झारखंड के मेहनतकश तबके के लिए उसकी हिकारत ही जाहिर होती है।

यह भी एक तरह से लोकतंत्र के बुनियादी तौर पर असफल होने की बात है।यदि राजनेता लोगों के लिए जवाबदेह है तो उन्हें नरेगा को सफल बनाने की कोशिश करनी चाहिए थी। लेकिन राजनेता बिचौलिए और ठेकेदारों के साथ मिलीभगत में नरेगा का पैसा डकार रहे हैं। इसलिए, लूट जारी है।

5. नरेगा के सामने मुख्य चुनौतियां कौन सी हैं?

सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि सरकारी अमले नरेगा के मजदूरों के लिए जवाबदेह हों। नरेगा के पीछे बुनियादी विचार लोगों के अधिकार को मजबूत बनाने का है- इस बात को सुनिश्चित करने का कि लोग अपना अधिकार मानकर रोजगार मांग सकें और अगर उन्हें रोजगार नहीं मिलता तो इसके दोषी को सजा मिले। लेकिन, असल में ऐसा हो नहीं रहा। नरेगा कानून में जवाबदेही तय करने के जो भी प्रावधान हैं, सबकी अनदेखी हो रही है।मिसाल के लिए कानून है कि नरेगा के अन्तर्गत रोजगार नहीं मिलता जो रोजगार मांगने वाले को बेरोजगारी भत्ता दिया जाये, मजदूरी के भुगतान में देरी होती है तो इसके लिए भी मुआवजे का प्रावधान है और कोई अधिकारी अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल रहता है तो उसे दंड देने की व्यवस्था है लेकिन इन पर अमल नहीं होता। कभी-कभार ही, जब मजदूर लोग संगठित होकर शिकायत में आवाज उठाते हैं तो जवाबदेही से जुड़े इन प्रावधानों का पालन होता है।   

इसके अतिरिक्त नरेगा के सामने और भी कई चुनौतियां हैं, मसलन- भ्रष्टाचार का खात्मा, मजदूरी का समय पर भुगतान, काम की गुणवत्ता बढ़ाना आदि। लेकिन इन सारी समस्याओं की जड़ में है व्यवस्था के भीतर जवाबदेही की कमी। नरेगा का विरोधाभास भी यही है, यह मेहनतकश लोगों के पक्ष में बनाया गया कानून है लेकिन इस कानून पर अमल करना उस व्यवस्था के हाथ में है जो मेहनतकश जनता की विरोधी है।

6.  कई राज्यों में नरेगा कानून के क्रियान्वयन में बहुत सारी समस्याएं हैं। इस तथ्य को देखते हुए क्या यह कहा जा सकता है कि नरेगा से कुपोषण जैसी समस्या से निपटने में मदद मिलेगी?

नरेगा से निश्चित ही मदद मिल सकती है और मिली भी है। हाल ही में उत्तर भारत के दस जिलों में १००० नरेगा- मजदूरों से मिलकर एक सर्वेक्षण किया गया। इस सर्वेक्षण में शामिल तकरीबन ६९ फीसद मजदूरों का मानना था कि नरेगा ने उन्हें भुखमरी से उबारा है। बहरहाल, अगर नरेगा का कामकाज ठीक तरीके से हो(जो कि नहीं हो रहा) तो भी इससे कुपोषण के हालात से उबरने में एक सीमा तक ही मदद मिलेगी।इसके कई कारण हैं। कुछ लोग बीमारी, बुढ़ापा, विकलांगता आदि वजहों से नरेगा के कामों में भागीदारी नहीं कर पाते। जिन्हें नरेगा का काम हासिल होता है, वे कुल १०० दिन(अधिकतम) काम करें तो भी साल भर में उन्हें जो रुपये मिलेंगे वह पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। फिर, एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि कुपोषण सिर्फ आमदनी के अभाव भर का मामला नहीं है। बच्चों के पोषण,  के मामले में यह बात खास तौर पर लागू होती है। बच्चों के पोषण से ही सब के सेहतमंद पोषण का आधार तैयार होता है।इन सारी वजहों से हम कुपोषण के खात्मे के लिए सिर्फ नरेगा पर निर्भर नहीं रह सकते।

7. गैर-बराबरी और विद्रोह में बड़ा नजदीकी रिश्ता है। क्या आपको लगता है, झारखंड की नक्सल समस्या इस बात से जुड़ी हुई है?

मुझे नहीं लगता कि झारखंड में नक्सली गतिविधियों का प्रमुख कारण गैर-बराबरी है। भारत में गैर-बराबरी तो हर जगह है लेकिन हर जगह नक्सली गतिविधियां तो नहीं हैं। नक्सली गतिविधियों का एक संभावित कारण है- परले दर्जे का शोषण और सरकारी उत्पीड़न। इस मामले में झारखंड देश के कई राज्यों से आगे है। जब लोगों का फॉरेस्ट गार्ड, पुलिस के अधिकारी और यहां तक कि बीडीओ भी लगातार शोषण करे और नक्सली उनकी सुरक्षा के लिए आ खड़े हों तो फिर आप गरीब लोगों से और किस चीज की अपेक्षा करते हैं?

 8. कुपोषण और भुखमरी मुद्दों से जुड़ी क्षेत्रीय मीडिया की रिपोर्टिंग के बारे में आप क्या कहेंगे?

भुखमरी और कुपोषण के बारे में रिपोर्टिंग चाहे क्षेत्रीय स्तर की हो या फिर राष्ट्रीय स्तर की- भोजन के अधिकार को साकार करने में इसकी बहुत बड़ी भूमिका है। चाहे राष्ट्रीय स्तर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की हाई-प्रोफाईल कवरेज हो या फिर भुखमरी के बारे में स्थानीय स्तर की रिपोर्टिंग या फिर इससे जुड़ी कोई और रिपोर्टिंग , भोजन का अधिकार अभियान को सफल बनाने में मीडिया के समर्थन से बड़ी मदद मिली।   

बहरहाल, अभी और भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। छोटे शहरों के पत्रकार अक्सर स्थानीय स्तर के अभिजन होते हैं या फिर वहां के अभिजन का हिस्सा होना चाहते हैं। इसलिए, शायद ही कभी वे सत्ता-संरचना से टकराने या वंचितों का पक्ष लेने की कोशिश करते हैं। प्रतिबद्ध पत्रकार बड़ा बदलाव ला सकते

(15 नवंबर 2010 को प्रभात खबर में प्रकाशित)


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