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न्यूज क्लिपिंग्स् | ओझल आदिवासी समाज- विनोद कुमार

ओझल आदिवासी समाज- विनोद कुमार

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published Published on Aug 27, 2014   modified Modified on Aug 27, 2014
जनसत्ता 26 अगस्त, 2014 : आदिवासी समाज के बारे में इधर हमारी दृष्टि बदली है। बावजूद इसके आदिवासी बहुल इलाकों के बाहर आदिवासी समाज के बारे में अब भी एक कौतूहल का भाव रहता है। इस परिप्रेक्ष्य में यह जानना दिलचस्प होगा कि गैर-आदिवासी समाज आज भी आदिवासी समाज को किस रूप में देखता है। राजनेताओं की नजर में आदिवासी समाज की अहमियत क्या है, इसे हम कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं।


बिहार को विशेष राज्य का दर्जा इसलिए चाहिए कि उसके हाथ से आदिवासी-बहुल इलाका निकल गया, जिसका दोहन कर बिहार की अर्थव्यवस्था चल रही थी और नीतीश कुमार का सुशासन उस आर्थिक संकट से बिहार को बाहर नहीं निकाल पाया। ओड़िशा को विशेष राज्य का दर्जा इसलिए चाहिए ताकि वह आदिवासी-बहुल इलाकों में चल रही योजनाओं को जारी रख सके। तेलंगाना को अलग राज्य का दर्जा इसलिए चाहिए था, क्योंकि उसके आदिवासी-बहुल इलाके पिछड़ेपन के शिकार थे। अब चंद्रबाबू नायडू को आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा इसलिए चाहिए कि उनके यहां रह गए रायलसीमा और आंध्र के तटीय इलाकों के आदिवासियों के बीच वे ओड़िशा के ‘कोरापुट-बलांगीर-कालाहांडी' की तर्ज पर विशेष योजनाएं चला सकें। झारखंड तो बना ही आदिवासियों के उत्थान के नाम पर। आदिवासी अस्मिता और उनकी विशिष्ट संस्कृति की रक्षा के लिए। यानी आदिवासी सदियों से कुपोषित कोई शिशु है, जिसे सभी पौष्टिक आहार खिलाने में लगे हैं और बच्चा है कि खा-पीकर स्वस्थ होता ही नहीं।

हम सबको इस बात की तो जानकारी है कि आदिवासी-बहुल इलाकों में चले रहे सैकड़ों एनजीओ, जिनके मुख्यालय दिल्ली, मुंबई, मद्रास, हैदराबाद, बंगलुरु जैसे महानगरों में स्थित हैं, आदिवासियों के उत्थान के लिए तीन-चार दशक से सक्रिय हैं। वे उन्हें जीने का सलीका बताते हैं, शौचालय में ही मल त्याग को प्रेरित करते और खाने से पहले और शौच के बाद हाथ धोने की सलाह देते हैं। उनकी एक प्रमुख सलाह यह रहती है कि बच्चा स्वास्थ केंद्र में ही पैदा करना चाहिए और जच्चा-बच्चा को स्वस्थ, विटामिन से भरपूर खाना खाना चाहिए। क्योंकि उनकी समझ है कि आदिवासी का भूखा और नंगा रहना अंधविश्वास का मामला है। और उनके इस सांस्कृतिक पिछड़ेपन और भूखे रहने के अंधविश्वास से उन्हें मुक्त करना बहुत जरूरी है।

इसके अलावा वे उन्हें वनों की रक्षा की भी नसीहत देते हैं, क्योंकि वन रहेंगे तभी वे भी जीवित रहेंगे। इसके लिए वे दुनिया भर से पैसे लाते हैं। विमानों से यात्रा कर राजधानियों के आलीशान होटलों में ठहरते और आदिवासी संघर्ष और नेतृत्व के क्षेत्र में उभर रहे युवा नेता और नेत्रियों को फांस कर इस पुनीत कार्य में लगाते हैं। इस क्रम में होता यह है कि युवा नेतृत्व किसी एनजीओ का वेतनभोगी समाजसेवी-एक्टिविस्ट बन जाता है।

आदिवासियों के बारे में सामान्य गैर-आदिवासी दृष्टि यह है कि वे असभ्य और जंगली लोग हैं, जो मानवजाति के विकास के क्रम में पीछे रह गए। अगर उन्हें मुख्यधारा में नहीं लाया गया तो उनका विनाश अवश्यंभावी है। ऐसा मानने वालों में आज के दौर के प्रबुद्ध समाजशास्त्री आनंद कुमार हैं, तो दूसरी तरफ कई दशक पूर्व के प्रखर समाजशास्त्री और हमारे संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर। आंबेडकर ने जाति उन्मूलन वाले अपने प्रसिद्ध और बहुचर्चित आलेख में एक नहीं, कई जगह आदिवासियों को ‘जंगली' और ‘असभ्य' कहा है। वे ‘स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व' के आधार पर हिंदू समाज का पुनर्गठन करना चाहते थे, लेकिन आदिवासी समाज में ये जीवन मूल्य पहले से विद्यमान हैं, यह नहीं देख पाए।

वे उन्हें असभ्य और जंगली मानते हैं और वर्ण व्यवस्था से आक्रांत हिंदू समाज से इसलिए नाराज हैं कि वह आदिवासियों को सभ्य बनाने का काम नहीं कर रहा। वे यह नहीं देख पाते कि आदिवासी सभ्यता और संस्कृति हिंदू सभ्यता-संस्कृति के समांतर चलती है और इनके बीच निरंतर संघर्ष चलता रहा है।

यह वे नहीं देख पाते कि हिंदू धर्म वर्ण-व्यवस्था पर टिका है, जबकि आदिवासी समाज में वर्ण-व्यवस्था नहीं। हिंदू धर्म सतीप्रथा और विधवा विवाह जैसी समस्याओं से ग्रस्त रहा है, जबकि आदिवासी समाज औरत-मर्द के रिश्तों की दृष्टि से आदर्श समाज है। हिंदू धर्म में शारीरिक श्रम अपमान की वस्तु है और यह सिर्फ दलित के जिम्मे है, जबकि आदिवासी समाज में पाहन-पुजारी भी अपना अन्न खुद उपजाता है। बावजूद इसके वे आदिवासियों को असभ्य मानते हैं और हिंदुओं से इसलिए रुष्ट हैं कि वे उन असभ्यों को सभ्य क्यों नहीं बना रहे?

अब पौराणिक कथाओं और साहित्य-जगत की परिघटनाओं पर एक नजर डालें। भारतीय उपमहाद्वीप के ज्ञात इतिहास में दानव, राक्षस, असुर जैसे जीव नहीं मिलते, लेकिन भारतीय वांग्मय- रामायण, महाभारत, पुराण आदि ऐसे जीवों से भरे पड़े हैं।

ये दानव भीमाकार, काले और मायावी शक्तियों से भरे हुए ऐसे जीव हैं, जो देवताओं और मृत्युलोक, यानी इस भौतिक संसार में रहने वाले भद्र लोगों को परेशान करते रहते हैं। इस बारे में मान कर चला जाता है कि ये गाथाएं सदियों तक चले आर्य-अनार्य युद्ध से उपजी छायाएं हैं।

बहुधा यह भी देखने में आता है कि धार्मिक ग्रंथों, पुराणों में दुष्ट तो दानवों को बताया जाता है, लेकिन धूर्तता करते देवता दिखते हैं। मसलन, समुद्र मंथन तो देवता और दानवों ने मिल कर किया, लेकिन उससे निकली लक्ष्मी सहित मूल्यवान वस्तुएं देवताओं ने हड़प लीं। यहां तक कि अमृत भी सारा का सारा देवताओं के हिस्से गया और राहू-केतु ने देवताओं की पंक्ति में शामिल होकर अमृत पीना चाहा तो उन दोनों को सिर कटाना पड़ा।

महाभारत में लाक्षागृह से बच निकलने और जंगलों में भटकने के बाद पांडव पुत्र भीम किसी दानवी से टकराए।

उसके साथ कुछ दिनों तक रहे, फिर वापस अपनी दुनिया में चले आए। बेटा घटोत्कच कैसे पला-बढ़ा, इसकी कभी सुध नहीं ली। हालांकि उस बेटे ने महाभारत युद्ध में अपनी कुर्बानी देकर पिता के कर्ज को चुकता किया। एकलव्य की कथा तो इस बात की मिसाल ही बन गई है कि एक गुरु ने अगड़ी जाति के अपने शिष्य के भविष्य के लिए एक आदिवासी युवक से उसका अंगूठा गुरु दक्षिणा में मांग लिया। तो यह थी आदिवासियों के बारे में पुराणों की दृष्टि।

आधुनिक भारत का दौर आजादी के संघर्ष से शुरू होता है, लेकिन उसके इतिहास और साहित्य में आदिवासी समाज ओझल है। हॉफमैन, गियर्सन, हंटर, जॉन रीड जैसे विदेशी लेखक जब आदिवासी समाज और संस्कृति के उदात्त और संघर्षपूर्ण पहलुओं का उद्घाटन कर रहे थे, उस वक्त हिंदी के प्रबुद्ध लेखकों की दृष्टि से आदिवासी जीवन ओझल रहा। झांसी की रानी तो याद रहीं, ओझल रहा तिलका मांझी, सिद्धो कान्हूं और बिरसा मुंडा के अबुआ राज का संघर्ष और बलिदान।

हिंदी का श्रेष्ठ साहित्य उसी दौर में लिखा जा रहा था। प्रेमचंद, जैनेंद्र, यशपाल, भगवती चरण वर्मा, वृंदावनलाल वर्मा आदि उसी दौर के लेखक हैं, लेकिन किसी की दृष्टि आदिवासियों के अनूठे संघर्ष की तरफ नहीं गई। रेणु ने मैला आंचल में उनका जिक्र किया है। प्रेमचंद की कर्मभूमि में भील कुछ जगहों पर अवतरित होते हैं। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यास वन्य-जीवन की सुंदर छवियां प्रस्तुत करते हैं, लेकिन उनमें आदिवासी नहीं हैं।

गैर-आदिवासी लेखक यह नहीं देख सके कि जिस वक्त कांग्रेस के नेतृत्व में देश अंगरेजों से सीमित स्वायत्तता की मांग कर रहा था, उसके दो दशक पहले बिरसा मुंडा अंगरेजों को अपने इलाके से खदेड़ने का संघर्ष कर रहे थे। जिस वक्त 1857 के सिपाही विद्रोह के रूप में राजतंत्र के अवशेष अपनी आखिरी लड़ाई लड़ रहे थे, उसके पहले सिद्धो कान्हूं और तिलका मांझी अंगरेजों को अपने इलाके से खदेड़ते हुए जंगल के मुहाने तक पहुंचा आए थे।

उसी आंदोलन को कुचलने के लिए तो रामगढ़ में सैन्य छावनी बनी थी, जिसने सिपाही विद्रोह में अग्रणी भूमिका निभाई। दरअसल, आदिवासियों के बारे में गैर-आदिवासी लेखकों और इतिहासकारों की शुरू से वही दृष्टि रही है, जिसकी अभिव्यक्ति आंबेडकर ने की है। इसलिए हिंदी साहित्य के गौरव भरे दिनों की औपन्यासिक कृतियों, काव्यसंग्रहों में आदिवासी जीवन की अत्यंत सीमित छवियां मिलती हैं।

बाद के वर्षों में साहित्यकार आदिवासी जीवन की तरफ मुखातिब तो हुए, लेकिन इन लेखकों की तीन श्रेणियां रही हैं। एक तो वे, जो आदिवासी समाज के मांसल सौंदर्य और भोलेपन पर मुग्ध रहे हैं, दूसरे वे जो उनकी विपन्नता से आक्रांत रहे हैं और तीसरे वे जो आज भी आदिवासी समाज को असभ्य और जंगली मानते हैं। तीनों तरह के लेखकों में समानता यह है कि वे सभी आदिवासियों को विकास का अवरोधक मानते हैं। यहां उनकी आलोचना करना मकसद नहीं है। हम तो आदिवासी समाज के बारे में गैर-आदिवासी समाज की दृष्टि की बातें कर रहे हैं।

हम इस बात पर अफसोस कर रहे हैं कि अभी तक ऐसी एक भी औपन्यासिक कृति सामने नहीं आई है, जो संपूर्णता से आदिवासी समाज के सौंदर्य, उनकी जिजीविषा और उनके श्रम और आनंद वाली संस्कृति का चित्रण करती हो। वैसा उपन्यास जो कुरमी-महतो समाज पर केंद्रित बांग्ला उपन्यासकार ताराशंकर के ‘हंसली बांक की उपकथा' जैसा हो। इसलिए आदिवासी साहित्य की संगोष्ठियों में यह बात उठने लगी है कि आदिवासी समाज के बारे में आदिवासी ही लिख और समझ सकता है। हम इस विवाद में नहीं जाएंगे। लेकिन गैर-आदिवासी लेखकों को पहले आदिवासी समाज के बारे में अपनी दृष्टि बदलनी होगी।

मूल सवाल है कि हम सभ्यता की परिभाषा किस तरह करते हैं? नागर जीवन, सुरुचिपूर्ण भोजन और कपड़े से? बहुसंख्यक आदिवासियों के पास यह उपलब्ध नहीं। लेकिन उनके पास उच्चतर जीवन मूल्य हैं, लालच से मुक्त जीवन की संस्कृति है। उन्हें भी अच्छा भोजन, रिहायशी सुविधा और आधुनिक जीवन की सुविधाएं मिलनी चाहिए। लेकिन ईमानदारी की बात है कि हमारी अर्थव्यवस्था अभी उस मुकाम पर नहीं पहुंची है कि सबको अच्छा भोजन, शानदार भवन, फ्रिज, टीवी, और नए मॉडल की कार दे सके। यह तो कुछ लोगों के लिए ही संभव है और वह भी तब जब बहुसंख्यक आबादी मुफलिसी में जिए। पानी भात खाए और दो जोड़ा कपड़े में रहे।

अगर हम वास्तव में उन्हें भी अच्छा कपड़ा पहनाना चाहते हैं, अच्छा भोजन उपलब्ध कराना चाहते हैं और जीवन की आधुनिक वस्तुएं उपलब्ध कराना चाहते हैं, तो उन्हें सभ्य बनाने के मुगालते को छोड़ हमें अपने बदन के कपड़े कम करने होंगे, थोड़ा कम खाना होगा और विलासितापूर्ण जीवन का परित्याग करना होगा। सबसे बड़ी बात कि महाजनी शोषण पर टिकी इस व्यवस्था की जगह लालच से मुक्त आत्मनिर्भर और संतोष वाली आदिवासी संस्कृति के उदात्त जीवन मूल्यों को अपनाना होगा।


http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=76476:2014-08-26-06-26-25&catid=20:2009-09-11-07-46-16


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