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साक्षात्कार | ‘ऐसे कानून के लिए हम विकास दर बढ़ने का इंतजार करते रहें, यह जरूरी तो नहीं’

‘ऐसे कानून के लिए हम विकास दर बढ़ने का इंतजार करते रहें, यह जरूरी तो नहीं’

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published Published on Sep 6, 2013   modified Modified on Sep 6, 2013

खाद्य सुरक्षा विधेयक पर अलग-अलग खेमों से अलग-अलग प्रतिक्रिया आ रही है. सामाजिक कार्यकर्ता इसकी तारीफ कर रहे हैं तो कॉरपोरेट जगत इस पर चिंतित है. अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज, रेवती लॉल को बता रहे हैं कि क्यों देश को इस कानून की जरूरत है और इसमें कौन-सी खामियां हैं जो दूर होनी चाहिए.

खाद्य सुरक्षा विधेयक ने तमाम आशंकाएं पैदा कर दी हैं. पहली आशंका यह है कि देश के पास इतनी बड़ी योजना को लागू करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है. क्या यह डर सही है?
अर्थशास्त्र में हमें सबसे पहले सिखाया जाता है कि आर्थिक लागत और वित्तीय लागत दो अलग-अलग चीजें हैं. अगर इनमें अंतर नहीं होता तो अर्थशास्त्रियों की जरूरत ही नहीं होती, किसी अच्छे एकाउंटेंट से ही लोगों का काम चल जाता. दुर्भाग्य से खाद्य सु्रक्षा विधेयक को लेकर चल रही बहस में इस अंतर को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है. लोगों का सारा ध्यान सिर्फ वित्तीय लागत पर टिका हुआ है. और इस वित्तीय लागत पर भी जो बहसें हो रही हैं उनमें से ज्यादातर भ्रमित करने वाली हैं.

अगर हम आर्थिक लागत की बात करें तो हाल के सालों में हमने कुछ बड़े बदलाव देखे हैं. मसलन इस दौरान अनाज की खरीद में जबरदस्त इजाफा हुआ है. पिछले साल सरकार ने सात करोड़ तीस लाख टन अनाज की खरीद की थी. खाद्य सुरक्षा कानून के तहत जितने अनाज की जरूरत है यह आंकड़ा उससे एक करोड़ 20 लाख टन ज्यादा हैं. यह विराट मात्रा न्यूनतम समर्थन मूल्य में लगातार हुई बढ़ोतरी का नतीजा है. अक्सर अतिरिक्त अनाज के निपटारे के लिए जनवितरण प्रणाली यानी पीडीएस का इस्तेमाल किया जाता रहा है. इसके बावजूद अनाज के स्टाक में असाधारण बढ़ोतरी हो चुकी है. इस अतिरिक्त अनाज के सुसंगत इस्तेमाल के लिए यह कानून एक सुनहरा अवसर है. मीडिया के एक हिस्से में खबरें आ रही हैं कि इसके लिए सरकार को अनाज की अलग से खरीद करनी पड़ेगी. यह बिल्कुल गलत है. सच्चाई यह है कि अनाज का जो अतिरिक्त स्टाक है उसका इस्तेमाल लोगों की गरीबी दूर करने के लिए हो सकेगा. उनके जीवन में एक तरह की सुरक्षा आएगी. जब आप इस तरह सोचेंगे तो पाएंगे कि इस कानून से आर्थिक लागत में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी. 

जहां तक वित्तीय लागत का प्रश्न है तो इस मामले में आधिकारिक आंकड़ों की ठीक से व्याख्या करने की जरूरत है. उदाहरण के तौर पर, इस कानून के लागू होने के बाद खाद्य सब्सिडी पर होने वाला खर्च बढ़कर 1,25,000 करोड़ रु प्रति वर्ष हो जाएगा. इसका मतलब यह नहीं है कि यह सारा खर्च इस कानून की वजह से होगा. खाद्य सब्सिडी पर होने वाला खर्च तो वैसे ही हर साल बढ़ता रहा है. इसकी वजह है समर्थन और खरीद मूल्य में हो रहा इजाफा. इस कानून से सरकारी खजाने पर 1,25,000 करोड़ रु का बोझ पड़ेगा, यह कहना ऐसा है जैसे आप 50 हजार रु के अपने लैपटॉप को अपग्रेड करने के लिए पांच हजार रु खर्च करें और फिर कहें कि अपग्रेड में 55 हजार लग गए. यह सच नहीं है. इसके अलावा इस बिल के साथ जो अतिरिक्त सब्सिडी जुड़ी हुई है उसका कुछ हिस्सा केंद्र से राज्य सरकारों को जाएगा. लिहाजा राज्य और केंद्र के ऊपर अतिरिक्त खर्च का बोझ नाममात्र का होगा.

लेकिन कॉरपोरेट सेक्टर में इस कानून के प्रति एक बेरुखी का भाव है. आपको इसकी क्या वजह लगती है?
कॉरपोरेट की जो बेरुखी है वह सिर्फ यही बताती है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक कॉरपोरेट के हितों को पूरा नहीं करता है. लेकिन इसका मकसद यह है भी नहीं.

रुपए में जो गिरावट चल रही है क्या उसका मनरेगा और खाद्य सुरक्षा विधेयक से कोई संबंध है?
रुपए की कीमत में गिरावट के पीछे कई कारण हैं जैसे सोने और तेल का भारी मात्रा में आयात, अमेरिका की मौद्रिक नीतियों में बदलाव और इन सबके ऊपर सीरिया  पर हमले की आशंका. इस गिरावट का इस विधेयक से खास लेना-देना नहीं है. लेकिन मीडिया के एक वर्ग ने इस बारे में काफी बढ़ा-चढ़ाकर बातें की हैं जिसकी वजह से लोगों के मन में अनावश्यक भय का माहौल बन गया है. उन्हें लग रहा है कि अनाज की खरीद और वितरण की जो व्यवस्था है उसमें बड़े पैमाने पर विस्तार करना होगा. ऐसे वित्त विशेषज्ञ जो कॉरपोरेट द्वारा संचालित मीडिया के जरिए खाद्य सुरक्षा विधेयक को समझने की कोशिश कर रहे हैं उनका डरना वाजिब है.

आप यह तो मानेंगे कि इस तरह की लोकलुभावन योजनाओं के लिए आपको ऊंची विकास दर या बड़ी मात्रा में निवेश की जरूरत होगी.  

आर्थिक विकास की ऊंची दर इस तरह की जनहितकारी योजनाओं को लाभ पहुंचाती है. यह विकास दर का सकारात्मक पक्ष है. लेकिन इससे हमें यह पता नहीं चलता कि इस विकास दर से अपने बाकी सामाजिक लक्ष्यों का संतुलन कैसे बैठाया जाए. या फिर किस तरह के विकास को हम आगे बढ़ाएं. इसका यह भी मतलब नहीं कि शिक्षा, स्वास्थ्य या सामाजिक सुरक्षा पर खर्च करने के लिए हम विकास दर के बढ़ने का इंतजार करते रहें. जिन देशों ने इस दिशा में जल्दी शुरुआत कर दी थी वे आज बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं. और यह बात भारत पर भी लागू होती है.   

इस तरह की चिंताएं भी जताई जा रही हैं कि इतनी सारी रियायतों से लोग आलसी हो जाएंगे, समाज में मेहनत करके कमाने की प्रवृत्ति घट जाएगी, लोग काम नहीं करना चाहेंगे, किसान खेती करना छोड़ देंगे.
मुझे तो यही लगता है कि ऐसी बातें वही कह रहे हैं जिनके जीवन में कोई असुरक्षा नहीं है और वे अपनी यह खास हैसियत बनाए रखना चाहते हैं. ये सारे तर्क सामाजिक मजबूती के खिलाफ जाते हैं जिनके समर्थन में आप कोई सबूत खोजने निकलेंगे तो यह जुटाना बहुत मुश्किल होगा. बल्कि अगर दो जून की रोटी सुनिश्चित हो जाए तो इससे लोगों की उत्पादकता बढ़ाने में मदद ही मिलती है. तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश को देखिए जहां सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था अपेक्षाकृत बेहतर है. क्या वहां के लोग आलसी हैं? क्या उनकी उत्पादकता घट गई है? बल्कि इसका उल्टा हुआ है. वहां समाज कल्याण की योजनाओं ने लोगों की बेहतरी और आर्थिक विकास, दोनों में अहम भूमिका अदा की है.

आलोचक यह भी कहते हैं कि इस योजना से हाल यह हो जाएगा कि भारत को खाद्यान्न आयात करना पड़ेगा. क्या हम जो अनाज पैदा कर रहे हैं वह इस योजना को जमीन पर उतारने के लिए काफी है?
पिछले कुछ समय से भारत खाद्यान्न का निर्यात कर रहा है और इसका विशाल भंडार भी मौजूद है. मैं निकट भविष्य में तो ऐसी कोई संभावना नहीं देखता जिसकी बात आलोचक कर रहे हैं. बल्कि अभी कुछ समय तक तो अतिरिक्त खाद्यान्न भंडार की समस्या रहने वाली है.

खाद्य सुरक्षा कानून से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में क्या बदलाव आ सकता है?
इससे गांवों में रह रहे लोग थोड़ा-सा निश्चिंत हो सकते हैं. इनमें वे छोटे किसान भी शामिल हैं जिनकी जिंदगी पर फसल के बर्बाद होने, बीमारी या फिर किसी और परेशानी का बहुत ही ज्यादा असर पड़ता है. मातृत्व लाभ और बच्चों के पोषाहार से जुड़े इसके कुछ पहलू हैं जो कुपोषण घटाने में भी मदद कर सकते हैं.

जनवितरण प्रणाली की वे कौन-सी खामियां हैं जिनका हल इस कानून से हो जाएगा और किन खामियों का इसमें कोई इलाज नहीं है?
हाल के अनुभव बताते हैं कि व्यवस्था की पहुंच अगर व्यापक हो, कीमतें कम हों और नियम स्पष्ट हों तो जनवितरण प्रणाली काफी प्रभावी साबित हो सकती है. खाद्य सुरक्षा कानून जनवितरण प्रणाली के बढ़िया संचालन की दिशा में एक अच्छा कदम है. लेकिन इतना ही काफी नहीं है. जनवितरण प्रणाली में कुछ वैसे सुधार भी किए जाने की जरूरत है जो छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु में बहुत बढ़िया तरीके से लागू किए गए हैं.
कानून में प्रावधान है कि इन सुधारों में से कुछ राज्य सरकारों की जिम्मेदारी हैं, लेकिन कानून इस बारे में विस्तार में नहीं जाता. शायद यह थोड़ी स्पष्टता के साथ किया जाना चाहिए था. लेकिन फिर यह भी है कि इससे थोड़े लचीलेपन की भी गुंजाइश बन जाती है.

कानून में और कौन-सी ऐसी चीजें हैं जिनके बारे में आपको लगता है कि वे ठीक नहीं हैं? मेरा मतलब है कि ऐसी चीजें जो कमान आपके हाथ में होती तो आप उन्हें बदलना चाहते.
कमियां और छेद तो बहुत सारे हैं. बल्कि कहा जाए तो मैं इस कानून का जितना समर्थक हूं उतना ही आलोचक भी हूं. यह विधेयक बच्चों के अधिकारों को नजरअंदाज करता है. इसके अलावा कानून केंद्र सरकार को एकतरफा शक्तियां देता है और इसमें शिकायतों के निपटारे की व्यवस्था बहुत कमजोर है. पर सबसे बड़ी खामी इस कानून में यह है कि इस योजना का लाभ किन घरों को देना है यह तय करने की जिम्मेदारी सरकार के विवेक पर छोड़ दी गई है. यानी अगर कोई सरकार के औपचारिक रिकॉर्ड में न आ पाया हो और वह अपना हक मांगने जाए तो उसे यह जवाब मिल सकता है कि वह इस योजना के तहत मिलने वाले लाभ का पात्र नहीं है. कानून में राज्य सरकारों के लिए यह अनिवार्य किया जाना चाहिए था कि कौन इसकी जद में नहीं आएगा, इसके लिए वे मानक बनाएं और बाकी सभी को इस योजना का लाभ मिले.

आलोचक यह भी तर्क देते हैं कि यह कानून संघीय ढांचे का उल्लंघन है. आप क्या मानते हैं?
कानूनी परिभाषा के हिसाब से यह कानून संघीय ढांचे के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, इस बारे में मुझे नहीं पता. हां, लेकिन मुझे जरूरत से ज्यादा केंद्रीय दखल का खतरा दिखता है, खासकर जनवितरण प्रणाली के मामले में. आज के हालात देखें तो कई राज्य हैं जिन्होंने खुद पहल करके जनवितरण प्रणाली को सुधारा है. हो सकता है कि केंद्र के थोड़ा दबाव से कुछ और राज्य ऐसा कर लें. लेकिन दिल्ली द्वारा जरूरत से ज्यादा दखल का नतीजा उल्टा भी हो सकता है.

कुछ राज्यों ने भी इस कानून पर आपत्तियां जताई हैं. जैसे तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता कह रही हैं कि इससे उनके राज्य के खजाने पर एक हजार करोड़ रु का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा. उनका कहना है कि इसके कोई खास फायदे नहीं होंगे क्योंकि तमिलनाडु पहले ही मुफ्त चावल दे रहा है.
जयललिता जी की कुछ बातें जायज हैं. लेकिन उनकी सारी मांगें सही नहीं हैं. उनकी यह मांग गलत नहीं है कि पीडीएस के तहत उन्हें वर्तमान में जो खाद्यान्न आवंटन हो रहा है वह जारी रहना चाहिए. उनकी यह मांग भी सही है कि कानून में यह साफ हो कि ऐसे राज्यों को वर्तमान में खाद्यान्न का जो कोटा आवंटित हो रहा है वह आगे किस दर पर जारी रखा जाएगा. लेकिन उनकी यह मांग कि उन्हें पूरा का पूरा आवंटन ही तीन रु किलो (केंद्र तमिलनाडु को होने वाले सालाना चावल आवंटन का कुछ हिस्सा तीन रु किलो के हिसाब से देता है और चावल के बाकी कोटे की दर वह खुद तय करता है) के हिसाब से हो, सही नहीं है.


http://www.tehelkahindi.com/mulakaat/sakshatkar/1965.html


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