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न्यूज क्लिपिंग्स् | गरीबी, भूख और लॉकडाउन

गरीबी, भूख और लॉकडाउन

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published Published on May 26, 2021   modified Modified on May 26, 2021

-न्यूजक्लिक,

नरेंद्र मोदी ने, 24 मार्च 2020 को एलान किया था कि चार घंटे के बाद से, देश भर में पूर्ण लॉकडाउन लागू हो जाएगा! यह देशव्यापी लॉकडाउन मई के आखिर तक चलने जा रहा था। इसके बाद भी स्थानीय लॉकडाउन तो बने रहे पर, देशव्यापी आम लॉकडाउन नहीं हुआ। लॉकडाउन से करोड़ों मेहतनकश गरीबों को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इनमें से प्रवासी मजदूूरों की तकलीफों की तरफ तो सारी दुनिया का ध्यान भी खिंचा। भारत में लागू किए गए इस लॉकडाउन की खासियत यह थी कि दुनिया भर में करीब-करीब बाकी हर जगह पर, यहां तक कि ट्रम्प के राज में अमरीका तक में जो किया गया था उसके विपरीत, भारत में लॉकडाउन के चलते अपनी आमदनियां छिनने के लिए जनता को, चंद विशेष रूप से लक्षित समूहों को दी गयी बहुत ही मामूली राशियों के अलावा, कोई मुआवजा दिया ही नहीं गया। इस तरह, इस लॉकडाउन के फैसले के जरिए गरीब मेहनतकशों को आयहीनता, कंगाली तथा भूख के मुंह में धकेल दिया गया था, जिससे से वे उस लॉकडाउन के उठाए जाने के महीनों बाद भी उबर नहीं पाए थे।

इस धक्के से उबर न पाने की इस परिघटना को ‘‘हंगर वॉच’’ नाम का एक सर्वे दस्तावेजीकृत करता है। पिछली अक्टूबर में हुआ उक्त सर्वे, अनेक सिविल सोसाइटी संगठनों द्वारा किया गया था। यह सर्वे किसी प्रतिनिधि नमूने के आधार पर नहीं किया गया है। यह सर्वे संबंधित लोगों के खर्चे के आंकड़े जमा करने की कोई कोशिश भी नहीं करता है। इस सर्वे में तो सिर्फ संबंधित लोगों से, जिनका चयन भी सर्वेक्षणकर्ता संगठनों की लोगों तक पहुंच के माध्यम से ही हुआ है, लोगों से अपने अनुभव बताने के लिए कहा जा रहा था। लोगों के ये अनुभव, बहुत कुछ बताने वाले हैं।

सर्वे में शामिल हुए करीब 4000 लोगों में से आधे से ज्यादा (53.5 फीसद) ने बताया कि अक्टूबर के महीने में उनके परिवार की गेहूं तथा चावल की खपत, मार्च के मुकाबले कम रही थी। अपने परिवार की दालों, हरी सब्जियों, अंडे तथा मांस की खपत में इस दौरान कमी दर्ज कराने का वालों का अनुपात और भी ज्यादा था। यह इस सर्वे के अन्य प्रेक्षणों के अनुरूप ही था, जो बताते हैं कि उत्तरदाताओं में से 62 फीसद से ज्यादा ने यह दर्ज कराया था कि अक्टूबर में उनके परिवार की मासिक आय, लॉकडाउन से पहले की स्थिति के मुकाबले घटकर थी। इसी के चलते, श्रम शक्ति में भागीदारी की दर भी, लॉकडाउन के पहले के दौर के मुकाबले बढ़ गयी थी। अपने परिवार की बिगड़ती माली हालत के चलते, पहले से ज्यादा लोग मेहनत-मजदूरी के काम की तलाश में श्रम शक्ति में शामिल हो रहे थे।

कोई यह दलील दे सकता है कि उत्तरदाताओं का नमूना तो प्रतिनिधित्वपूर्ण है ही नहीं और इसलिए इस तरह के प्रेक्षणों से कोई सामान्य निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते हैं। बहरहाल, महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर लॉकडाउन के चलते किन्हीं खास ग्रुपों के मामले में ही भूख बढ़ी हो तब भी, ऐसा होना बहुत ही महत्वपूर्ण है। ‘‘हंगर वाच’’ ने खासतौर पर कमजोर समूहों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है।

‘‘हंगर वाच’’ के सर्वे से निकला एक और हैरान करने वाला प्रेक्षण यह है कि लॉकडाउन से पहले की तुलना में, अक्टूबर के महीने में अपने उपभोग में कमी दर्ज कराने वाले उत्तरदाताओं का अनुपात, ग्रामीण इलाकों में जितना है, उससे भी ज्यादा शहरी इलाकों में है। यह सामान्यत: जिसकी उम्मीद की जाती है, उसके खिलाफ जाता है। सामान्य रूप से, भीषण भूख और कुपोषण को, शहरी इलाकों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में ही ज्यादा व्याप्त हुआ माना जाता है, जैसे कि पोषण के पैमाने के हिसाब से गरीबी हमेशा ही ग्रामीण भारत में, शहरी भारत के मुकाबले ज्यादा रहती आयी है। इसलिए, यह देखना हैरान करता है कि लॉकडाउन के चलते शहरी इलाकों में भूख में बढ़ोतरी, ग्रामीण इलाकों से भी ज्यादा रही थी। 

इस पहेली के दो स्वत:स्पष्ट उत्तर हो सकते हैं। पहला तो शहरी गरीबों के पास राशन कार्ड ही नहीं होना ही है, जिसके चलते वे सार्वजनिक वितरण व्यवस्था तक पहुंच से ही वंचित बने रहे हैं। दूसरा उत्तर इस तथ्य में हो सकता है कि मगनरेगा फिर भी, भारी संकट के इस दौर में ग्रामीण आबादी को कुछ सहारा देता है, जबकि शहरी भारत में इस तरह की कोई योजना ही नहीं चल रही थी और इसका मतलब यह था कि उन्हें इस संकट में कोई सहारा हासिल ही नहीं था और इसलिए, उनका संकट और भी गहरा था।

‘‘हंगर वाच’’ की इस रिपोर्ट से कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। लॉकडाउन के दौरान करीब-करीब कोई सहारा ही उपलब्ध नहीं होने के चलते, लॉकडाउन के दौरान ही लोगों का पामाल और बदहाल होना तो, अपरिहार्य था। लेकिन, खास बात यह है कि यह बदहाली बाद तक जारी रही है और लॉकडाउन के खत्म होने के बाद भी तीखी बनी रही है। आम तौर पर तो यही समझा जाता है कि लॉकडाउन से तो उत्पादन में खलल पड़ता है, लेकिन लॉकडाउन के उठाए जाने के बाद तो, उत्पादन को फिर से सामान्य स्थिति में लौट आना चाहिए। लेकिन, ऐसा सोचना उस स्थिति के लिए तो सही होगा, जहां लॉकडाउन के दौरान राजकोषीय ट्रांसफर के जरिए मेहनतकश जनता की आमदनियों को, पहले के स्तर पर बनाए रखा जा रहा हो। लेकिन, भारत के जैसे मामलों में यह मानना सही नहीं होगा, जहां ऐसे हस्तांतरणों के जरिए मेहनतकशों की आमदनियों की हिफाजत नहीं हो रही हो।

पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


प्रभात पटनायक, https://hindi.newsclick.in/Lockdown-Distress-Saga-Rising-Household-Debts-Ebbing-Incomes


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