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न्यूज क्लिपिंग्स् | बदलते पर्यावरण की विनाशलीला - सुनीता नारायण

बदलते पर्यावरण की विनाशलीला - सुनीता नारायण

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published Published on Sep 12, 2014   modified Modified on Sep 12, 2014
जम्मू-कश्मीर 60 साल की सबसे भयानक बाढ़ के अभिशाप को झेल रहा है। छह लाख लोग फंसे हुए हैं और 200 से ज्यादा के मरने की खबर है। इसके साथ ही धीरे-धीरे अब सबका ध्यान इस अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदा के कारणों की तरफ जा रहा है। कहा जा रहा है कि बाढ़ के पानी ने अचानक ही इस राज्य को अपनी गिरफ्त में ले लिया। लेकिन यह कैसे हुआ? हर साल हमारा देश पानी की कमी के चलते महीनों अशक्त बना रहता है और सूखे से मुठभेड़ करता है, इसके बाद बाढ़ की विनाशलीला शुरू हो जाती है। इस चक्र से यह साल भी अछूता नहीं रहा, बल्कि कुछ नया और विचित्र भी हो रहा है। दरअसल, हर साल बाढ़ का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। बेमौसम बरसात हर साल बढ़ती जा रही है और कम ही समय में तेज बारिश हो रही है। हर साल बाढ़ या भयंकर अकाल से आर्थिक नुकसान बढ़ता है और विकास के लाभ कम हो जाते हैं। वैज्ञानिक अब निर्णायक रूप से कहते हैं कि मौसम के कुदरती बदलाव और जलवायु परिवर्तन के बीच एक पैटर्न है। इंसानों द्वारा कार्बन उत्सजर्न से ऐसा कुछ हो रहा है, जो वातावरण को सामान्य से तेज गति से गरम कर रहा है। मानसून का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि वे उस पैटर्न को स्पष्ट कर रहे हैं, जो सामान्य मानसून व इन दिनों दिख रही असामान्य तेज बारिश के बीच है। वैसे मानसून मनमौजी और अचंभित करने वाला होता है। लेकिन वैज्ञानिक परिवर्तन को देख सकते हैं।

बाढ़ फिर से एक गंभीर चेतावनी है कि जलवायु परिवर्तन ने भारत पर निर्मम प्रभाव डालना शुरू कर दिया है। हालांकि, असामान्य मौसमी घटनाओं को जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देखने के दृष्टिकोण को सरकार और भारतीय वैज्ञानिक समुदाय, दोनों पूरी तरह खारिज करते हैं। उनको मेरी राय है कि जलवायु परिवर्तन से इनकार नहीं कीजिए, बल्कि उसको मानते हुए उसके अनुकूल बनिए। 26 जुलाई, 2005 को जब मुंबई में 24 घंटों के अंदर 994 मिलीमीटर की भारी बारिश हुई और प्रलय-सा दृश्य उपस्थित हो गया, तब बहुत से लोग मारे गए थे। उस समय भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने इसे ‘असामान्य भारी बारिश की घटना' कहा, किंतु इसे बदलते हुए पर्यावरण से जोड़ने से इनकार कर दिया था। छह अगस्त, 2010 को जब लेह शहर बादल फटने से पूरी तरह तबाह हो गया और इस कहर में 200 लोग मरे थे, एक घंटे के अंदर 250 मिलीमीटर की बारिश हुई थी, तब वैज्ञानिकों ने इस विषम मौसमी घटना को परिभाषित करने के लिए ‘असामान्य' और ‘अत्यधिक' जैसी शब्दावली का इस्तेमाल किया था। आईएमडी के वैज्ञानिकों ने दर्ज किया कि लेह में जो हुआ है, उसका जलवायु परिवर्तन से कोई लेना-देना नहीं है।

जून, 2013 में उत्तराखंड में भारी बारिश से महात्रासदी आई। आईएमडी ने इसे ‘उत्तराखंड के ऊपर मानसून व पश्चिमी हवाओं' की मजबूत पारस्परिक क्रिया बताया था। हालांकि, आईएमडी ने अपनी आधिकारिक रिपोर्ट में यह लिखा कि ‘यह घटना इस मायने में असाधारण थी कि दो मौसमी प्रक्रियाओं की मिलन-रेखा घंटों तक लगभग स्थिर रही। परिणामस्वरूप काफी बारिश हुई, जिससे भयंकर बाढ़ आई।' लेकिन अधिकतर भारतीय वैज्ञानिकों ने इस ‘असाधारण' घटना को जलवायु परिवर्तन से जोड़ने से इनकार किया। अब जम्मू एवं कश्मीर में आई बाढ़ को लीजिए। यहां जो बारिश हुई है, उसे ‘बिना मौसम की और अत्यधिक बारिश' बताया गया है। कई जगहों पर 24 घंटों में 200 मिलीमीटर से भी अधिक बारिश हुई। हम इस तबाही की असली सीमा से अनजान हैं, लेकिन शुरुआती आकलन ये हैं कि कुछ सौ लोग मरे हैं और आर्थिक नुकसान हजारों करोड़ रुपये का हुआ है। मौसम विभाग ने दोबारा कहा, ‘भारी बारिश मानसून और दो तीव्र पश्चिमी विक्षोभों के मिलन से हुआ।' भारतीय वैज्ञानिकों ने भारी बारिश की इन सभी चार घटनाओं को ‘असाधारण', ‘अप्रत्याशित' और ‘असामान्य' कहा। लेकिन वे यह बताने में नाकाम रहे कि क्यों ये ‘असाधारण', ‘अप्रत्याशित' और ‘असामान्य' घटनाएं लगातार घट रही हैं।

इसका सबसे बुरा पक्ष यह है कि वे इस ख्याल को सोचने से भी इनकार कर देते हैं कि शायद जलवायु परिवर्तन की इन घटनाओं में कुछ भूमिका हो। इन भारी बारिशों पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एक भी शब्द नहीं कहा। वहीं, इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की 2014 में जारी पांचवीं आकलन रिपोर्ट और 2011 में जारी स्पेशल रिपोर्ट ऑन मैनेजिंग द रिस्क्स ऑफ एक्सट्रीम इवेंट्स ऐंड डिजास्टर्स टु एडवांस क्लाइमेट चेंज एडेप्शन, दोनों साफ इशारा करती हैं कि आने वाले दशकों में जैसे दुनिया गरम होती जाएगी, वैसे भारत अत्यधिक बारिश की घटनाओं का अधिक से अधिक सामना करता जाएगा। यहां तक कि जलवायु के ज्यादातर मॉडल यही भविष्यवाणी करते हैं कि हम बारिश के कम दिनों में ही अधिक बरसात का सामना करने जा रहे हैं। इनमें वे भी मॉडल हैं, जिनको भारतीय वैज्ञानिकों ने बनाया है। इसका मतलब है कि भविष्य में हमें भारी बारिश का सामना करना होगा। हम इन विषम स्थितियों को ‘पश्चिमी विक्षोभों व मानसून के मिलन' की घटना बताएं या नहीं, सच यह है कि हमें इन घटनाओं से निपटने के लिए तैयारी शुरू कर देनी होगी।

बहरहाल, भारी बारिश समस्या का एक हिस्सा भर है। यह भी साफ है कि हमने हर जगह जल-निकासी की व्यवस्था को तबाह कर दिया है। हमने नदी को नियंत्रित करने के लिए तटबंध बनाए। इससे भी बदतर यह हुआ कि बाढ़ के इलाकों को हमने अपना घर बना लिया। जल-निकासी की परवाह शहरी भारत नहीं करता। बड़े नाले या तो बंद कर दिए गए या उनका अस्तित्व बचा ही नहीं। रियल इस्टेट ने तालाबों व पोखरों को लील लिया। आलम यह है कि हम सिर्फ इमारतों के लिए जमीन देखते हैं, पानी के लिए नहीं। हमारा रवैया यह है कि बारिश तो थोड़े दिनों के लिए होती है, फिर उस पानी के प्रबंधन के लिए जमीन को क्यों बरबाद करें? यही श्रीनगर में हुआ है। शहर के निचले इलाकों में भी रिहाइशी इमारतें खड़ी कर दी गईं। बाढ़ के पानी के रास्तों को अनदेखा किया गया या उन पर कब्जा जमा लिया गया। ऐसे में, शहर को डूबना था ही। जम्मू-कश्मीर में भी यही सब कुछ हुआ है। वहां बाढ़ प्रबंधन का पारंपरिक तंत्र यह था कि हिमालय से निकला पानी झीलों व नहरों में जाए। डल और नागीन झील श्रीनगर के न सिर्फ सौंदर्य स्थल हैं, बल्कि जलाशय भी हैं। बड़े जलग्रहण केंद्रों से झीलों व तालाबों में पानी आता है और ये सब आपस में जुड़े हुए हैं। लेकिन अब जब जलवायु परिवर्तन के कारण मूसलाधार बारिश हुई, तब पानी को कहीं भागने की जगह नहीं मिली और ऐसे में बाढ़ और तबाही का आना निश्चित है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)


http://www.livehindustan.com/news/lifestyle/guestcolumn/article1-Jammu-and-Kashmir-60-years-most-terrible-floods-curse-50-62-450583.html


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