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न्यूज क्लिपिंग्स् | लॉकडाउन: राष्ट्र की रेल और श्रमिक का शरीर

लॉकडाउन: राष्ट्र की रेल और श्रमिक का शरीर

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published Published on May 10, 2020   modified Modified on May 11, 2020

- द वायर,

‘यह हादसा कतई नहीं…’ अंग्रेज़ी अखबार टेलीग्राफ की यह सुर्खी एक सच्चे दिल से निकली चीख है. रुंधे गले से निकली यह चीख एक अधूरा वाक्य है.

वाक्य पूरा यही हो सकता है- ‘यह हादसा कतई नहीं, हत्या है.’ हत्या किसने की? हत्यारा निश्चय ही वह ड्राइवर नहीं है, जो मालगाड़ी की रफ्तार को काबू नहीं कर सकता था जब वह रेलवे लाइन पर सिर टिकाए, गहरी नींद में डूबे इन मजदूरों को देख पाया होगा.

यह एक खाली मालगाड़ी थी जो हैदराबाद के चेरापल्ली से महाराष्ट्र के पानिवाड़ जा रही थी. औरंगाबाद के पास बदनपुर और करमाड़ स्टेशन के बीच ट्रेन के लोको पायलट रामाशीष कुमार को रेलवे लाइन पर कुछ रुकावट दिखाई पड़ी.

जब ट्रेन कुछ आगे बढ़ी और इस अस्पष्ट अवरोध के सिर्फ 160 मीटर दूर रह गई तब रामाशीष को दिखलाई पड़ा कि यह रुकावट वास्तव में रेलवे  लाइन पर सो रहे लोग हैं.

उन्होंने भरपूर कोशिश की, ट्रेन का हूटर जोरों से बजाया, इमरजेंसी ब्रेक को पूरी ताकत से दबाया लेकिन रफ्तार की भी एक जड़ता होती है. ट्रेन रुकी जरूर, लेकिन तब तक ये 16 लोग कुचले जा चुके थे.

हूटर की आवाज़ से अगल-बगल के गांव के लोग जाग उठे, दौड़कर रेलवे लाइन तक पहुंचे. वहां इन सोलह मजदूरों के शरीरों के क्षत -विक्षत अंग पड़े थे. बगल में कुछ रोटियां छितराई पड़ी थीं.

रामाशीष की इंसानी आंखों को सोए हुए शरीर रेलवे लाइन पर रुकावट जान पड़े, इसमें उन आंखों की कोई गलती नहीं थी. नजदीक जाने पर जो धुंधला था, वह साफ हो गया.

रामाशीष को जब तक पता चला कि उसकी ट्रेन के पहियों के नीचे उसकी तरह के इंसान ही कट मरने वाले हैं, बहुत देर हो चुकी थी.

रेल विभाग की तरफ से कोई अफसोस जाहिर नहीं किया गया है.

उसके बयान में कहा गया है कि मारे गए लोगों ने रेलवे लाइन पर अतिक्रमण किया था. इस तरह रेलवे लाइन पर आ जाना ट्रेसपासिंग है, गैर कानूनी है और जुर्म है. इसमें कोई मुआवजा कैसा?

इसलिए कायदे से रेलवे ने न तो दुख जताया है और न मरने वालों के परिजनों से कोई संवेदना प्रकट की है.

इंडियन एक्सप्रेस  ने बताया है कि 2018 में अमृतसर के पास रेलवे लाइन पर कटकर मर जाने वाले 40 लोगों को भी रेलवे ने कोई मुआवजा नहीं दिया था.लेकिन प्रधानमंत्री राहत कोष से हर मौत के लिए 2 लाख रुपये की अनुग्रह राशि दी गई थी.

संभवतः शोर उठने पर इन 16 के प्रति भी यह अनुग्रह राज्य की कोई संस्था इस कायदे से जाहिर करे कि उसे परंपरा की शुरुआत न मान लिया जाए.

राज्य कानून के दायरे से बाहर इंसानियत के मैदान में भटक नहीं सकता इसलिए कानूनी तौर पर पहले यह मानना होगा कि इन 16 ने रेलवे के इलाके में गैर कानूनी प्रवेश किया था.

वे कानून तोड़कर निकल भी पड़े थे. मध्य प्रदेश के शहडोल और उमरिया के ये ग्रामीण महाराष्ट्र के जालना में अलग-अलग कंपनियों में काम करते थे. बावजूद राज्य के सारे आश्वासनों के ये धीरज छोड़ बैठे, बावजूद इस सूचना के कि इनके लिए श्रमिक ट्रेनें चलाई जा रही हैं, ये पैदल निकल पड़े.

आखिर इसमें सरकारों का क्या कसूर? वे तो राष्ट्र के स्वास्थ्य की चिंता कर रही थीं, उसकी पहरेदारी में व्यस्त थीं, वे किस-किस का ख्याल करें!

जिन्हें इन तरह लिखने और पढ़ने की सुविधा है, वैसे हम जैसे लोग जानते हैं कि कुछ भी हो इन जैसे 16 में हम कभी नहीं होंगे. लेकिन लाखों अभी भी जिंदा हैं जिन्होंने जब यह खबर सुनी या देखी तो उनके शरीर में सिहरन दौड़ गई, ‘क्योंकि इनमें हम भी हो सकते थे.’

पूर्वी बर्धमान के राजेश देबनाथ ने टेलीग्राफ को बताया, ‘जब मैंने औरंगाबाद के पास रेलवे लाइन पर पर पड़े शरीरों की धुंधली तस्वीरें देखीं, तो मैं कांप गया. यह हमारे साथ उन 8 दिनों में कभी भी हो सकता था जब हम बिहार में रक्सौल से झाझा तक रेलवे लाइन के किनारे किनारे चल रहे थे.’

‘मेरे भाई ने जब मुझे टीवी के पर्दे को ताकते देखा, तो उसे बंद कर दिया.घर की औरतें, जो तब तक खुश थीं (क्योंकि हम लौट आए थे) रोने लगीं, यह मेरे और मेरे दोस्तों के साथ हो सकता था. यह सोचकर मेरे हाथ थरथराने लगे. आखिर उन्हीं की तरह हमें भी 400 किलोमीटर का सफर करना था.’

‘कलेजे में हूक-सी उठी, जब मैंने बिखरी हुई रोटियां देखीं. मधुबनी में हमने जो रोटियां बांधी थीं, उन पर हमारे दिन कटे थे.’

‘मैं समझ सकता हूं कि क्यों उन्होंने रेलवे लाइन पर सिर टिकाने की सोची होगी, कहीं और नहीं. जानता हूं कि आप सब हैरान होंगे. यह और कुछ नहीं थकान की इंतेहा है जिसमें देह बेबस हो जाती है. हां, लोहे की पटरी पर सिर टिकाना कोई आरामदेह नहीं लेकिन यही है जो हमें घर का रास्ता दिखाती रहती है.’

राजेश को वह वक्त याद आया जब 2 मई को 200 किलोमीटर चल लेने के बाद इसी तरह थकान से चूर वे कुछ मिनटों के दम लेने को रेलवे लाइन के बीच बैठे और उन्हें मालूम ही नहीं हुआ कि कब आंख लग गई. फिर अचानक समझ में आया कि यह कितना खतरनाक हो सकता था!

राजेश का यह इंटरव्यू एक मैनुअल हो सकता है उनके लिए, जो रेलवे लाइन के सहारे घर जाना चाहते हैं.

उन्हें कौन-कौन सी सावधानी बरतनी चाहिए, किस तरह अप और डाउन ट्रेन का पता करना चाहिए, सिग्नल पर कैसे नजर रखनी चाहिए और हमेशा पीठ पर अपनी आंखें रखनी चाहिए जिससे पीछे से आने वाली ट्रेन का पता चल सके.

पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.


अपूर्वानंद, https://thewirehindi.com/121181/aurangabad-train-accident-migrant-workers-society-governments/


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