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न्यूज क्लिपिंग्स् | स्त्री-पुरुष भिन्न हैं, विपरीत नहीं- सुजाता

स्त्री-पुरुष भिन्न हैं, विपरीत नहीं- सुजाता

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published Published on Apr 27, 2016   modified Modified on Apr 27, 2016
और एक दिन हमने पाया कि दुनिया दो टोलों में बंट गयी है. फिल्म पीके की भाषा में कहें, तो एक हमारा गोला और एक तुम्हारा गोला. हम अपने-अपने टोले में कहीं खड़े एक-दूसरे की तरफ हाथ बढ़ाते हैं, लेकिन यहां आकर दो लोगों के बीच की दूरी दुनिया की सबसे लंबी और सबसे देर में तय की जानेवाली दूरी हो जाती है. ये दो टोले थे स्त्री और पुरुष के. आदि काल से स्त्री-पुरुष के बीच यह शांति-सद्भावपूर्ण आदिम बंटवारा हुआ, जिसमें श्रम बंटा, कर्तव्य और अधिकार बंटे, लाभ-हानि बंटी, स्पेस बंटी और वक्त भी बंट गया. 

यह सदियों से गुजरता हुआ हमारे वक्त तक चला आया. हम गांव में निकले तो चौपाल और घर की चौकी बंटी मिली. राम-लीला देखने बैठे, तो दर्शक-दीर्घा भी जनाना-मर्दाना में बंट गयी. स्कूल गये तो स्त्रीलिंग-पुलिंग ‘विपरीत' हो गये, विपरीत-लिंगी से दोस्ती रूई और आग का संबंध मानी गयी. ‘जॉन ग्रे' की किताब ‘मेन आर फ्रॉम मार्स वीमेन आर फ्रॉम वीनस' दुनिया की नंबर वन बेस्ट सेलर हो गयी. 

दुनिया दो ध्रुवों में बंटी दिखने लगी. एक स्त्रैण और एक परुष. इन दो ध्रुवों के बीच इतनी समस्याएं थीं कि सारा शास्त्र और समाज इस वैपरीत्य से निबटने और इनके बीच समझौते की एक शांति शिला को खोजने में व्यस्त हो गया. जवाब जेंडर बनाने में मिला. दोनों के अलग-अलग रोल तय किये गये. शास्त्रों में जम कर विचार किया गया. फैसला हुआ कि स्त्री-पुरुष एक दूसरे के ‘विपरीत' हैं और उनके व्यवहार भी विपरीत ही होंगे. एक बात-बात पर रोता है, तो दूसरा आंसू दिखाने में हेठी महसूस करता है. 

एक के लिए क्रोध और वीरता स्वाभाविक गुण हुआ और एक के लिए त्याग, भीरुता और अबोधता मूल्य हुई. जिन्होंने बाहर की दुनिया को घेरा और उत्पादन के साधनों पर मालिकाना हक पाया, वे नियंता हो गये और जो देहरी के भीतर सिमट गये वे शासित. 
भाषा ने भी खूब साथ निभाया. स्कूल में ही ऑपोजिट जेंडर सिखाये जाने लगे. शक्ति का एक, सिर्फ एक ही विशेष अर्थ हुआ- पौरुष! इस लिहाज से स्त्री ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी...' हो गयी. शक्ति के इस अर्थ-संकुचन पर सदियों कोई सवाल नहीं उठा. एक दिन था तो एक रात. एक धूप तो एक छांव. स्त्री में स्त्रियोचित और पुरुष में पुरुषोचित लक्षण इस कदर कट्टर हो गये कि जरा-सा हेर-फेर होने से वह हास्यास्पद हो गया या घृणा और त्याग के योग्य हो गया.

जेंडर छवियां रूढ़ हो गयीं. स्टीरियोटाइप. स्त्रैण और परुष गुणों का दोनों लिंगों में अदला-बदली का संभव होना जहां स्वभाव और जन्म से संभव था, उसे सामाजिकता ने असंभव कर दिया. स्त्री में क्रोध और कामेच्छा निंदनीय-दंडनीय हुई, तो पुरुषों में भावनात्मकता और कोमलता. सभ्यताएं तरक्की की राह चलीं, तो पता लगा कि जिन्हें साथी होना था, वे तो हर मुद्दे पर एक-दूसरे के आमने-सामने युद्ध-भूमि में खड़े दिखाई देने लगे. 

यह बात लैंगिक-द्वित्व और उनके वैपरीत्य पर ही आकर खत्म नहीं होती. सभी जेंडरों के बीच एक ही जेंडर के गुण इतने सर्वश्रेष्ठ मान लिये गये कि अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए बाकियों को उन्हीं के पैमानों पर खरा उतरना जरूरी हो गया. याद की जा सकती है लड़कियों के हॉकी खेलने पर बनी फिल्म ‘चक दे इंडिया' को. 

अपनी योग्यता और प्रतिभा सिद्ध करने के लिए जरूरी था कि लड़कियां लड़कों की टीम से खेलें और ‘उन्हें' हरा कर दिखायें. कलाओं और साहित्य में स्त्रियां प्रवीण हों, तो कहा जाता है कि वे विज्ञान और अविष्कार के क्षेत्र में आयेंगी, युद्धभूमि में पुरुषों की तरह लड़ कर दिखायेंगी, तब हम मानेंगे कि यह बराबरी है और यह असल स्त्रीवाद है. 

उसके बाद इस बात का विशिष्ट उल्लेख किया जायेगा कि बहुत अच्छी वैज्ञानिक होने या लोकसभा स्पीकर जैसे महत्वपूर्ण पद पर होने के बावजूद फलां महिला एकदम घरेलू हैं.

कुल मिला कर, जैसे हम बचपन से बच्चियों को औरत बनाने में जुटे होते हैं और लड़कों को मर्द, बेटे को गुड़िया पकड़ाते हैं और एक को कार या धनुष- गदा. यह एक ऐसा तरीका है सामाजीकरण का, जिसमें लड़का-लड़की एक-दूसरे के साथी बन कर नहीं, बल्कि एक-दूसरे की राह के अवरोधक बन कर बड़े होते हैं. इस पूरी प्रक्रिया को सिर्फ समाज का ही समर्थन नहीं मिला, बल्कि कानूनी समर्थन भी मिलता रहा है.

बाजार ने अपनी तरह से इसका फायदा उठाया. फिल्मों आैर टीवी ने अपने-अपने तरीके से इसका समर्थन किया.
विपरीत-लिंगी की पूरी अवधारणा दरअसल दोषपूर्ण है. पहला तो यही कि स्त्री और पुरुष विपरीत नहीं हैं. स्त्रैण, परुष का विपरीत नहीं है. दुनिया में दो ही जेंडर मानने का कोई वैज्ञानिक आधार है ही नहीं. जेंडर एक पूरी तरह सामाजिक-सांस्कृतिक निर्मिति है, जैविक नहीं. 

हम जन्म लेते हैं और हमें वक्त के साथ-साथ यह सिखा दिया जाता है कि जिस लिंग में हमने जन्म लिया है, उसे मंच पर क्या भूमिका अदा करनी है, उसके कॉस्ट्यूम क्या होंगे और उसके संवाद क्या होंगे. स्त्री की गुलामी को बनाये रखने के लिए जेंडर-भूमिका तय किया जाना बेहद जरूरी था. जबकि स्त्री एक विशेष अंग (गर्भाशय) की वजह से खाना बनाने में प्रवीण नहीं होती. न कपड़े धोने, घर सजाने में. फिर भी उसकी भूमिका को वहीं तक सीमित कर दिया गया. ये सीमाएं टूटेंगी, जब भिन्नता को ऊंच-नीच का पैमाना नहीं बनाया जायेगा. और तब हम बराबरी की ओर बढ़ेंगे. 

स्त्री-पुरुष जेंडर के अलावा बाकी लैंगिक अस्मिताओं को अप्राकृतिक मान लिया गया. यहां इस अवधारणा का दूसरा दोष शुरू होता है. 
जब हम लैंगिक-द्वित्व में समाज को बांटते हैं, तो कितनी सारी भिन्न लैंगिक अस्मिताएं हमारी व्यवस्था से बाहर हो जाती हैं, हमारी नजरों से दूर एक अदृश्य दुनिया में और अमानवीय तरीकों से जीने को विवश. तृतीय जेंडर का दर्जा अब जाकर पाया जा सका है. समलैंगिकों का संघर्ष शुरू हो चुका है. अदालतें भिन्न लैंगिक-अस्मिताओं के अस्तित्व को स्वीकारने लगी हैं. न स्त्री अपूर्ण पुरुष है (अरस्तू). न अन्य जेंडर अप्राकृतिक. बराबरी के लिए जरूरी है भिन्नताओं का सम्मान. स्त्री-पुरुष भिन्न हैं, विपरीत नहीं.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/790992.html


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