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चर्चा में.... | जीवन चलने का नाम : उदयपुर के प्रवासी मजदूरों की बदलती दुनिया
जीवन चलने का नाम : उदयपुर के प्रवासी मजदूरों की बदलती दुनिया

जीवन चलने का नाम : उदयपुर के प्रवासी मजदूरों की बदलती दुनिया

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published Published on Jun 2, 2016   modified Modified on Jun 2, 2016
" यह सड़क कहां जाती है ?

"सड़क कहीं नहीं जाती, इस पर आने-जाने वाले लोग जाते हैं."

विजयदान देथा की एक कहानी में चतुर बुढ़िया ने अपनी हाजिरजवाबी से राजा और मंत्री को छकाने के लिए कहा था.

पता नहीं उदयपुर जिले के जनजातीय इलाके गोगुन्दा, कोटड़ा और सलुम्बर में चतुर बुढ़िया की यह लोककथा प्रचलित है या नहीं लेकिन यहां के राष्ट्रीय राजमार्ग-8 पर बुढ़िया की बात फिट बैठती है.

लाने-जाने के क्रम में यह सड़क गोगुन्दा, कोटड़ा, सलुम्बर तहसील के प्रवासी मजदूरों को उम्र भर छकाते रहती है!

एक अध्ययन के मुताबिक 40 फीसद से ज्यादा जनजातीय आबादी वाले सलुम्बर, गोगुन्दा और कोटड़ा के 54 फीसद परिवार इस सड़क से परिवार का पेट पालने की मजबूरी में पास के राजसमन्द से लेकर सुदूर गुजरात के शहरों के लिए निकल पड़ते हैं.

इनमें से कोई सूरत के टैक्सटाइल मार्केट में हम्माली के काम खोजता है, कोई अहमदाबाद के मध्यवर्गीय घरों से लेकर रेस्त्रां तक में रसोई का काम तो कोई ऊंझा में मकान-दुकान-सड़क के निर्माण और मरम्मती के सहारे कुछ पैसे कमाने की जुगत लगाता है.

क्या है बड़ी तादाद में पलायन की वजह ?

एक बड़ी वजह है इलाके में जीविका के साधनों का अभाव. उदयपुर जिले के मानव विकास रिपोर्ट के मुताबिक जिले के उत्तर से दक्षिण तक अरावली की पहाड़ियां फैली है, पूर्वी भाग उपजाऊ है लेकिन उत्तरी भाग एकदम पथरीला. दक्षिणी और पश्चिमी हिस्सा पथरीला और जंगलों से भरा है सो खेती महज 17 प्रतिशत हिस्से में ही खेती होती है, वह भी जुलाई महीने में होने वाली बारिश के रहमो-करम के भरोसे.

छोटे और सीमांत किसानों की बहुतायत (75 फीसद) है, तकरीबन 24 प्रतिशत परिवारों के पास जमीन नहीं है तो 58 प्रतिशत के पास 1 हैक्टेयर से कम जमीन है वह भी असिंचित. बस 8 फीसद परिवार वेतनभोगी हैं, शेष या तो खेती के भरोसे हैं या मजदूरी के. सलुम्बर में 64 फीसद आबादी गुजर-बसर के लिए खेती के आसरे हैं, 14 प्रतिशत दिहाड़ी मजदूरी के. गोगुन्दा में यही आंकड़ा क्रमश 54 और 23 फीसद का है.

मानव-विकास रिपोर्ट के अनुसार उदयपुर जिले की ग्रामीण आबादी को खेती-बाड़ी से साल में बस तीन माह की जरुरत पूरी करने लायक अनाज हासिल होता है. इलाके में जंगलों के लगातार कम होते जाने से आम जन के आगे जीविका की असुरक्षा आन खड़ी हुई है और वह गुजर-बसर चलाने के लिए पास के जिले या सुदूर गुजरात के शहरों में पलायन को मजबूर होता है.

क्या होता है प्रवासी मजदूरों के साथ ?

साफ-सफेद शर्ट और काली पैंट में संवरी दुबली-छरहरी देह, बाल करीने से संवारे हुए ! बात करते हुए बेख्याली में बार-बार वह अपने दाहिने हाथ का अंगूठा कमर की बेल्ट में फंसाता मानो किसी मिशन पर जाने को तैयार हो रहा हो. मिलिए रुपलाल गरासिया से !
 
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Rooplal Gerasiya speaking to the Inclusive Media for Change team on 2 May, 2016
 
इन्क्लूसिव मीडिया की टोली की भेंट इनसे मई(2016) महीने की एक चिलचिलाती दोपहरी में गोगुन्दा के पहाड़ियों में ऊपरी घाटा कहलाने वाले हिस्से में हुई.

राष्ट्रीय राजमार्ग-8 पर बने एक रेस्त्रां में रुपलाल ने सन् 2008 में महज एक हजार रुपये महीने पर 12-12 घंटे काम किया. उम्र तब 15 साल से ज्यादा ना थी और आठवीं क्लास की पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी थी.

पांच जन का परिवार चला पाने में मां-बाप मजबूर थे. वह हुनर ना था जो बाजार में ऊंचे दाम पर बिके. खेतों से बस इतना ही उपजता कि साल के तीन महीने किसी तरह काम चल सके.

रेस्त्रां में वह ज्यादा दिन ना टिका. एक दिन किसी बिचौलिए की मदद से कुछ साथियों के साथ वह गुजरात के एक शहर निकल गया. परिवेश गोगुन्दा के मुकाबिल नया था, लगा वह बंधुआ मजदूर सरीखी अपनी नियति को पीछे छोड़ आया है. लेकिन नहीं, लड़के-लड़कियों के हॉस्टल के मेस में खाना परोसने का काम मिला तो उसे जाना कि जिस पतीले को उस जैसे दो जन नहीं उठा सकते, उसे अकेले उठाने की कोशिश में वह अपने हाथों को जला रहा है.

दो साल बाद एक दिन जब घर जाने को हुआ तो नया मालिक ने पूरे दो साल की मजदूरी के पैसे देने से इनकार कर दिया. इस झूठ और हकमारी की शिकायत रुपलाल किससे और किस आधार पर करता ! 

काम उसने किया था लेकिन काम का कोई लिखित करार ना था. अनजानी जगह पर बगैर किसी पहचान-पत्र, साखी-गवाही का काम देने वाली किसी कार्य-पंजी के वह किससे कह पाता कि मैं सुदूर गोगुन्दा का प्रवासी मजदूर वही रुपलाल गरासिया हूं, जिसकी मजदूरी के पैसे यहां गुजरात में मारे गये.

यह मानकर कि मजदूरी के पैसे डूब गये जैसे-तैसे रुपलाल और उसके साथी घर लौटे. ठगे जाने की टीस सताते रहती कि तभी इलाके से पलायन को मजबूर उस सरीखे मजदूरों को इंसाफ दिलाने के लिए काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था आजीविका ब्यूरो के एक सदस्य से भेंट हुई.

यह संस्था प्रवासी मजदूरों के लिए दो छोरों पर काम करती है. मजदूर जहां से चलते हैं वहां संस्था प्रदेश शासन के सहयोग से मजदूरों को पहचान-पत्र और एक कार्यपंजी मुहैया कराती है. मजदूर जिन ठिकानों पर पहुंचते हैं वहां भुगतान, शारीरिक-मानसिक उत्पीड़न, तय सीमा से ज्यादा देर तक काम लेने जैसी कोई फरियाद आयी तो संस्था दिए गए पहचान-पत्र और कार्यपंजी को आधार बनाकर मजदूर और नियोक्ता के बीच विवाद का निपटारा करती है.

इस संस्था की मध्यस्थता में रुपलाल और उसके साथियों को गुजरात के नियोक्ता से मजदूरी के बकाया पैसे मिले.आज रुपलाल आजीविका ब्यूरो का एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता है

गोगुन्दा और सलुम्बर के बहुत से मजदूरों की कहानी रुपलाल से मिलती है. आजीविका ब्यूरो के एक सर्वेक्षण के मुताबिक मात्र तेरह प्रतिशत श्रमिक अपने काम का लिखित अनुबंध रखते हैं, लगभग एक चौथाई मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी या समान काम के लिए समान भुगतान से संबंधित विधान के बारे में पता होता है. कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम और बंधुआ मजदूरी से संबंधित कानून की जानकारी इससे भी कम मजदूरों को होती है. ज्यादातर यह तो जानते हैं कि श्रम-विभाग में उनकी शिकायत का निबटारा हो सकता है लेकिन 10 फीसद से भी कम मजदूरों को श्रम-विभाग के सही ठिकाने और अधिकारी के बारे में जानकारी होती है.

जानकारी का अभाव और सामाजिक असहायता की हालत अनजानी जगह पर मजदूरों के लिए शोषण की जमीन तैयार करती है. नियोक्ता कभी नियत घंटों से ज्यादा काम लेता है, कभी मजदूरी के कम पैसे देता है तो कभी मजदूरी के पैसे देने से एकदम ही इनकार कर देता है. काम करते वक्त कोई दुर्घटना हो जाय रुपलाल जैसे मजदूरों के पास क्षतिपूर्ति मांगने का कोई सहारा नहीं होता.

पलायन की चुनौती को बेहतरी के अवसर में बदलने की कोशिश

बेसहारा मजदूरों के आसरे का एक ठिकाना है आजीविका ब्यूरो !

यह संस्था पलायन करने वाले मजदूरों के लिए ऐसा वातावरण बनाने को प्रयासरत है कि मालिक और मजदूर के बीच उलझे विवाद सामने आ सकें. ठेकेदारों को संवेदनशील बनाना, श्रमिक परामर्श केंद्र चलाना, श्रमिक और प्रशासन के बीच सीधे संवाद की स्थिति बनाना, पैरालीगल कार्यकर्ता तैयार करना और सुबह आठ बजे से रात्रि 9 बजे तक चालू एक फोन हैल्पलाइन के जरिए मजदूरों को अपनी फरियाद दर्ज कराने की सुविधा का इस संस्था ने एक सुचारु ढांचा तैयार किया है.
 
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Shramik Sahayata evam Sandarbh Kendra signboard at Salumbar, Udaipur
 
आजीविका ब्यूरो ने प्रवासी श्रमिकों और उनके परिवार के लिए कौशल-उन्नयन और चिकित्सीय जरुरत से लेकर भुगतान संबंधी विवाद के निपटारे तक के लिए सेवाभावी, योग्य और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का एक समूह तैयार किया है. समूह की सफलता इस बात से आंकिए कि 2009 से अबतक मजदूरी भुगतान के तैंसीस सौ से ज्यादा मामलों में उसने श्रमिकों को साढ़े पांच करोड़ से ज्यादा की राशि दिलवायी है.

(रुपलाल गरासिया और उस सरीखे सैकड़ों मजदूरों की विपदा और उससे उबरने की कहानियों के लिए आप इस लिंक या नंबर पर संपर्क कर सकते हैं. पोस्ट में इस्तेमाल की गई तस्वीर साभार शंभु घटक से)
 


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