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न्यूज क्लिपिंग्स् | महिला विकास की बातें हैं, बातों का क्या! - मृणाल पांडे

महिला विकास की बातें हैं, बातों का क्या! - मृणाल पांडे

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published Published on Mar 1, 2018   modified Modified on Mar 1, 2018
इस समय जब वसंत अलविदा ले रहा है और एक नया संवत्सर दहलीज पर खडा है, वाक्वीर सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने सरकार के सालाना आर्थिक सर्वेक्षण मसौदे को पहली बार एक गुलाबी जिल्द में प्रस्तुत किया। पर यह गौरतलब है कि उस मसौदे के अनुसार भारत की अपेक्षित कुल आबादी में से 6 करोड़ तीस लाख महिलाएं गायब हैं। इस गैरहाजिरी की जो मोटी वजह प्राप्त आंकड़ों से मिल रही है, वह यह कि महिला-बच्चियों के प्रति विषमता मिटाने में तमाम कानूनी सुधार और आकर्षक सरकारी स्कीमें व सबसिडियां भी भारतीय समाज के भीतर छुपी उस खामोश कायरता को मिटाने में विफल हैं, जो घर से बाजार तक पुरुष आधिपत्य की पक्षधर और गहरी पुत्रकामना से ग्रस्त है। पुरुष को हर सकारात्मक गुण का अंतिम प्रमाण और पुत्र को कुलदीपक मानने की मानसिकता की वजह से कन्याशिशु को संपन्न्तम राज्यों में भी निरक्षर या साक्षर परिवार एक अनचाहा बोझ मानते हैं और अगर वह अभागी किसी तरह जनम गई, तो भी उसे वंचित-उपेक्षित जीव का दर्जा मिलता है जो भाई की तुलना में एक अनचाही संतति ही है। कोख में कन्या भ्रूण की अवैध हत्या और जन्म के बाद लगातार पोषाहार और स्वास्थ्य के क्षेत्र में गहरी उपेक्षा शहर, गांव हर कहीं हो रही है और लड़कियों की तादाद लगातार बेटों की तुलना में घट रही है। इससे देश की समग्र आबादी में पुरुषों और महिलाओं के बीच आबादी का संतुलन बुरी तरह गड़बड़ा गया है। कई राज्यों में बहुएं खोजे नहीं मिल रहीं और सामूहिक बलात्कार तथा लड़कियों को जबरन अगवा करने की घटनाएं हर राज्य में बढ़ रही हैं। आने वाले समय में देश को इस विसंगति की और भी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
 

आज से कोई दो दशक पहले ही जाने-माने अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने भारतीय उपमहाद्वीप में महिलाओं की लगातार और चिंताजनक तौर से घटती आबादी के बारे में चेतावनी दे दी थी। पर मौजूदा सरकार ने उनसे विमर्श करने के बजाय महिलाओं के बारे में सकारात्मक चिंतन से जुड़े रहे इस ख्यातनाम बुद्धिजीवी को नालंदा विवि के शीर्ष मानद पद से भी चुपचाप हटा दिया। आज विश्व स्वास्थ्य और महिला विकास पर संयुक्त राष्ट्र की इकाइयों द्वारा किए गए सर्वे में भारत के गुजरात, तमिलनाडु और महाराष्ट्र सरीखे नवसमृद्ध या केरल और असम सरीखे प्राचीन मातृसत्ताक परंपरा वाले राज्यों के समाज में लड़कियों की तादाद में चिंताजनक गिरावट दर्ज हो रही है। और कई सामाजिक, शैक्षिक विकास की सीढ़ियों में भारत का नीचे सरकना हमारे राज-समाज की प्रतिगामी सोच व विकास की कथित प्राथमिकताओं के बाबत कई तीखे सवाल दुनिया में पैदा कर रहा है।

 

 

हमारा अपना राज-समाज और महिला सशक्तीकरण का ब्लूप्रिंट बनाने वाली सरकारी संस्थाएं और संगठन खुद सरकार के ताजा सर्वेक्षण की स्थापना से क्या कोई सबक लेंगे, यह अभी देखा जाना है। किंतु सर्वेक्षण में संतति के जन्म के क्रम की पारिवारिक जांच से यह साफ जाहिर होता है कि आज हमारे देश में 25 साल से कम उम्र की कम से कम 2 करोड़ दस लाख युवतियां ऐसी हैं, जिनका जन्म परिवार में इस बार शायद बेटा हो, की कामना के तहत यानी माता-पिता के अनचाहे हुआ है। जन्मना उन पर अवांछित होने का धब्बा लगने से उनकी परवरिश भी मन मारकर ही की जाती है। इससे अधिकतर लड़कियां रक्ताल्पता और कमजोर हड्डियों के साथ जवान हो रही हैं। इसका प्रसूतिकालीन मातृमृत्यु से सीधा नाता है।

 

 

जहां तक युवा पीढ़ी की सोच की बात है, वहां भी लड़कियों को लेकर अक्सर प्रतिगामी सोच नजर आती है, जबकि यह उम्र वीर बनकर सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ खड़े होने की मानी जाती है। सभी राज्यों के युवा वर्ग में खूब सारा पैसा जल्द कमा लेने की अदूरदर्शी कामना तो बढ़ी पाई गई है, लेकिन बेटों में दहेज की हवस, खुद को परिवार का इंजन समझना और महिला पर हाथ उठाना अभी भी दर्ज हो रहा है। पोषाहार से शिक्षा और संपत्ति के बंटवारे से स्वास्थ्य तक हर कहीं बेटों को बेटियों पर तरजीह दी जा रही हो तो इस मानसिकता से चकित नहीं होना चाहिए। ऊपरखाने भारत को माता कहलवाने, बेटी पढ़ाओ और नार्यस्तु यत्र पूजयंते, रमंते तत्र देवता के नारे लगाने वाले वीर जत्थों की सामाजिक सोच कैसी है, यह 'पद्मावत फिल्म में जौहर पर आए बयानों से साफ जाहिर है।

 

आज जब विश्व पर्यावरण के छीजने से सूखा, बाढ़ और तूफान बढ़ते जा रहे हैं, भारतीय समाज में मर्द और औरत के बीच सच्ची सहभागिता नदारद दिखती है। रोजगार कम होने से असंगठित क्षेत्र में औरतों-मर्दों के बीच काम की स्पर्द्धा लगातार बढ़ रही है। पर सरकारी मदद के फल औसतन संकोची और कम शिक्षित महिलाओं से पहले पुरुषों की झोली में पड़ रहे हैं। किताबी स्तर पर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ और महिला सशक्तीकरण पर जोश से लिखने-बोलने और भरपूर सरकारी इमदाद पाने वाले अखबारों, चैनलों या स्वैच्छिक संगठनों की देश में कोई कमी नहीं, लेकिन कभी निजी अहं, कभी सांगठनिक स्पर्द्धा या राजनीतिक विचारधारा में भिन्न्ता की वजह से वे भी उस तरह के व्यापक जनाधार नहीं बना सके हैं, जो समाज को पुरानी सोच से बाहर लाकर आम महिला को राहत दिलाने में कारगर हों।

 

 

मीडिया में इस बात पर सरकार को काफी वाहवाही मिली है (खुद अपनी पीठ भी उसने कीमती विज्ञापनों में कम नहीं थपथपाई है) कि देश की विकास दर दुनिया की मंदी के बाद भी उतनी कम नहीं हुई है, जितनी अन्य उन्न्त देशों में है। पर वहां जीवन के जरूरी संसाधनों का बुनियादी वितरण उतना विषमता भरा नहीं है। हमारे यहां अमीरी के लक्षण : आलीशान इमारतें, कारों, दुपहिया वाहनों की बढ़ती तादाद, ब्रांडेड माल से पटे उपभोक्ता बाजार, फास्ट फूड और आयातित खाद्य पदार्थों की बढ़ती बिक्री, आज हर राज्य में हैं। पर संक्रामक रोग भी बढ़ रहे हैं और अस्पतालों का निजीकरण होने से गरीबों के लिए सस्ती सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं कम हो रही हैं। जिसका सीधा असर उपेक्षित महिला जमात पर पड़ रहा है।

 

 

कुछ साल पहले एक बड़ी अर्थवेत्ता ने लिखा कि गर्भ लिंग परीक्षण में हर्ज नहीं, अवांछित संतान नहीं होगी तो आबादी कम हो जाएगी। दूसरे महानुभाव, एक बड़े संपन्न् राज्य के मुख्यमंत्री के घर तीन पोतियों के बाद पोता हुआ तो स्थानीय अखबारों में उनके लिए दिए गए बधाई विज्ञापनों की झड़ी लग गई। एक अन्य मुख्यमंत्री ने खुद इस लेखिका से कहा कि हर बाप के पास एक बेटा ही नहीं कम से कम दो बेटे होना जरूरी है, ताकि एक खोटा निकल भी गया तो दूसरा काम आ जाएगा। यह स्वस्थ और स्वागतयोग्य है कि पहली बार हमारे आर्थिक सर्वेक्षण ने सरकारी तौर से महिला विकास की इन भीतरी सच्चाइयों और दुखती रगों को उजागर किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब सरकार खुद अपने शीर्ष आर्थिक सलाहकारों की बात को गौर से गुनकर महिलाओं को सीधे आर्थिक विकास से जोड़कर देखेगी।

 

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं)


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