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साक्षात्कार | प्लेटों के आने की आवाज तो आ रही है, खाना नहीं आ रहा : अरुण शौरी
प्लेटों के आने की आवाज तो आ रही है, खाना नहीं आ रहा : अरुण शौरी

प्लेटों के आने की आवाज तो आ रही है, खाना नहीं आ रहा : अरुण शौरी

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published Published on Dec 15, 2014   modified Modified on Dec 15, 2014
अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे प्रख्यात पत्रकार अरुण शौरी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काम काज पर सवाल उठाया है. ‘इंडियन एक्सप्रेस' के साथ बातचीत में उन्होंने बड़ी बेबाकी से प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली, योजना आयोग, संस्कृत भाषा के मुद्दे और केंद्र में राजनीतिक नियुक्तियों पर कटाक्ष टिप्पणियां की हैं. उनकी इस टिप्पणी से नरेंद्र मोदी सरकार के छह महीने के कार्यकाल में कुछ खास नहीं होने के संकेत साफ झलक रहे हैं. पेश हैं साक्षात्कार के कुछ मुख्‍य अंश ...

पी वैद्यनाथन अय्यर : नयी सरकार, और प्रधानमंत्री के काम करने की शैली के बारे में जो हर तरफ चर्चा है, उस पर आप क्या सोचते हैं?

मैं सख्त अल्फाज का इस्तेमाल नहीं करना चाहता हूं. लेकिन इस बात पर एकराय दिखती है कि जब बहुत ज्यादा कहा जाता है, तो उससे कम काम होता है. मेरा यकीन है कि गंभीर प्रयास किये जा रहे हैं और इसके अच्छे नतीजे आ सकते हैं. लेकिन जैसा कि अकबर इलाहाबादी ने कहा था : ‘प्लेटों के आने की आवाज तो आ रही है, खाना नहीं आ रहा है.'

हरीश दामोदरन : लेकिन खाना आ क्यों नहीं रहा है?

हर सरकार की तरह इस सरकार का भी ध्यान नयी योजनाओं की घोषणाओं पर ही केंद्रित है. हर योजना सरकार/राज्य के हाथों में एक और काम बढ़ा देती है. पदों पर बैठे लोग यह सोचते हैं कि वे जितनी ज्यादा योजनाओं की घोषणा करेंगे, उतने ज्यादा ही उनके नंबर बढ़ेंगे. अब भी, तमाम बातें करने के बावजूद हम राज्य- उसके कामकाज, कर्मचारियों, संस्थानों, नियमों आदि के महत्व को उचित स्थान नहीं देते. भारत में किसी भी सरकार द्वारा अपने संस्थानों के लिए जिस तरह के कर्मियों का चयन किया जाता है, क्या वह राज्य के महत्वपूर्ण होने को प्रदर्शित करता है? हम हमेशा सुधारों को केवल एक स्कीम तक देखते हैं- जीएसटी आयेगा या नहीं, बीमा बिल पास होगा या नहीं. लेकिन सुधारों का सार तत्व रहा है, जीवन में राज्य की भूमिका को कम करना. हम इसका उल्टा करना जारी रखे हुए हैं. यही कारण है कि चीजें हो नहीं पा रही हैं. तब इसके लिए तर्क गढ़े जाते हैं. एक लेख में मोदी की कैबिनेट पर टिप्पणी की गयी है. इसमें ‘परेटो रूल' का हवाला दिया गया है, जो कहता है कि संस्थान और सरकारें केवल 20 फीसद लोग चलाते हैं. आपको सिर्फ वो 20 फीसदी लोग चाहिए जो अच्छे हैं. इसलिए, हम अच्छे लोगों को सिर्फ दो-तीन मंत्रलयों तक सीमित रखने की सोचने लगते हैं.

आज की तारीख में भी, मुख्य उपकरण नौकरशाही ही है. लेकिन नौकरशाही वह नहीं रह गयी है जो 30-40 वर्ष पहले हुआ करती था. आपके पास एलके झा या बीके नेहरू जैसे नौकरशाह नहीं हैं. हाल ही में मेरी मुलाकात एक प्रशासनिक अधिकारी से हुई थी. उन्होंने कहा : ‘‘मैं 15-20 महीनों में सेवानिवृत्त हो जाऊंगा. सेवानिवृत्ति के दस साल बाद मैं किसी सीबीआइ इंस्पेक्टर की कृपा पर छोड़ दिया जाऊंगा. इसलिए, मैं क्यों कोई निर्णय लूं? मंत्री को यह करने दें.'' तीसरा, आप सिविल सेवाओं पर निर्भर रह सकते हैं, लेकिन उसमें विशेषज्ञों को नियुक्त करना होगा. लेकिन यह तभी प्रभावी होगा जब आप उन्हें सजावटी सलाहकार पदों पर न रखें, बल्कि निर्णय करनेवाले पद दें.

दिलीप बॉब : मतलब कि आप मोदी को बदलाव का वाहक नहीं मानते?

वह निजी तौर पर बदलाव के वाहक हो सकते हैं. लेकिन पतवार कितनी बड़ी है, यह कोई मायने नहीं रखता है, आपको बदलाव लाना है, एक महासागर को फिर से आकार देना है. यह सिर्फ सुधारों को सरल बनाने की बात नहीं है. सुधारों में गहराई और व्यापकता भी जबरदस्त होनी चाहिए. मसलन, सीबीआइ में सुधार के लिए निदेशक को बदलने भर से बात बनने वाली नहीं है, बल्कि पहली सीढ़ी पर काम करनेवाले लोगों- इंस्पेक्टरों, जांच अधिकारियों के प्रशिक्षण से यह होगा. यह काम कब तक होगा? निचली अदालतों के साथ भी ऐसा ही है. पिछले साल नवंबर में, एक सिपाही मेरी पत्नी के नाम से गैर-जमानती वारंट लेकर हमारे घर आया. इसमें लिखा था कि यदि अगले दिन दस बजे तक फरीदाबाद कोर्ट में हाजिर नहीं हुईं, तो उन्हें पांच साल की सजा होगी. मैंने हैरत से पूछा कि ऐसा क्यों. उसने कहा कि उन्होंने पांच बार सम्मन को ठुकराया है. लेकिन मैंने कहा कि हमें कोई सम्मन नहीं मिला है. उसने कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया. कोर्ट में महिला मजिस्ट्रेट से मैंने पूछा कि मेरी पत्नी के नाम से यह गिरफ्तारी का वारंट क्यों जारी किया गया है. उसने कहा कि उन्होंने सम्मन लेने से मना कर दिया. मैंने कहा कि हमें तो ऐसा कोई सम्मन नहीं प्राप्त हुआ. उसने कहा कि कभी-कभी हमारे लोग सम्मन ही नहीं भेजते और यह लिख देते हैं कि इसे इंकार कर दिया गया है. उसने कहा कि हमें एक अवैध फार्म हाउस बनाने से संबंधित सम्मन भेजा गया है और यह पूछा गया है कि क्या अरावली की पहाड़ियों में हमारा कोई प्लाट है. मैंने कहा कि यह प्लॉट कुछ ही महीनों पहले हमारे नाम से रजिस्ट्री किया गया था. हमें पुणो के पास एक मकान बनाने के लिए पैसों की जरूरत थी, इसलिए हमने उसे बेच दिया. हमने वहां एक ईंट भी नहीं रखी. सरकारी वकील ने भी कहा, ‘‘हां, यह इनका प्लाट नहीं है और इन्होंने वहां कुछ नहीं बनाया है.'' फिर भी जज ने कहा, ‘‘लेकिन अब तो प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. मैं आपकी पत्नी को अगली सुनवाई परखुद हाजिर होने की शर्त पर जमानत दे सकती हूं.'' तो इस तरह मेरी पत्नी जमानत पर हैं, उस सम्मन के लिए जो हमें दिया ही नहीं गया, उस मकान के निर्माण के लिए जो हमने बनाया ही नहीं, और उस जमीन पर जो हमारी है ही नहीं. महिला मजिस्ट्रेट का तबादला हो चुका है, उनके स्थान पर एक नया व्यक्ति आया है. वह कहते हैं : ‘‘मैं जानता हूं कि आप लोगों ने कुछ नहीं किया है, लेकिन यदि मैं आपको छोड़ दूं तो लोग कहेंगे कि राजनीतिक दबाव से ऐसा हुआ या इसके लिए आपने मुङो पैसे दिये. इसलिए सुधार में गहनता होना चाहिए.'' इसलिए सुधार कहीं गहरे तक होना चाहिए. जब लोग पदभार संभालते हैं, तो वे भूल जाते हैं कि सिस्टम को कितनी गहराई से बदलना है. वे आत्मसंतुष्टि के अभेद्य कुहासे से घिर जाते हैं. और मीडिया इस कुहासे को और घना बना देता है. हर जगह फोटोग्राफर घेरे रहते हैं. उद्योगपति कहते हैं, आप हमारे लिए ‘ईश्वर की ओर से तोहफा' हैं. मुङो यह बताया गया है कि सचिवों ने इस तरह से बात करनी शुरू कर दी है. वे सोचते हैं कि बदलाव पहले ही आ चुका है. हमारा काम उन्हें जगाये रखना है.

अमिताभ सिन्हा : सरकार ने स्वच्छ भारत, गंगा की सफाई या संस्कृत भाषा के पुनरुत्थान जैसे हल्ले-गुल्ले वाले अभियानों को चुना है, आपकी राय में सरकार की क्या प्राथमिकता होनी चाहिए?

स्वच्छता एक बेहतरीन विचार है. यह सार्वजनिक स्थलों की सफाई में समाज और राज्य दोनों को शामिल करता है. यदि राज्य एक आंदोलन खड़ा करने में कामयाब रहता है, तो यह बहुत ही अच्छा होगा. संस्कृत को लेकर भी काफी कुछ वैसा ही हो रहा है, जैसा कि दिल्ली विश्वविद्यालय में तीन साल बनाम चार साल के पाठ्यक्रम को लेकर हुआ था. उनकी क्या गलती है जो जर्मन पढ़ रहे हैं? यदि आप बहुत उत्सुक हैं तो संस्कृत को वैकल्पिक विषय के रूप में लायें, फिर इसे पढ़ने-सीखने की क्षमता को बढ़ाये.. कई सारे यूट्यूब वीडियो, सीडी आदि इसका माध्यम हो सकते हैं. तीन-चार सालों में यह सब लायें. तब यह सब बदलाव बिना तकलीफ के हो जायेगा.

राकेश सिन्हा : योजना आयोग को खत्म किये जाने के बारे में आप क्या सोचते हैं?

डॉ वाई वी रेड्डी यह हमेशा कहते थे, जब यह बड़ा बौद्धिक संसाधन नहीं है, तब भी योजना आयोग को केंद्र और राज्य के बीच रेफरी की तरह सम्मान मिलता है. लेकिन मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह आहलूवालिया के बीच की कथित नजदीकी की वजह से योजना आयोग केंद्र के एक उपकरण के रूप दिखने लगा. इसलिए इसकी विश्वसनीयता खो गयी.

योजना आयोग ने मुझसे सुधार के विषय में एक ‘पेपर' लिखने को कहा था. मैंने कई अधिकारियों से आयोग की विशेषताओं के संबंध में साक्षात्कार लिया. किसी ने इसे ‘पार्किग लॉट' बताया, तो किसी ने इसे‘ गौशाला' कहा. मैंने एक अधिकारी से कहा कि उनके सहकर्मी आयोग को गौशाला कहते हैं तो उनका जवाब था- ‘‘गौशाला में वो गायें रहती हैं जो दूध देती हैं. यह जगह (आयोग) तो बिसुकी गायों के लिए है.'' इसलिए, अगर आप ऐसे कर्मियों को नियुक्त करते हैं तो संस्थान की विश्वसनीयता खो जाती है. बेहतरीन कर्मियों को रख कर आप आयोग को बेहतर बना सकते हैं.

इस विषय में मोदी जी की जो सोच है, उसके बारे में मेरी समझ है कि इसका निर्माण पिछले दस सालों तक मुख्यमंत्री रहने के दौरान आयोग से नाराजगी की वजह से हुआ है.

पी वैद्यनाथन अय्यर : क्या आप वर्तमान सरकार को मोदी के चुनाव अभियान के विस्तार के रूप में देखते हैं- एक आदमी सबसे शीर्ष पर और कैबिनेट बहुत विविधतापूर्ण नहीं है? या दरवाजे तक शासन को पहुंचा पाने में?

भारत विविधता से भरा, बहुत बड़ा देश है. मैं एक मशहूर व्यक्ति के शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हूं जिसका नाम मैं आपको नहीं बता सकता- ‘‘यह नगर निगम नहीं है, यह भारत की संघीय सरकार है. यह छोटी संख्या द्वारा नहीं चलाया जा सकता है.''

राजकमल झा : मोदी जी के कामों में जो सबसे अधिक दिखता है वह कूटनीतिक मोरचे पर है - जैसे चीन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान की उनकी यात्र. नयी सरकार के तहत भारत के अंतराष्ट्रीय संबंधों को आप कैसे देखते हैं?

यकीनन मोदी एक अलग पैमाने पर सोचते हैं. मुङो उनका एक वाक्य याद आता है : ‘‘अरे, ये ठीक नहीं है, कुछ धमाकेदार आइडिया दो.' इसे आप विदेश नीति में देख सकते हैं : एक तो पड़ोसियों पर जोर है, और दूसरा, चीन पर नजर है. मैं इसका समर्थन करता हूं, लेकिन इसे थोड़ा खामोशी के साथ किया जाना चाहिए. यदि आप इसे चीन के नजरिये से देखते हैं, तो ये सब उकसाने वाले काम हैं. यदि आप उन्हें उकसाना चाहते हैं तो आपको इसके पलट-वार के लिए तैयार रहना चाहिए. जापान में शिन्जो अबे चीन के विरुद्ध कड़ी बयानबाजी करते हैं. वियतनाम चीन के साथ बिना खून-खराबे के टकराव में मुब्तला है. मैं सभी के साथ गंठबंधन और खुफिया आदान-प्रदान का समर्थन करता हूं, लेकिन यह सब चीन को दिखा कर न करें. चीन ने क्या किया है? बिना किसी ताम-झाम के, नेपाल के साथ वहां के विकास के लिए एमओयू पर दस्तखत किया है. उन लोगों ने पाकिस्तान में आधारभूत संरचना के विकास के लिए 65 अरब डॉलर की घोषणा की है. हम अपने अधिग्रहणों और कार्यादेशों के बारे में पूरी दुनिया में ढोल पीट रहे हैं. मुङो डर है कि हम लोग जिस तरह दिखा-दिखा कर यह सब कर रहे हैं, वो चीन को भड़का सकता है.

सुरभि : इस सरकार में कोई योजना आयोग नहीं या प्रधानमंत्री की कोई आर्थिक सलाहकार परिषद नहीं है. आलोचकों का कहना है कि सरकार में एक बौद्धिक अभाव है.

तीन प्रधानमंत्रियों ने विचारों को विचारों जैसा महत्व दिया : पंडित जी (जवाहरलाल नेहरू), नरसिम्ह राव और अटल बिहारी वाजपेयी. बाकी लोग व्यावहारिक लोग लगे. हो सकता है कि इसी की भारत को जरूरत हो, लेकिन विचार भी आवश्यक हैं.

राजगोपाल सिंह : केंद्र में राजनीतिक नियुक्तियों के लिए उम्र सीमा के बारे में आपकी क्या राय है?

मैं 72 या 73 के पार का हो चुका हूं. मैं जब कम उम्र का था, तब भी मुङो यह मापदंड गलत लगता था. संजय और राजीव गांधी युवा थे. उन्होंने क्या किया? भारत के दो सबसे बड़े सुधारक- नरसिम्ह राव और वाजपेयी, उम्रदराज थे. लोगों के योगदान करने की क्षमता को देखें.

हरीश दामोदरन : पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) सचिवों से ही बातचीत करता है, और इसमें मंत्री कहीं नहीं होते. क्या यह लंबे समय तक चलने वाला है कि मंत्री बिना किसी अधिकार के हों और नौकरशाहों को सभी शक्तियां प्राप्त हों?

पहली बात सही हो सकती है, लेकिन दूसरी सही नहीं है. मैंने सरकार के गठन से पहले मोदी जी से इस नजरिये के बारे में बातचीत की थी. हमारी चुनाव प्रक्रिया जिस गुणवत्ता के व्यक्तियों को सामने लेकर आती है, उसे देखते हुए उन्हें अपने सचिवों से सीधा संपर्क सुनिश्चित करना होगा, जो आम तौर पर मंत्रियों से बेहतर होते हैं. लेकिन क्या सचिव जानते हैं कि वे कितना निर्णय ले सकते हैं? मुङो नहीं पता. क्या मंत्री जानते हैं कि वे कहां तक निर्णय ले सकते हैं? मैं नहीं जानता. यह सीमा क्या है? क्या वे कोल इंडिया से लेकर एयर इंडिया, बैंकों के निदेशकों की नियुक्ति अपने से कर सकते हैं. वाजपेयी के नेतृत्व में, आपको उत्तरदायित्व दे दिया जाता था और आप कुछ भी कर सकते थे.

प्रवीण स्वामी : इस सरकार ने बहुत भव्य योजनाओं की घोषणा की है, लेकिन उनके क्रियान्वयन के बारे में कोई ब्योरा नहीं दिया गया है. क्या आप यह सोचते हैं कि दूरदर्शिता में कमी है या आप यह मानते हैं कि सरकार से नजदीकी संबंध रखने वाले लोग कह रहे हैं कि जबरदस्त काम हो रहा है?

प्रधानमंत्री केवल एक दिशा दे सकते हैं, वह सांकेतिक रूप से कुछ काम कर सकते हैं, बाकी दूसरों को संभालना पड़ता है. लेकिन करना क्या है, इस बात को लेकर यदि दूसरे अनिश्चित हों, तो ब्योरों का कोई फायदा नहीं होता है. (आप जो कह रहे हैं) यह इसी का एक अक्स हो सकता है. ऐसे अभियान सड़क के किनारे शौचालय बनाने तक पहुंचने चाहिए थे. लेकिन शायद परिवहन मंत्रलय यह नहीं जानता, इसलिए वे इसके ब्योरे पर काम नहीं कर रहे हैं. सौ स्मार्ट शहरों की बात कही गयी है, अब तक हमें स्मार्टनेस का मूल भाव बता दिया जाना चाहिए था. स्वच्छ भारत के मामले में, हम लोगों को यह नहीं देखना या पूछना चाहिए कि मोदी कामयाब होंगे या नाकामयाब. अगर ऐसा है तो यह सिर्फ मोदी का अभियान हो जाता है.

अभिषेक अंगद : आपकी नजर में मुसलमानों से जुड़े मामलों के साथ सरकार किस तरह से पेश आ रही है?

मैं मोदी जी के उस आम रुख से सहमत हूं, जिसमें सभी को सुविधाएं मुहैया करायी जानी हैं, ना कि धर्म या जाति के आधार पर. जब भी हम आर्थिक मापदंड को छोड़ किसी विशेष कसौटी के आधार पर लाभ पहुंचाते हैं, तब राजनीति का खेल होने लगता है. विकास के लिए फोकस की जरूरत होती है, और मोदी जी को वह फोकस सुनिश्चित आश्वस्त करना होगा. जिसका मतलब यह होगा कि आपको छोटे-मोटे तत्वों पर भी नियंत्रण रखना होगा. आप दिल्ली में विकास और मुजफ्फरनगर में लव जिहाद की बात नहीं कह सकते हैं. इससे ध्यान भंग होता है. अगर लव जिहाद इतना ही खतरनाक था, तो यह परिघटना वोट पड़ने के बाद कैसे रुक गयी.

अजय शंकर : ऐसा लगता है कि मोदी लहर अब भी कायम है. इसकी हकीकत कब और कैसे परखी जायेगी?

तेल के दामों में आयी गिरावट ने लोगों की आंखों पर पट्टी बांध दी है, और इस कारण हकीकत की परख में देर हो रही है. नहीं तो अब तक ऐसा हो जाता. क्योंकि अगर पहले सात-आठ महीने में राजकोषीय घाटा लक्ष्य को पार कर गया होता, तो लोग हकीकत से रूबरू हो जाते. जैसा कि स्वामीनाथ अय्यर ने कहा, ‘‘ये सिर्फ अच्छे दिन नहीं हैं, अच्छे सितारे भी हैं.''

पी वैद्यनाथन अय्यर : यदि आपको सरकार में किसी भूमिका की पेशकश की जाये, तो आप स्वीकार करेंगे?

किसी ने यह प्रस्ताव मुङो नहीं दिया, तो क्या किया जाये? (हंसते हैं). फैज ने कहा था - ‘कुछ हम ही को नहीं एहसान उठाने का दिमाग/ वो जब आते हैं, माइल-ब-करम आते हैं.'

अजय शंकर : सरकार बनने से पहले आपकी चर्चित मुलाकात के दौरान क्या हुआ था?

सरकार बनने के बाद की भेंट भी मशहूर होनी चाहिए थी. पहले अखबार आपको काम देते हैं, ठीक दूसरे दिन वह कहते हैं, आप निराश हैं (हंसते हैं). आइ एम नाइदर अपाइंटेड, नॉर डिसअपाइंटेड (मै ना तो नियुक्त किया गया हूं, ना ही निराश किया गया हूं).

अनुवाद : शिकोह अलबदर

(प्रभात खबर से साभार)


http://www.prabhatkhabar.com/news/Interview/narendra-modi-prime-minister-government-mandate/223384.html


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