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न्यूज क्लिपिंग्स् | खून और स्याही

खून और स्याही

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published Published on Nov 2, 2021   modified Modified on Nov 1, 2021

-द कारवां,

वह मेरे जीवन का सबसे वीभत्स दृश्य था. दिल्ली पुलिस के सब्जी मंडी स्थित मुर्दाघर में मैंने जो मंजर देखा वह ऐसा था कि मेरे साथी पत्रकार दीपांकर डे सरकार उल्टियां करने लगे थे.

वह 1 नवंबर 1984 का दिन था और इंदिरा गांधी को उनके सिख सुरक्षागार्डों द्वारा गोली मारे जाने के 24 घंटे हुए थे. भयानक हिंसा में निर्दोष सिखों को निशाना बनाया जा रहा था. यह मध्यकालीन न्याय की क्रूर नुमाइश थी. उस दिन मैं, सरकार और राजीव पांडे हत्याकांड की रिपोर्ट करने दो स्कूटरों से निकले थे कि हमने देखा कि दिल्ली कैंटोनमेंट रेलवे स्टेशन में ट्रैक से कुछ दूर एक नौजवान सिख का अधजला शव पड़ा है. वहां खड़े लोगों ने बताया कि शायद वह वह नौजवान ट्रेन से आकर स्टेशन पर उतरा था और बाद में उसको घेर कर बेरहमी से मार दिया गया. जब हम उनकी बातों के नोट्स ले रहे थे कि वहां मौजूद एक सैन्य अधिकारी ने बताया कि हम लोग शहर में घूम-घूम कर क्यों अपना वक्त जाया कर रहे हैं बल्कि हमें तो दिल्ली पुलिस के शवगृह में जा कर हत्याकांड के स्तर को समझना चाहिए.

फिर दोपहर को हम मुर्दाघर आ गए. छह साल के अपने पत्रकारिता करियर में मैं पहली दफा किसी मुर्दाघर आया था. उसके इंचार्ज डॉ. एलटी रमानी और उनका छोटा सा स्टाफ घबराए हुए थे. लाशों की लाइन दिखाते हुए उन्होंने मुझसे कहा, “इतनी लाशें हैं कि सभी का पोस्टमार्टम करना असंभव है.” जब हम रमानी से बात कर ही रहे थे कि हमने देखा कि एक अधेड़ उम्र का आदमी शवों को ठेले में लाकर ऐसे पटक रहा है मानों वे खून से रंगे लाल बोरे हों.

मैं शवों की गिनती करने लगा ही था कि एक पुलिस वाले ने मुझसे कहा, “तुम इनकी गिनती तो कर लोगे लेकिन क्या तुम अंदर के कमरे में जो लाशें पड़ी है उनकी भी गिनती करोगे?” मैंने पूछा कि कौन सा कमरा और वहां कितनी लाशें हैं तो उसने कहा तुम खुद ही क्यों नहीं जा कर देख लेते. पांडे, सरकार और मैं एक बड़े कमरे की ओर बढ़ गए और जैसे ही दरवाजे के पास पहुंचे एक भयानक बदबू में नहा गए. कमरे में सिख आदमियों, औरतों और बच्चों के शव बिखरे पड़े थे. मुझे बाद में पता चला कि ये लोग रेल यात्री थे जिन्हें नहीं पता था कि उनके साथ क्या होने वाला है. दिल्ली की सीमा पर उन्हें ट्रेन रोककर जबरदस्ती निकाला गया और बेरहमी से कत्ल कर दिया गया.

वहां पिरामिड के जैसा शवों का अंबार लगा था. हर तरफ खून ही खून था. तभी सरकार उल्टियां करने लगा. कुछ देर रुकने की कोशिश करने के बाद पांडे और मैं भी घबराकर वापस लौट आए. रमानी ने मुझे बताया कि मुर्दाघर में सिख विरोधी हिंसा के शिकार 350 से ज्यादा लोगों के शव पड़े हैं. और हर आधे घंटे में और शव आ रहे हैं. डॉ. रमानी ने सुना था कि पूरी दिल्ली में कत्लेआम जारी है. एक पुलिस वाले ने भी पुष्टि की कि हां, हिंसा जारी है. लेकिन इसके बावजूद सरकार के प्रवक्ता दावा कर रहे थे कि भीड़ की हिंसा में बहुत कम लोग मारे गए हैं और शहर में स्थिति नियंत्रण में है.

हम लोग तेजी से स्कूटर चला कर अपने ऑफिस आए. उस वक्त हम लोग समाचार एजेंसी यूएनआई में काम करते थे. सबसे पहले मैंने सोचा कि मैं यूएनआई के एडिटर और जनरल मैनेजर यूआर कलकुर को स्थिति से अवगत करा दूं. सामान्य तौर पर असमय मुलाकत की अनुमति के लिए मैं उन्हें फोन करता था या उनकी सेक्रेटरी से कहता था लेकिन उस दिन मैं बेधड़क कलकुर के दरवाजे पर जा पहुंचा. वहां मैंने देखा कि कलकुर के पास अरुण शौरी बैठे हुए हैं. उस वक्त अरुण शौरी इंडियन एक्सप्रेस में काम करते थे. कलकुर ने मुझे देखते ही भांप लिया कि मामला गंभीर है. जब मैंने उन्हें बताया कि हमने शवगृह में क्या देखा और डॉक्टरों के अनुसार मृतकों की संख्या कितनी है तो यह सुनते ही शौरी ने टेबुल पर मुक्का मारते हुए कहा, “देखा मैं यही बताने की कोशिश कर रहा हूं. सरकार झूठ बोल रही है. ये कोल्ड ब्लडेड हत्याएं हैं. आपके रिपोर्टर ही बता रहे हैं.”

कलकुर से हरी झंडी मिलने के बाद मैं अपने रेमिंगटन टाइपराइटर पर तेजी से रिपोर्ट टाइप करने लगा. वह स्टोरी जल्दी से यूएनआई की न्यूज सर्विस से लोगों तक पहुंच गई और तहलका मच गया. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के पत्रकारों की फौज दिल्ली पुलिस के शवगृह पर पहुंच गई. इंदिरा गांधी की हत्या की कहानी ने अब एक नाटकीय मोड़ ले लिया था. एक आर्मी ऑफिसर की टीप से दुनिया को भारत की राजधानी में हो रहे नरसंहार का पता चल गया जिसे सरकार छुपा लेना चाहती थी.

इसके बाद भारत सरकार ने हिंसा पर नियंत्रण करने के लिए जल्दी ही सेना बुला ली. यदि यह पहले हो जाता तो बहुत से अन्य लोगों की जान बच जाती. लेकिन सेना के आने के बावजूद शहर में स्थिति अगले दो दिनों तक नियंत्रण में नहीं आई. खैर, यह एक अलग कहानी है.

1984 का कत्लेआम अचानक नहीं हुआ था. इसकी तैयारी कांग्रेस से जुड़े नेताओं ने की थी और इसमें वे गलाकाटू भी शामिल हो गए जिन्होंने शहर में लूटमार कर मुनाफा कमाया. हममें से कई पत्रकारों ने यह सब बहुत नजदीक से देखा. और दिल्ली पुलिस के बारे में तो जितना कहा जाए कम है.

***

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद क्या बवंडर आने वाला है इसका पहला संकेत तब मिला जब 31 अक्टूबर को शाम 5 बजे राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह उत्तरी यमन की अपनी यात्रा को अधूरा छोड़ भारत लौट आए थे और ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज यानी एम्स में, जहां गांधी को गंभीर हालत में ले जाया गया था, जा रहे थे. भीड़ ने रास्ते में उनके काफिले को रोकने की कोशिश की लेकिन जब रोकने में सफल न हो सकी तो एम्स से महज एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित कमल सिनेमा के पास काफिले पर पथराव करने लगी.

जैल सिंह भारत के पहले सिख प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस के पुराने नेता. उन्हें हमले में चोट तो नहीं आई लेकिन वह हिल गए थे. लेकिन अन्य हजारों निर्दोष सिख उनके जितने भाग्यशाली नहीं थे. उनके मामले की तरह ही राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के काफिले पर हमला करने वालों में से किसी को भी पकड़ा नहीं गया. वह भीड़ नारे लगा रही थी : “खून का बदला खून से”. पल-पल उन्माद तीव्र होता जा रहा था.

शहर में भारी संख्या में पुलिस तैनात तो थी लेकिन वह मूकदर्शक बनी हुई थी. भीड़ नारे लगा रही थी और राजधानी के हर हिस्से में हिंसा फैल चुकी थी. तब तक एचकेएल भगत, ललित माकन, सज्जन कुमार और धरमदास शास्त्री जैसे कांग्रेस के कद्दावर नेता एम्स से होकर लौट गए थे. इस इलाके में एक अन्य कांग्रेसी नेता अर्जुन दास मौजूद थे जो राजनीति में आने से पहले साइकिल सुधारा करते थे और संजय गांधी के खास रहे थे.

आगे की घटनाओं से पता चलता है कि अपने-अपने इलाकों में कांग्रेस के नेताओं ने उन सिखों पर हमला करने के लिए भीड़ को उकसाया जिनका खालिस्तान से कोई वास्ता नहीं था. इन कांग्रेसी नेताओं की करनी से इतने अलगाववादी पैदा हुए जितने पाकिस्तान और जरनैल सिंह भिंडरावालां भी नहीं कर पाए थे.

पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


एमआर स्वामी, https://hindi.caravanmagazine.in/crime/reporters-account-of-the-1984-anti-sikh-violence-hindi


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