Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | जलवायु परिवर्तन: क्या अमेरिका का पेरिस डील से जुड़ना पर्याप्त होगा?

जलवायु परिवर्तन: क्या अमेरिका का पेरिस डील से जुड़ना पर्याप्त होगा?

Share this article Share this article
published Published on Jan 18, 2021   modified Modified on Jan 19, 2021

-न्यूजलॉन्ड्री,

डोनाल्ड ट्रम्प की हार के बाद जलवायु परिवर्तन के खिलाफ मुहिम चला रहे संगठनों को आशा है कि अमेरिका एक बार फिर से पेरिस क्लाइमेट डील में शामिल हुआ तो धरती को बचाने की मुहिम तेज़ होगी. ट्रम्प ने 2016 में व्हाइट हाउस में दाखिल होने के साथ ही पेरिस डील से किनारा कर लिया था. उनके मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन कुछ नहीं बस भारत और चीन जैसे देशों का खड़ा किया हौव्वा है और ऐसे देश विकसित देशों से क्लाइमेट के नाम पर पैसा “लूटना” चाहते हैं.

नव निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन ने चुनाव जीतने के बाद यह वादा किया कि अमेरिका फिर से डील का हिस्सा बनेगा. यह क्लाइमेट चेंज कार्यकर्ताओं और संगठनों के अलावा उन बीसियों विकासशील देशों के लिये भी एक हौसला बढ़ाने वाली ख़बर है जो जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभाव झेल रहे हैं क्योंकि अमेरिका जैसे बड़े और शक्तिशाली देश- जो कि आज चीन के बाद दुनिया में सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है- के पेरिस संधि में वापस आने से इस डील को मज़बूत करने में मदद मिल सकती है.

खासतौर से तब जब डेमोक्रेट राष्ट्रपति व्हाइट हाउस में हो. लेकिन क्या अमेरिका का पेरिस डील से जुड़ना ही बदलाव के लिये पर्याप्त होगा? बिल्कुल नहीं. इसकी कई वजहें हैं. पहली वजह ये कि जलवायु परिवर्तन की समस्या बहुत बड़ी और विकराल रूप धारण कर चुकी है और बहुत कड़े कदम भी उसके विनाशकारी प्रभावों को आंशिक रूप से ही रोक पायेंगे. दूसरा यह कि पहले भी बड़े और अमीर देश (और कई विकासशील देश भी) क्लाइमेट चेंज से लड़ने की बातें तो करते रहे हैं लेकिन उनकी कथनी और करनी में काफी बड़ा अंतर रहा है यानी क्लाइमेट कांफ्रेंस या भाषणों में जो बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं वह ज़मीन पर लागू नहीं होतीं. तीसरी वजह है कोरोना महामारी या कहें कि कोरोना के नाम पर खड़ा किया गया हौव्वा है जो दुनिया की तमाम सरकारों को मनमानी करने और उन सरोकारों को हाशिये में धकलने का बहाना दे रहा है. अब हम इन कारणों पर थोड़ा विस्तार से नज़र डालते हैं.

तप रही धरती को ठंडा करना अब नामुमकिन

पिछले कई सालों से शोधकर्ता और क्लाइमेट साइंटिस्ट लगातार गर्म होती धरती के बारे में चेतावनी दे रहे हैं. आम धारणा है कि अगर कार्बन इमीशन को लेकर युद्धस्तर पर प्रयास किये गये तो ग्लोबल वार्मिंग का ग्राफ कभी भी नीचे लाया जा सकता है. जबकि सच इसके विपरीत बहुत क्रूर और कड़वा है. लगातार ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से गर्म होती धरती उस दहलीज को पार कर चुकी है जहां वह हमारे प्रयासों के बावजूद गर्म होती रहेगी. ऐसी स्थिति को ‘बेक्ड-इन ग्लोबल वार
्मिंग’ या ‘बेक्ड-इ
क्लाइमेट चेंज’ 
कहा जाता है. साधारण भाषा में कहें तो अब धरती के तापमान में एक न्यूनतम बढ़ोतरी को रोकना नामुमकिन है चाहे सारे इमीशन रातों रात बन्द भी कर दिये जायें.

नेचर क्लाइमेट चेंज नाम के साइंस जर्नल में छपा शोध कहता है कि ‘बेक्ड-इन ग्लोबल वॉर्मिंग’ दुनिया के देशों द्वारा तय उन लक्ष्यों को बेअसर बता
े के लिये पर्याप्त
 है, जो 2015 में हुई पेरिस संधि के तहत तय किये गये हैं या जिन पर अभी अमल हो रहा है. लेकिन क्लाइमेट चेंज रोकने के प्रयासों से अब भी उस विनाशलीला को कई सौ साल पीछे ज़रूर धकेला जा सकता है जिसे अवश्यंभावी बताया जा रहा है.

दुनिया में बिगड़ते हालात उत्तरी ध्रुव में जंगलों की आग और अटलांटिक के चक्रवाती तूफान जैसी घटनाओं से समझा जा सकते हैं. बीते साल 2020 को सबसे गर्म साल बनाने में इन कारकों का अहम रोल रहा. साल 2020 तापमान के मामले में 2016 के बराबर रहा यानी चार सालों में ही एक बार फिर उस रिकॉर्ड तोड़ तापमान की बराबरी कर ली गई. पिछले 6 साल में तापमान के मामले में लगातार रिकॉर्ड बने और 2011-20 तक का दशक दुनिया में सबसे गर्म दशक बन गया है.

जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाली कॉपरनिक्स क्लाइमेट च
ंज सर्विस
 ने जो आंकड़े जारी किये हैं उनसे पता चलता है कि पिछला साल (2020), 1981 2010 के बीच औसत तापमान की तुलना में 0.6 डिग्री अधिक रहा जबकि उद्योगीकरण से पहले के कालखंड (1850-1900) के स्तर से यह 1.25 डिग्री अधिक रहा. यूरोपीय इतिहास में तो ये आधिकारिक रूप से सबसे गर्म साल रहा. वैज्ञानिक इस स्थिति को थोड़ी हैरत के साथ देख रहे हैं क्योंकि साल 2020 की शुरुआत में ल निना का एक शीतलीकरण प्रभाव (कूलिंग इफेक्ट) भी रहा. तो क्या ल निना इफेक्ट के बावजूद यह रिकॉर्ड तापमान वृद्धि क्लाइमेट चेंज के बढ़ते प्रभावों का असर है?

कथनी और करनी का फर्क

दूसरी अहम बात विकसित और कई विकासशील देशों के उस पाखंड की है जिसमें ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिये जो संकल्प लिये जाते हैं उनका पालन नहीं होता. कम से कम इस मामले में ट्रम्प को पूरे नंबर मिलने चाहिये कि उनके दिल और ज़ुबान पर एक ही बात थी. अमेरिका का रिकॉर्ड रहा है कि वह कभी भी क्लाइमेट चेंज रोकने के लिये सक्रिय भागेदार नहीं बना. ब्राज़ील, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, रूस के साथ पोलैंड जैसे यूरोपीय देश भी जीवाश्म ईंधन का न केवल इस्तेमाल करते रहे हैं बल्कि उसे बढ़ावा देते रहे. इनमें से कई देश जलवायु परिवर्तन वार्ता के अंतरराष्ट्रीय मंच में अमेरिका के पीछे छुपते रहे या कहिये कि अमेरिका उनके साथ लामबन्दी करता रहा है.

हालांकि जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ हरजीत सिंह जो एक्शन एड के ग्लोबल क्लाइमेट लीड हैं, को उम्मीद है कि बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका इस बार कुछ सकारात्मक रोल ज़रूर अदा करेगा. सिंह कहते हैं कि अमेरिका का रोल पूर्व में बहुत अच्छा नहीं रहा बाइडन द्वारा ओबामा प्रशासन में महत्वपूर्ण रोल अदा कर चुके जॉन कैरी को एक बार फिर
्लाइमेट नीति की कमान
माना
 एक सार्थक कदम है. अमेरिका ने 2980 बिलियन डॉलर के रिकवरी पैकेज में केवल 39 बिलियन ही ग्रीन प्रोजेक्ट के लिये रखा लेकिन कुछ विशेषज्ञों को उम्मीद है कि ये हालात बदल भी सकते हैं. यूरोपियन यूनियन ने भी ऐलान किया है कि कोरोना से रिकवरी की मुहिम का असर क्लाइमेट चेंज की लड़ाई पर नहीं पड़ेगा.

उधर चीन कहने को तो विकासशील देश है लेकिन उसकी अर्थव्यवस्था न केवल सबसे बड़ी है बल्कि दुनिया में सबसे तेज़ रफ्तार से बढ़ रही है. हैरत की बात नहीं है कि चीन कार्बन या कहें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में नंबर वन है और अपने निकटतम प्रतिद्वंदी अमेरिकी से बहुत आगे है. चीन न केवल उत्सर्जन अंधाधुंध बढ़ा रहा है बल्कि वह दुनिया के कई ग़रीब विकासशील देशों में कोयले और दूसरे जीवाश्म ईंधन (तेल, गैस) को बढ़ावा दे रहा है.

बात यहीं पर नहीं रुकती. जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों के बावजूद ज़्यादातर देशों ने ग्लोबल वॉर्मिंग रोकने के लिये संयुक्त राष्ट्र में अपडेटेड प्लान जमा नही
किया है
. इसके तहत दुनिया के सभी देशों को 31 दिसंबर तक यह बताना था कि 2030 तक कार्बन इमीशन कम करने के घोषित कदमों को वो कैसे और कड़ा बनायेंगे. सभी देशों ने पेरिस संधि के तहत सदी के अंत तक धरती की तापमान वृद्धि 2 डिग्री से कम रखने और हो सके तो 1.5 डिग्री का संकल्प किया है. हालांकि यूनाइटेड किंगडम और यूरोपियन यूनियन के 27 देशों समेत कुल 70 देशों ने अपना प्लान जमा कर दिया है लेकिन चीन, भारत, कनाडा, इंडोनेशिया और सऊदी अरब जैसे देशों ने अपना प्लान जमा नहीं किया है.

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.


ह्रदयेश जोशी, https://www.newslaundry.com/2021/01/17/climate-change-deal-america-donald-trump-joe-biden-paris-china-india


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close