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न्यूज क्लिपिंग्स् | नवउदारवाद और राष्ट्रवाद के बीच में खेती-किसानी का भविष्य

नवउदारवाद और राष्ट्रवाद के बीच में खेती-किसानी का भविष्य

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published Published on Aug 24, 2021   modified Modified on Aug 25, 2021

-न्यूजक्लिक,

सभी जानते हैं कि तीसरी दुनिया के देशों में मुक्ति का संघर्ष जिस साम्राज्यविरोधी राष्ट्रवाद से संचालित था, वह उस पूंजीवादी राष्ट्रवाद से बिल्कुल भिन्न प्रजाति की चीज थी, जिसका जन्म सत्रहवीं सदी में यूरोप में हुआ था। पश्चिम में इस तरह की प्रवृत्ति है, जिसमें प्रगतिशील भी शामिल हैं, जो राष्ट्रवाद को एकसार तथा प्रतिक्रियावादी श्रेणी की तरह देखती है। वे साम्राज्यविरोधी राष्ट्रवाद तक को यूरोपिय पूंजीवादी राष्ट्रवाद के जैसा ही मानते हैं, जबकि दोनों के बीच अनेक महत्वपूर्ण भिन्नताएं रही हैं।

इनमें से कम से कम तीन भिन्नताएं विशेष महत्व की हैं। पहली यह कि यूरोपीय राष्ट्रवाद शुरूआत से ही साम्राज्यवादी था। दूसरी, वह कभी भी समावेशी नहीं था बल्कि हमेशा से ‘अंदर के दुश्मन’ की पहचान करता आया था। तीसरी, उसने ‘राष्ट्र’ को पूजने वाली मूर्ति बना दिया था। वह राष्ट्र को जनता के ऊपर रखता था और उसे एक ऐसी सत्ता बना देता था, जिसके लिए जनता को तो कुर्बानी देनी होती थी, लेकिन जो बदले में जनता के लिए कुछ भी नहीं करता था। इसके विपरीत, साम्राज्य विरोधी राष्ट्रवाद, कोई साम्राज्य हासिल करने में नहीं लगा हुआ था, वह समावेशी था और वह अपनी जनता की दशा सुधारने को, राष्ट्र के अस्तित्व का मूल तर्क मानता था। चूंकि उपनिवेश विरोधी संघर्ष एक बहुवर्गीय संघर्ष था, जिसमें राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के अलावा मजदूर तथा किसान शामिल थे, इस राष्ट्रवाद पर यूरोपीय किस्म के पूंजीवादी राष्ट्रवाद की छाप कभी भी नहीं पड़ सकती थी।

चूंकि किसान सबसे बड़ी संख्या वाला वर्ग थे और उन्होंने ही औपनिवेशिक उत्पीड़न झेला था, इसलिए कुछ लेखकों ने इसे ‘किसान राष्ट्रवाद’ का ही नाम दिया है। बहरहाल, मुद्दा यह है कि अगर इस राष्ट्रवाद को आगे ले जाना है और अगर राष्ट्र को साम्राज्यवाद के हमले के खिलाफ, जो कि राजनीतिक स्वतंत्रता मिलने से खत्म नहीं हो जाता है, एक सत्ता के रूप में बचे रहना है, तो इन लक्ष्यों को किसान जनता के सक्रिय समर्थन से ही हासिल किया जा सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि ऐसी विकास रणनीति, जो किसानों के प्रति उत्पीड़नकारी हो, राष्ट्र के निर्माण की परियोजना के ही खिलाफ जाती है। इस तरह की विकास रणनीति, साम्राज्यवाद के सामने राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े होने को ही सुगम बनाती है।

यह सबसे पहले तो साम्राज्यवाद के शिकंजे से आजाद हुए, तीसरी दुनिया के नवस्वाधीन देशों के लिए एक पूंजीवादी विकास रणनीति के लिए दरवाजा बंद कर देता है। आखिरकार, पूंजीवाद की तो पहचान ही उसकी इस नैसर्गिक प्रवत्ति से होती है कि लघु उत्पादन क्षेत्र पर, जिसमें किसानी-खेती भी आती है, अतिक्रमण करे और उसे कमजोर करे। यह ऐसा नुक्ता है जिसे उपनिवेशविरोधी मुक्ति आंदोलन बखूबी पहचानते थे। जिन मामलों में ऐसे आंदोलनों का नेतृत्व कम्युनिस्ट नहीं कर रहे थे, वहां भी इन आंदोलनों में विकास की ऐसी रणनीति ही अपनायी गयी थी, जो पूंजीपतियों को अपनी गतिविधियां चलाने की इजाजत देने के बावजूद, उन पर नियंत्रण रखने की कोशिश करती थी। यही वह रणनीति है जिसकी पहचान हम, नियंत्रणकारी रणनीति के रूप में करते हैं।

इस नियंत्रणकारी रणनीति के भीतर भी भूमि के पुनर्वितरण की प्रक्रिया कभी भी मुकम्मल नहीं रही थी। फिर भी, कृषि के क्षेत्र के बाहर से पूंजीवादी ताकतों को, कभी भी कृषि क्षेत्र पर अतिक्रमण करने की इजाजत नहीं दी गयी। किसानी खेती को, घरेलू इजारेदाराना पूंजीपति वर्ग तक से बचाकर रखा गया था, फिर विदेशी एग्री बिजनेस के अतिक्रमण का तो सवाल ही कहां उठता है।

बहरहाल, नवउदारवादी व्यवस्था के आने के साथ, बचाव की यह व्यवस्था खत्म हो जाती है। लेकिन, नवउदारवाद का तो मकसद ही यह है कि ऐसे पूंजीवाद की जगह पर, जो शासन द्वारा लगाए जाने वाले ऐसे नियंत्रणों के घेरे में हो, जो किसानी खेती को, कृषि के क्षेत्र से बाहर के पूंजीपतियों से बचाने का प्रयत्न करते हैं, पूंजीवाद के उन्मुक्त विकास को लाया जाए। इसलिए, नवउदारवाद अनिवार्यत: किसानी खेती को कमजोर करता है।

भारत में किसानी खेती पर यह हमला, कई-कई रास्तों से होता है। इनमें से पहले, कीमतों में उतार-चढ़ाव, खासतौर पर कीमतों में भारी गिरावट के जरिए हमले को, नियंत्रणकारी व्यवस्था में रोका गया था। इसे खाद्यान्नों तथा नकदी फसलों, दोनों के मामले में सरकारी एजेंसियों के माध्यम से बाजार में सरकारी हस्तक्षेप के जरिए किया गया. हालांकि, मौजूदा सरकार से पहले किसी भी सरकार ने खाद्य फसलों को हासिल इस संरक्षण को हटाया नहीं था, फिर भी नियंत्रणकारी व्यवस्था के अंतर्गत नकदी फसलों को हासिल इस संरक्षण को पहले ही हटा लिया गया था और सभी संंबंधित सरकारी एजेंसियों से मार्केटिंग की उनकी भूमिका छीन ली गयी थी। इसका कुल नतीजा यह था कि  जिन वर्षों में कीमतों में ज्यादा गिरावट होती थी, किसानों के सिर पर कर्ज चढ़ जाता था, जिसे वे कभी उतार नहीं पाते थे।

दूसरे, नवउदारवाद के दौर में खेती में लगने वाली अनेक लागत सामग्रियों की कीमतें बढ़ती रही थीं, जबकि किसानों की पैदावार के दाम, कम से कम नकदी फसलों के मामले में तो विश्व बाजार से ही तय हो रहे थे। बैंकों के निजीकरण का दायरा बढऩे के साथ, खासतौर पर किसानों के लिए ऋण मंहगा होता चला गया। नवउदारवाद के दौर में, राष्ट्रीयकृत बैंकों के साथ-साथ निजी बैंकों को अपनी गतिविधियां चलाने की इजाजत दी गयी थी। कहने को तो निजी बैंकों पर भी अपने ऋण का एक निश्चित हिस्सा ‘प्राथमिकता वाले क्षेत्र’ को देने (जिसमें खेती का प्रमुख स्थान था) के नियम लागू होते थे, लेकिन निजी बैंक इन नियमों का बेरोकटोक उल्लंघन करते रहे हैं। और तो और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने भी, इस लिहाज से निजी क्षेत्र के बैंकों से अपने बेहतर रिकार्ड के बावजूद, ‘कृषि ऋण’ की परिभाषा को उत्तरोत्तर ढीला किए जाने का फायदा उठाया है और इस रास्ते से किसानी-खेती को, ऋण के उसके वैध हिस्से से वंचित किया है। इस तरह किसानों को निजी सूदखोरों के चंगुल में धकेला गया है, जो किसानों से अनाप-शनाप ब्याज वसूल करते हैं।

तीसरे, किसानों को अपनी पैदावार के लिए मिल रहे दाम की तुलना, खेती की लागत सामग्रियों तथा उपभोक्ता वस्तुओं के लिए, जिसमें शिक्षा व स्वास्थ्य रक्षा जैसी सेवाएं भी शामिल हैं, किसानों को देने पड़ रहे दाम से करने पर हम पाते हैं कि व्यापार की शर्तें, किसानों के विरुद्ध झुक गयी हैं। इस का एक स्वत: स्पष्ट कारण तो यही है कि शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्रों से सरकार के पांव पीछे खींचने ने तथा आवश्यक सेवाओं के निजीकरण ने, जोकि नवउदारवाद की निशानियां ही हैं, इन सब को किसानों के लिए बहुत ही महंगा बना दिया है।

चौथे, जहां पहले सरकार किसानी-खेती और उससे बाहर के पूंजीपतियों के बीच खुद को रक्षा दीवार की तरह खड़ा रखती थी, नवउदारवाद के अंतर्गत सरकार की यह बीच की दीवार की भूमिका खत्म हो गयी है और बाहरी पूंजीपतियों को, किसानी खेती तक सीधी पहुंच हासिल हो गयी है। बहुराष्ट्रीय बीज तथा कीटनाशक फर्में, अब अपने एजेंटों के जरिए गांव-गांव तक पहुंच गयी हैं और उनके ये एजेंट किसानों को ऋण भी देते हैं। एक बार जब किसान इन फर्मों के चंगुल में फंस जाता है, उसके लिए इस फंदे में से निकलना नामुमकिन हो जाता है। इस मुकाम पर ठेका खेती प्रकट होती है और तरह-तरह से किसानों को ठगा जाता है।

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


प्रभात पटनायक, https://hindi.newsclick.in/The-future-of-agriculture-in-the-midst-of-neoliberalism-and-nationalism


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