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न्यूज क्लिपिंग्स् | 21वीं सदी में गांव की उम्मीद की डोर

21वीं सदी में गांव की उम्मीद की डोर

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published Published on Apr 15, 2014   modified Modified on Apr 15, 2014
रांची जिले के बुढ़मू में मनरेगा की एक योजना के तहत कुआं निर्माण का कार्य करती युवतियां इस बात का प्रमाण हैं कि 21वीं सदी में गांव को ऐसे कानून व कार्यक्रम मिले हैं, जिनसे उनका पलायन रुके व उन्हें घर पर ही रोजी-रोटी मिले. इस तरह के और भी कई कार्यक्रम व कानून हैं, जिससे गांवों की सूरत पिछली सदी की तुलना में काफी बदल गयी है. हालांकि इनके कार्यान्वयन में पारदर्शिता का अभाव खलता है.

20वीं सदी के आखिरी दशक के गांवों व 21वीं सदी के आरंभ के भारतीय गांवों में काफी अंतर है. 20वीं सदी के गांव कृषि अर्थव्यवस्था पर पूर्ण रूप से आश्रित थे. लोगों के पास कृषि कार्य या कृषि मजदूर बनने के सिवा दूसरे रोजगार के बहुत कम विकल्प थे. 21 सदी के गांव रोजगार गारंटी कानून व सूचना के अधिकार कानून से लैस हैं. प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं से भी गांव की अर्थव्यवस्था शहर से जुड़ी है. बड़े पैमाने पर आधारभूत संरचना का काम होने से रोजगार के भी साधन बढ़े-बने हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य व आजीविका में बड़े बदलाव आये हैं.

21 सदी में शिक्षा का अधिकार, वनाधिकार कानून व खाद्य सुरक्षा कानून, भूमि अधिग्रहण कानून भी बने. भूमि अधिग्रहण व खाद्य सुरक्षा कानून बिल्कुल हाल में बना है, इसलिए अबतक इसका असर नहीं दिखा है. शिक्षा का अधिकार कानून बहुत प्रभावी नहीं दिख रहा. वनाधिकार कानून का भी झारखंड को पूरा नहीं आंशिक लाभ ही हुआ है.

मनरेगा से आवाज भी मिली, रोजगार भी मिला
झारखंड के सुदूरवर्ती जिले गढ़वा के रामजी भुइयां मनरेगा श्रमिक हैं और मजूदरों के नेता भी. वे तकरीबन 100 मनरेगा श्रमिकों का नेतृत्व करते हैं, जिनके हितों से जुड़े  सवाल पर प्रखंड कार्यालय में सुनवाई नहीं होने पर उन्हें जिला प्रशासन के पास पहुंचने में देर नहीं लगती. गढ़वा की तिसार तेतुका पंचायत के कोलोदार गांव के निवासी रामजी ठेकेदारों व बिचौलियों से भी मनरेगा श्रमिकों के हितों की रक्षा करते हैं. 21वीं सदी में देश को मिले महात्मा गांधी रोजगार गारंटी कानून(मनरेगा) ने न सिर्फ गांव को रोजगार का अवसर  दिया, बल्कि श्रमिकों के स्वर को भी मुखर किया. गिरिडीह जिले के जमुआ प्रखंड की धुरेता पंचायत के बल्लेडीह गांव की मधु भारती भी इस सच का उदाहरण हैं. वे  बताती हैं कि कैसे उन्होंने अपने गांव में बीडीओ को योजनाओं में मनमानी नहीं करने दी और उनके गांव में तालाब बन जाने से गेहूं की खेती होने लगी है. पहले गांव में सिर्फ धान की खेती होती थी. सरकारी दावे के अनुसार, राज्य में मनरेगा से 75 हजार कुएं खुदे हैं. हालांकि मनरेगा कार्यकर्ता जेम्स हेरंज का दावा है कि इनमें से 60 हजार कुएं ही कार्यशील स्थिति में  होंगे. अगर राज्य के 30 हजार गांवों पर इसका औसत निकालेंगे, तो यह औसत प्रति गांव दो कुआं ठहरता है. यह स्थिति तब है, जब राज्य मनरेगा के बजट का सही ढंग से उपयोग नहीं कर पाता है और उसमें लगातार कमी दर्ज की गयी है. अगर बजट का कहीं बेहतर उपयोग हुआ होता तो आप उससे संवरे गांव के दृश्य की कल्पना कर सकते हैं. मनरेगा से झारखंड में तालाब भी खुदे, भूमि का समतलीकरण भी हुआ और मोरम-मिट्टी के पथ भी बने हैं.

संघर्ष का हथियार बना आरटीआइ
मनरेगा के साथ 2005 में बना सूचना का अधिकार कानून गांव के लिए प्रभावी हथियार बन गया है. पूर्वी सिंहभूम जिले की पंचायत समिति सदस्य हेमंती मुदी आरटीआइ के जरिये अपनी पंचायत की योजनाओं की गड़बड़ियों को उजागर करती हैं और उसे दुरुस्त करने की मांग अधिकारियों-कर्मचारियों तक रखती हैं. झारखंड में ऐसे लोगों की काफी लंबी फेहरिस्त है. पिछली सदी में यह दृश्य दुर्लभ थे. पूर्वी सिंहभूम जिले के ही पोटका के दिनेश महतो जैसे आरटीआइ कार्यकर्ता ने आरटीआइ के जरिये अपने प्रखंड व जिले के कई घोटालों का खुलासा किया और दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई भी हुई.

वनाधिकार कानून का असर
वनाधिकार कानून झारखंड में अबतक बहुत प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो सका है. अस्थिर व कमजोर इच्छाशक्ति वाली सरकार व सुस्त नौकरशाही इसका कारण है. फिर भी अबतक राज्य में 16 हजार लोगों को 37 हजार एकड़ जमीन का व्यक्तिगत पट्टा दिया गया है. झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन से जुड़े जेवियर कुजूर कहते हैं कि इस कानून का लाभ हुआ है, लेकिन यह लाभ 20 प्रतिशत ही है. कर्नाटक व महाराष्ट्र जैसे राज्य में इसका अधिक लाभ हुआ है. वे कहते हैं कि हमलोगों के निरंतर अभियान के कारण लोगों को व्यक्तिगत वन पट्टे ही मिले हैं. गिरिडीह में सर्वाधिक 3300 लोगों को व उसके बाद पश्चिमी सिंहभूम में 2500 लोगों को वन पट्टे दिये गये हैं. बाकी जिलों में 500 - 700 की संख्या में लोगों को वन पट्टे दिये गये हैं. हालांकि वन पट्टे में दी गयी भूमि का नक्शा व प्लॉट नंबर नहीं होने के कारण लोगों को काफी दिक्कतें आ रही हैं.

झारखंड में ग्रामीणों को वनोपज के संग्रह का उसका उपयोग का अधिकार नहीं मिला है. समुदाय को वन प्रबंधन व संरक्षण का अधिकार नहीं दिया गया है. जेवियर कहते हैं कि इस कानून को लागू करने में एक समस्या यह है कि वन विभाग जंगल पर से अपने अधिकार को नहीं छोड़ना चाहता है. जो दावे किये गये उसका निबटारा नहीं हुआ. भूमि की बंदोबस्ती नहीं हुई. जेवियर कुजूर कहते हैं कि दरअसल पूर्ण रूप से इस कानून को लागू कर देने के बाद बड़ी कंपनियों का व्यावसायिक हित पूरा नहीं हो पायेगा. उन्हें उस भूमि पर किसी काम की अनुमति प्राप्त करने के लिए ग्रामसभा के पास जाना होगा.

हालांकि वनक्षेत्र में रहने वाले लोग वनाधिकार कानून को जान गये हैं. वनाधिकारी संबधी संगठनों की सक्रियता के कारण भी अब वन विभाग वाले वन कानून की आड़ में लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने से डरते हैं. लोगों के खिलाफ इस तरह के मुकदमों में कमी आयी है. हालांकि अब भी राज्य में वन को क्षति पहुंचाने व उसके अतिक्रमण के 10 हजार से ज्यादा मामले दर्ज हैं. तीन हजार मामले वन भूमि अतिक्रमण के दर्ज हैं.


http://www.prabhatkhabar.com/news/106187-story.html


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