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न्यूज क्लिपिंग्स् | समतामूलक रहा है मुंडा समाज-- डॉ खातिर हेमरोम /रेमिस कंडुलना

समतामूलक रहा है मुंडा समाज-- डॉ खातिर हेमरोम /रेमिस कंडुलना

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published Published on Dec 15, 2017   modified Modified on Dec 15, 2017
मुंडा जितनी प्राचीन जाति है, उतना ही उसका इतिहास भी प्राचीन है. किंतु इसके इतिहास को गौण कर दिया गया है. भारत में इसका पुख्ता प्रमाण प्राचीन भारतीय सभ्यताओं के खुदाई के अवशेषों में मिलते हैं. पाषाण कालीन सभ्यता की संस्कृति मुंडाओं के कुल पुरखों की है. इनके पुरखों की याद में एवं उनके श्रद्धा सम्मान में पूर्वजों की आत्मा को सुरक्षित रखते हुए वर्तमान तक ससनदिरि में रखकर संस्कार को पूरा किया जाता है.


इसका सबसे बड़ा प्रमाण बुंडु के सोनाहातु प्रखंड के चोकअ: हातु में देखा जा सकता है, जहां बड़़ी संख्या में ससनदिरि मौजूद है. मुंडा जाति का मुख्य निवास स्थान झारखंड है. इसके अलावा वह ओड़िशा के उत्तरी भाग और पश्चिम बंगाल के मिदनापुर, बांकुड़ा, पुरुलिया और छत्तीसगढ़ के सरगुजा, जशपुर और कोरिया आदि स्थानों में निवास करते हैं.


असम के चाय बागानों में इनकी संख्या बहुतायत में है. भारत के अलावा मुंडा भाषा के समतुल्य बोलनेवाले लोग बांगलादेश, बर्मा मेडागास्कर, इंडोनेशिया, मलेशिया, मॉरिशस और भारत के अंडमान निकोबार द्वीप समूह आदि में हैं. इसका प्रमाण इन देश के आदिवासियों के रीति-रिवाज और संस्कृतियों में देखने को मिलता है. भौगोलिक दृष्टिकोण से मुंडा समुदाय ऑस्ट्रो एशियाटिक भाषा परिवार से संबंध रखती है. मुंडा भाषा को चार भागों में विभक्त कर सकते हैं- 1 : हसादअ:, 2 : नागुरी , 3 : केरअ: और 4 : तमाड़िया. उच्चारण के हिसाब से बंगला और ओड़िया बोली का मिश्रण तमाड़िया मुंडारी में पाया जाता है.


‘लिंगविस्टिक लैंडस्केपिंग इन इंडिया ' पुस्तक में मुंडा और मुंडारी को दो भागों में विभक्त कर दिखाया गया है, परंतु दोनों भिन्न नहीं हैं, बल्कि मुंडाओं की भाषा मुंडारी है. कृषि मुंडाओं का मुख्य आधार है. मुंडाओं की अपनी पड़हा व्यवस्था व धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन शैली है.


किसी समाज, राष्ट्र या समुदाय के जीने का ढंग और तौर-तरीका उनके सोच-विचार, चिंतन, दर्शन आदि कुल मिलाकर संस्कृति की संरचना करते हैं. यही सांस्कृतिक जीवन की धारा उस समाज के अस्तित्व को बनाये रखते हैं. मुंडा संस्कृति के निर्माण के संबंध में हजारों वर्षो का अनुभव संचित है. मुंडाओं का जन जीवन प्राकृतिक परिवेश - जंगल-पहाड़ पर्वत तथा नदी-घाटी, झरनों - को स्पर्श करते हुए चलता है. मुंडा गांव-टोले इन्हीं के मध्य में बसते हैं. जंगली जानवरों के बीच जीवन-यापन ऐसे बीहड़ भूखंड में कितना संघर्षमय रहा होगा? मुंडाओं का धार्मिक जीवन प्राकृतिक शक्तियों पर मूलत: केंद्रित है.


मुंडा अपने पूजास्थल को ‘सरना' कहते हैं. जिस स्थल पर पूजा-पाठ सिङबोंगा के लिए किया जाता है, उस स्थल को ‘जयर' कहा जाता है. जयर का अर्थ ‘पवित्र'.मुंडाओं के समतामूलक होने का सबसे बड़ा उदाहरण है कि वे शिकार के पश्चात मिलनेवाले शिकार के हिस्से में कुत्ते तक को हिस्सा देते हैं. कठिन कार्यों को सहजता से निर्वाहन करने के लिए इनके बीच में मदाईत की पारंपरिक व्यवस्था है. मदाईत के माध्यम से प्राय: काम किये जाते हैं.जैसे- खेत टांड़ जोतना, आढ़ बनाना, बांध बांधना, छप्पर छारना, धनरोपनी, बरसात के पूर्व जंगल से लकड़ी संग्रह करना, धान काटना, दलहन उखाड़ना, आदि. किसी-किसी गांव में अभी भी बच्चों को मदाईत के माध्यम से पढ़ाया जाता है, इसके लिए मूल्य नहीं दिया जाता है. हर कोई एक दूसरे पर आश्रित है. एक के बिना दूसरे का कार्य संचालित नहीं होता. इस तरह से मुंडाओं में बराबरी का भाव सदैव बना रहता है.


मुंडाओं के पर्व त्योहार प्राकृतिक उत्पादनों से जुड़े हैं. मौसम के अनुकूल व जलवायु के हिसाब से ही खेतीबारी की जाती है. इनका पर्व-त्योहार इन्हीं से जुड़ा हुआ है. जैसे: माघ-पूस में मागे परब, फरवरी-मार्च के मध्य में बाहा परब, जेठ-बैशाख में जेठ जतरा धूमधाम से मनाया जाता है. वर्षा ऋतु आते ही बहा-बतौली परब एवं करम नृत्य से सारे गांव के अखड़ों में मांदर-ढोल की आवाजें आने लगती हैं. जब फसल तैयार हो जाते हैं, तब नवा खानी परब मनाया जाता है.
खेतीबारी के कार्य में मदद देनेवाले पशुओं का परब सोहराई मनाया जाता है, साथ ही साथ दसंई और इंद जतरा मनाने का रिवाज है. मुंडा पर्यावरण के ख्याल से ही नहीं, अपितु समाज में होनेवाले बीमारियों की मुक्ति के लिए जंगल की जड़ी-बूटियों पर निर्भर रहते हैं. गांव के अखड़े प्राय: इमली, कटहल, आम एवं बड़े पेड़ के छांव तले होते हैं. अखड़ा में सभी नाचते गाते और आनंद मनाते हैं.राज्य भाषा का दर्जा ना मिलने से मुंडारी भाषा, संस्कृति, साहित्य खतरे में पड़ती जा रही है.


समतामूलक मुंडा समाज बिखरता जा रहा है. मदाईत की संस्कृति कमजोर हो रही है. ऋण-पैंचा, उधार की संस्कृति सूदखोरी में बदलती जा रही है. आडंबरहीन जीवन भोगवाद में बदल रहा है. श्रमशील मुंडा समाज नशे के गर्त्त में समा रहा है. गीत-संगीत का स्वरूप बदल रहा है.


सांस्कृतिक लोक गीतों के जगह में अश्लील गीतों का भरमार हो रहा है. मुंडा कुल की बहादुर नारी, पुरुषों की परम सहयोगिनी थी, प्रेरक थी, शक्तिस्वरूप थी, आज वह बड़े नगरों में पलायन करने को मजबूर है. ऐसी विकट परिस्थिति में, विकृत हो रहे संस्कृति से बचाना प्रत्येक मुंडा जन का परम कर्त्तव्य और दायित्व बनता है. सांस्कृतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक जीवन को अक्षुण्ण बनाये रखने की जरूरत है.
(लेखकद्वय संत जेवियर्स कॉलेज, ट्राइबल रिसर्च सेटर, रांची से संबद्ध हैं)


https://www.prabhatkhabar.com/news/vishesh-aalekh/story/1098692.html


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