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न्यूज क्लिपिंग्स् | हम अंतिम दिनों वाले गांधी को याद करने से क्यों डरते हैं?

हम अंतिम दिनों वाले गांधी को याद करने से क्यों डरते हैं?

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published Published on Jan 31, 2020   modified Modified on Jan 31, 2020
-सत्याग्रह

30 जनवरी को गांधी की शहादत का दिन कहा जाता है. बेहतर इसे गांधी की हत्या का दिन ही कहा जाना होता. लेकिन शायद हत्या को नकारात्मक और शहादत को सकारात्मक मानकर ही दूसरे शब्द को कबूल किया गया होगा. हत्या रहने से याद बनी रहती कि गांधी का क़त्ल आखिर किसी ने, किसी की ओर से, किसी वजह से किया होगा. शहादत कहते ही हम इन प्रश्नों पर विचार करने से खुद को मुक्त कर लेते हैं. उस दिन को हम एक गौरव प्रदान कर देते हैं और उस दिन के अपराधी चरित्र को नज़र से दूर कर देते हैं.

बेहतर होता कि अपने आख़िरी जन्मदिन के एक दिन बाद हरिजन अखबार में उन्होंने जो कविता छापी थी, उसका पाठ हर 30 जनवरी को किया जाता

दिल्ली में राजकीय गांधी-स्मरण राजघाट पर होता है. समारोहपूर्वक देश के राज्याध्यक्ष, राष्ट्रपति, कार्यकारी प्रमुख, प्रधानमंत्री, सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों की उपस्थिति में रामधुन गाई जाती है. बेहतर होता कि अपने आख़िरी जन्मदिन के एक दिन बाद हरिजन अखबार में उन्होंने जो कविता छापी थी, उसका पाठ हर 30 जनवरी को किया जाता. गांधी के जीवनीकार दीनानाथ गोपाल तेंदुलकर ने इसे उद्धृत किया है. ‘उपयुक्त पंक्तियां’ शीर्षक से गांधी ने ये पंक्तियां 3 अक्टूबर को प्रकाशित कीं:


ये मेरी जंजीरें हैं जिनके सहारे मैं उड़ सकता हूं; ये मेरे शोक हैं जिनके सहारे मैं तैर सकता हूं; ये मेरी पराजय हैं जिनके सहारे मैं दौड़ सकता हूं; ये मेरे आंसू हैं जिनके सहारे मैं सफ़र कर सकता हूं; यह मेरा सलीब है जिसके सहारे मैं इंसानियत के दिल तक चढ़ सकता हूं; मुझे मेरा सलीब बड़ा करने दे, ऐ खुदा!

ताज्जुब नहीं कि गांधी की हत्या पर बात करते वक्त इन पंक्तियों को कतई याद नहीं किया जाता. वरना हम उनके आख़िरी दिनों को कुछ और विस्तार से जानने की कोशिश करते. दिलचस्प है कि इन पंक्तियों में चलने का, आगे बढ़ने का ही चित्र है लेकिन वह चलना उन सबके सहारे है जो दरअसल चलने में रुकावटें हैं. ज़ंजीर, शोक, पराजय, आंसू, सलीब: सभी गति को बाधित करते हैं. लेकिन गांधी उसी बाधा को अपना पाथेय बना लेने की शक्ति की प्रार्थना करते हैं.

उन सबकी इस संकीर्ण घृणा के बावजूद मानवता या इंसानियत की कल्पना में विश्वास कैसे छोड़ देते गांधी? इसीलिए वे ईश्वर से अपने सलीब को और बड़ा करने का अनुरोध करते हैं.

गांधी अंत में पराजित अनुभव कर रहे थे, घृणा और हिंसा से. जिन्हें वे अपने लोग मानते थे, वे उन्हें निराश कर रहे थे. लेकिन उन सबकी इस संकीर्ण घृणा के बावजूद मानवता या इंसानियत की कल्पना में विश्वास कैसे छोड़ देते गांधी? इसीलिए वे अपने सलीब को और बड़ा करने का अनुरोध ईश्वर से करते हैं.

गांधी अपना जो चित्र इन पंक्तियों के माध्यम से गढ़ रहे हैं, उसपर गौर कीजिए: यह एक ग़मज़दा, पा-बजौलां (जंजीरों में जकड़े) और अपना सलीब बड़ा और बड़ा करके उसे ढोते हुए गांधी की तस्वीर है.
 
पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 

अपूर्वानंद, https://satyagrah.scroll.in/article/27989/why-are-we-scared-of-remembering-gandhi-in-his-last-days


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