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न्यूज क्लिपिंग्स् | देश की खेती-किसानी के बारे में अशोक गुलाटी जैसे अर्थशास्त्रियों को बहुत कुछ जानना बाकी है

देश की खेती-किसानी के बारे में अशोक गुलाटी जैसे अर्थशास्त्रियों को बहुत कुछ जानना बाकी है

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published Published on Oct 1, 2020   modified Modified on Oct 1, 2020

-द प्रिंट,

खेती-बाड़ी का जो अर्थशास्त्र है उसे क्या देश के किसान, अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी से बेहतर जानते-समझते हैं ? बात आपको अटपटी लगेगी और हास्यास्पद भी लेकिन इस प्रश्न का उत्तर है- हां!

प्रोफेसर अशोक गुलाटी भारत के अग्रणी कृषि-अर्थशास्त्री हैं. वे उन विद्वानों में हैं जिनका लिखा मैं गौर से पढ़ता हूं, अक्सर सलाह-मशविरा करता हूं और जिनके लिए मेरे मन में सम्मान का भाव है. प्रोफेसर गुलाटी किसानों के हमदर्द हैं और हमदर्दी का यह भाव उनके विद्वतापूर्ण लेखन पर किसी धार की तरह चढ़ा रहता है. सरकारों के खिलाफ उठ खड़े होने का उनमें दमखम है और ऐसा उन्होंने नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार के वक्त भी किया है. अगर उचित जान पड़ा तो वे किसान-आंदोलनों के खिलाफ भी उठ खड़ा होने से परहेज नहीं करते. बरसों से उनकी जो एक टेक चली आ रही है, उसी के अनुकूल उन्होंने इस बार तीन नये कृषि-विधेयकों के लिए स्वागत-भाव दिखाया और इसे भारतीय कृषि के लिए वैसा लम्हा करार दिया जैसा कि 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए आया था. दिप्रिंट के संपादक शेखर गुप्ता समेत इन कृषि-विधेयकों के ज्यादातर हिमायतियों ने प्रोफेसर अशोक गुलाटी के तर्कों के सहारे ही इन कानूनों की तरफदारी में अपनी बात कही है.

लेकिन अफसोस ! प्रोफेसर गुलाटी इस बार हक की बात कहने से चूक गये, मसले को समझने में उन्होंने भारी भूल कर दी. बात ये नहीं है कि इस बार मसले पर सोच-विचार करने में उन्होंने किसी पूर्वाग्रह से काम लिया या फिर उनके आंकड़ों में कोई खोट है या फिर उनकी तर्कयुक्ति में ही कोई झोल है. लेकिन उनसे भारी भूल हुई है और यह भूल हुई है एक ऐसे अर्थशास्त्री से जो सरकार को नीति-निर्माण में सलाह देता है. मुझे ये बात पहली बार स्पष्ट हुई जब मैंने दो अर्थशास्त्रियों ज्यां द्रेज और अशोक कोटवाल के बीच चल रहे एक गंभीर विचार-विमर्श को पढ़ा. इस विचार-विमर्श में अशोक कोटवाल का पक्ष था कि गरीबों को अनुदानित मूल्य पर अनाज देने की जगह नकदी फराहम करना कहीं ज्यादा अच्छा है. इसके जवाब में ज्यां द्रेज का कहना था कि सरकार को सलाह देने वाले अर्थशास्त्री और गरीबों को सलाह देने वाले अर्थशास्त्री के बीच हमें अन्तर करके चलना चाहिए. सरकार को नीति-निर्माण में सलाह देने वाला अर्थशास्त्री यह मानकर चल सकता है कि उसकी सलाह हू-ब-हू मान ली जायेगी और पूरी इमानदारी से उनपर अमल किया जायेगा और ऐसे में वह नीति के पालन से होने वाले संभावित फायदे की बात पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकता है. लेकिन गरीबों को सलाह देने वाले अर्थशास्त्री को अपना ध्यान इस बात पर केंद्रित करना होता है कि किसी नीति के क्रियान्वयन के क्या संभावित परिणाम हो सकते हैं, कोई नीति जमीनी स्तर पर किस तरह क्रियान्वित की जाये. ज्यां द्रेज का कहना है कि अगर कागजी गुणा-भाग के हिसाब से देखें तो प्रत्यक्ष नगदी हस्तांतरण गरीबों की मदद करने का सबसे कारगर और किफायतमंद तरीका जान पड़ेगा लेकिन असल की जिन्दगी के हिसाब से देखें तो लगेगा कि राशन दुकान के जरिये खाद्यान्न का आबंटन करना गरीबों की मदद का सबसे अच्छा तरीका है.

यही बात तीनों कृषि-विधेयक के बारे में भी सच है.

पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


योगेन्द्र यादव, https://hindi.theprint.in/opinion/economists-like-ashok-gulati-have-a-lot-to-know-about-farming-of-the-country/173877/


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