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न्यूज क्लिपिंग्स् | किसी को फ़र्ज़ी केस में फंसाकर उसकी ज़िंदगी ख़राब कर देना इतना आसान क्यों है

किसी को फ़र्ज़ी केस में फंसाकर उसकी ज़िंदगी ख़राब कर देना इतना आसान क्यों है

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published Published on Mar 13, 2021   modified Modified on Mar 15, 2021

-द वायर,

‘कोई न कोई जरूर जोसेफ के के बारे में झूठी सूचनाएं दे रहा होगा, वह जानता था कि उसने कोई गलत काम नहीं किया है लेकिन एक अलसुबह उसे गिरफ्तार किया गया.’

(Someone must have been telling lies about Joseph K, he knew he had done nothing wrong but one morning, he was arrested)

बहुचर्चित उपन्यासकार फ्रांज काफ्का के उपन्यास ‘द ट्रायल ’ (The Trial) की यह शुरुआती पंक्ति, जो लगभग एक सदी पहले (1925) प्रकाशित हुआ था, आपको आज बेहद मौजूं लग सकती हैं.

उपन्यास किन्हीं जोसेफ के के इर्दगिर्द घुमता है, जो किसी बैंक में मुख्य कैशियर है, जिसे उसकी तीसवीं सालगिरह पर दो अनपहचाने लोगों द्वारा अचिह्नित अपराध के लिए गिरफ्तार किया जाता है.

उपन्यास उसकी उन तमाम कोशिशों पर केंद्रित है, जिसमें वह उस पर लगे आरोपों का पता करने की कोशिश करता रहता है, जो कभी स्पष्ट नहीं होते, उसके उन बदहवास प्रयासों की बात करता है जहां वह उन आरोपों से मुक्त होने की कोशिश करता है और उपन्यास का अंत उसके 31वें जन्मदिन के महज दो दिन पहले शहर के बाहर एक खदान के पास उसकी हत्या में होता है.

मालूम हो कि यह महान लेखक- जिसे बीसवीं सदी के विश्व साहित्य की अज़ीम शख्सियत समझा जाता है, जो बहुत कम उम्र में चल बसे, चाहते थे कि उनकी तमाम पांडुलिपियां- जिसमें उनका यह अधूरा उपन्यास भी शामिल था – उनके मरने के बाद जला दी जाए.

यह अलग बात है कि उनके करीबी दोस्त मैक्स ब्रॉड, जिसे उन्होंने यह जिम्मा सौंपा था, ने उनके निर्देशों का नहीं माना और जिसका नतीजा था एक कालजयी किस्म की रचना जो असंवेदनशील और अमानवीय नौकरशाही तंत्र के सामने एक साधारण व्यक्ति के संघर्ष के बहाने उसको बेपर्द करती है और नागरिक अधिकारों के व्यापक अभाव की स्थिति को रेखांकित करती है.

गुजरात के सूरत में बीस साल पहले शिक्षा से जुड़ी एक कॉन्फ्रेंस में जुटे 127 लोग- जिनमें से पांच लोगों की इस दौरान मौत भी हो चुकी है- जिन्हें प्रतिबंधित सिमी संगठन से जुड़ा बताया गया था, उनकी इतने लंबे वक्फे के बाद हुई बेदाग रिहाई से यह बात फिर एक बार प्रासंगिक हो उठी है.

दिसंबर 2001 में समूह में शामिल लोग ऑल इंडिया माइनॉरिटी एजुकेशन बोर्ड के बैनर तले हुए कॉन्फ्रेंस के लिए देश के दस अलग-अलग राज्यों से लोग एकत्रित थे, जिनमें कुछ राजस्थान से आए दो कुलपति, चार-पांच प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर तथा एक रिटायर्ड न्यायाधीश तथा अन्य पेशों से संबद्ध पढ़े-लिखे लोग शामिल थे.

इन लोगों को बेदाग रिहा करते हुए अदालत ने पुलिस पर तीखी टिप्पणी की है कि उसका यह कहना कि यह सभी लोग प्रतिबंधित संगठन ‘सिमी’ से जुड़े थे, न भरोसा रखने लायक है और न ही संतोषजनक है, जिसके चलते सभी अभियुक्तों को संदेह का लाभ देकर बरी किया जाता है.’

इन सभी में ही शामिल है आसिफ शेख- जो 2001 में गुजरात विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के टॉपर थे, इस केस ने उनकी जिंदगी ऐसे तबाह की कि उसको आज भी ठौर नहीं मिला. आतंकवाद का टैग लग गया था, इसलिए किसी मीडिया हाउस ने नौकरी नहीं दी, कभी कॉल सेंटर में काम किया, कभी कपडे़ बेचे, कभी लाउड स्पीकर की दुकान खोली और पिछले 13 सालों से मिर्ची बेच रहे हैं.

मालूम हो इन सभी को एक साल से अधिक समय तक ऐसे फर्जी आरोपों के लिए जेल में बंद रहना पड़ा था और अदालती कार्रवाई में शामिल होने के लिए आना पड़ता था.

इन 127 में से एक जियाउददीन अंसारी का सवाल गौरतलब है कि ‘अदालत ने हमें सम्मानजनक ढंग से रिहा किया है, लेकिन उन लोगों – अफसरों का क्या- जिन्होंने हमें नकली मुकदमों में फंसाया था, क्या उन्हें भी दंडित होना पड़ेगा.’

अदालत की पुलिस की तीखी टिप्पणी दरअसल हाल के समयों में इसी तरह विभिन्न धाराओं में जेल के पीछे बंद दिशा रवि जैसे अन्य मुकदमों की भी याद दिलाती है, जहां पुलिस को अपने कमजोर एवं पूर्वाग्रहों से प्रेरित जांच के लिए लताड़ मिली थी.

तय बात है कि सूरत के फर्जी मुकदमे में गिरफ्तार रहे इन लोगों की बेदाग रिहाई न इस किस्म की पहली घटना है और न ही आखिरी.

यह सिस्टम किसी की जिंदगी किस तरह बर्बाद कर सकता है, उसका एक सबूत हम 20 साल पहले बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार हुए विष्णु तिवारी की हुई बेदाग रिहाई से भी देख सकते हैं.

कुछ माह पहले हुई डॉ. कफील खान की बेदाग रिहाई में भी देख सकते हैं, जब उन्हें सात माह के बाद रिहा किया गया था. याद रहे उच्च अदालत के सख्त एवं संतुलित रवैये का बिना यह मुमकिन नहीं थी, जिसने डॉ. कफील खान के खिलाफ दर्ज इस केस को ही ‘अवैध’ बताया.

उस वक्त भी यही बात कही गई थी कि हमारी पुलिस एवं न्याय प्रणाली में डॉ. कफील खान का प्रसंग अपवाद नहीं है. उनका नाम कभी इफ्तिखार गिलानी भी हो सकता है, जिन्हें कभी ‘ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट’ के तहत जेल में डाल दिया गया था और फिर बाइज्जत रिहा किया गया.

या उस स्थान पर छत्तीसगढ़ के किसी आदिवासी का नाम भी चस्पां हो सकता है, जिसे इसी तरह सालों साल जेल में गुजारने पड़े हों और फिर बिना किसी सबूत के अभाव के बरी कर दिया गया हो.

प्रश्न उठता है कि किसी को फर्जी केस में फंसाकर उनकी जिंदगी ख़राब कर देना यहां इतना आसान क्यों है?

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


सुभाष गाताडे, http://thewirehindi.com/162212/india-society-wrongful-prosecution-criminal-justice-system/


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