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अपराध और पूर्वाग्रह

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published Published on Oct 14, 2020   modified Modified on Oct 15, 2020

-कारवां,

1.

शादाब आलम के लिए 24 फरवरी 2020 का दिन रोजमर्रे की तरह ही शुरू हुआ था. वह उत्तर दिल्ली के पुराने मुस्तफाबाद के अपने घर में, जहां वह पांच साल से भी ज्यादा वक्त से रह रहे थे, तड़के ही जग गए थे. तैयार होकर सुबह के 10 बजे वह स्मार्ट मेडिकल स्टोर के लिए रवाना हुए. वजीराबाद रोड पर वृजपुरी चौक के पास की इस दुकान में वह कई सालों से नौकरी करते थे और सुबह से ही उनकी ड्यूटी शुरू हो जाती थी.

इसके ठीक एक दिन पहले, दोपहर को भारतीय जनता पार्टी के नेता कपिल मिश्रा ने उनकी दुकान से कुछ ही किलोमीटर दूर स्थित जफराबाद मेट्रो स्टेशन के पास एक बेहद भड़काऊ भाषण दिया था. इस स्टेशन पर सैकड़ों महिलाएं नागरिकता (संशोधन) कानून (सीएए) के खिलाफ धरने पर बैठी थीं. केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने पिछले साल यह कानून बनाया था और अब उसका प्रस्ताव राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को कानून बनाने का है. सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शनों की लहर दिल्ली और पूरे देश में फैल गई थी. जाहिरा तौर पर इन धरना-प्रदर्शनों की अगुवाई ज्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोग ही कर रहे थे, जो सरकार की इन कवायदों से भारतीय गणतंत्र में खुद को हाशिए पर सिमेट दिए जाने के खतरों से खौफजदा थे. बीजेपी और हिंदुत्ववादी समूहों ने इन प्रदर्शनकारियों का तिरस्कार किया था. अनेक जगहों पर तो प्रदर्शनकारियों को खूब डराया-धमकाया गया था और उनके खिलाफ हिंसा भी हुई थी. कपिल मिश्रा ने उस सभा के दौरान अपने पास खड़े उत्तर-पूर्वी दिल्ली के पुलिस उपायुक्त से ऐलानिया तौर पर कहा था कि अगर दिल्ली पुलिस ने जाफराबाद और इसके पड़ोसी मेट्रो स्टेशन चांद बाग को प्रदर्शनकारियों के चंगुल से मुक्त नहीं कराया तो, ''हमें सड़कों पर उतरना ही पड़ेगा.”

दयालपुर थाने के पुलिसकर्मियों पर 24 फरवरी से लेकर 28 फरवरी तक दो दर्जन से अधिक मुसलमानों को अवैध तरीके से हिरासत में रखने और यातनाएं देने के आरोप हैं.. शाहीन अहमद/कारवांदयालपुर थाने के पुलिसकर्मियों पर 24 फरवरी से लेकर 28 फरवरी तक दो दर्जन से अधिक मुसलमानों को अवैध तरीके से हिरासत में रखने और यातनाएं देने के आरोप हैं.. शाहीन अहमद/कारवां
दयालपुर थाने के पुलिसकर्मियों पर 24 फरवरी से लेकर 28 फरवरी तक दो दर्जन से अधिक मुसलमानों को अवैध तरीके से हिरासत में रखने और यातनाएं देने के आरोप हैं. शाहीन अहमद/कारवां
आलम इससे वाकिफ थे कि कपिल मिश्रा के आग लगाऊ भाषण के बाद बीती रात मुसलमानों पर हमले हुए थे, लेकिन तब उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि हालात इस हद तक बिगड़ जाएंगे. 24 फरवरी 2020 को उन्होंने कुछ घंटे फार्मेसी की दुकान पर काम किया और फिर दोपहर की नमाज पढ़ने के लिए कासाब पुरा की मस्जिद चले गए. आलम नमाज अदा कर लौटने ही वाले थे कि उनके एक दोस्त ने फोन पर इत्तिला दी कि मुसलमानों पर फिर से हमले किए जा रहे हैं. लिहाजा, आलम ने दुकान पर सही सलामत पहुंचने के लिए आम दिनों के बजाए एक लंबा रास्ता तय किया और इस तरह वह 3 बजे वहां पहुंचे.

उस इलाके में तुरंत ही जोर-जोर से आवाजें आने लगीं और राहगीरों को आने वाले खतरों के बारे में आगाह किया जाने लगा. फार्मेसी के मालिक अनुराग घई ने दुकान का शटर गिराया और अपने चार मुलाजिमों समेत दुकान की छत पर आ गए. आलम के अलावा उनके दो मुलाजिम नावेद और अकील भी मुसलमान थे.

थोड़ी देर बाद पुलिस का एक जत्था पड़ोस के उस गेट पर नामूदार हुआ, जो उनके पड़ोसी की छत से लगा था. वह जत्था उस छत पर आने की कोशिश करने लगा, जहां घई और उनके मुलाजिम पहले से खड़े थे. जैसे ही उन्होंने पुलिस वालों को आने के लिए कहा, उन्होंने घई के मुस्लिम कर्मचारियों से सवाल पर सवाल करने शुरू कर दिए; घई ने इसका जिक्र बाद में दिए गए अपने हलफनामे में भी किया है. उन्होंने पुलिस से अपील की कि उनके मुलाजिम उनके यहां काम पर थे और वे किसी भी दंगा-फसाद में शामिल नहीं थे. इसी बीच, घई को यह लगा कि आलम और नावेद छत पर नहीं हैं. वे उन्हें खोजने के लिए नीचे भागे, तो देखा कि पुलिस उन्हें एक गाड़ी में बैठा रही है. पुलिस ने घई से कहा कि वह अपने मुलाजिमों को छुड़ाने के लिए दयालपुर थाने आ जाएं.

अनुराग घई उस दिन और अगले तीन दिनों तक रोजाना थाने के चक्कर काटते रहे, लेकिन वे उनको नहीं छुड़ा सके. घई ने आलम की जमानत के लिए दिए गए अपने हलफनामे में लिखा है, ''पुलिस ऑफिसर ने न तो शादाब को हिरासत में लेने की कोई वजह बताई और न इस बाबत कोई जानकारी ही दी कि उसे कब रिहा किया जाएगा.” आलम के भाई ने भी जाने कितनी बार कोतवाली के चक्कर लगाए, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.

आलम को अगली चार रातों तक दयालपुर थाने में ही रखा गया था, जहां उत्तर-पूर्वी दिल्ली के अलग-अलग इलाकों से पकड़ कर लाए गए 23 अन्य मुस्लिमों को रखा गया था. “पहली रात, कुछ पुलिस वाले आए, उन्होंने हमारा नाम पूछा और फिर हमें जितना पीट सकते थे, पीटते रहे,” आलम ने बताया, “वे शराब में धुत थे. उन्होंने हमें बहुत मारा.”

पकड़ कर लाए गए लोगों को बाथरूम जाने तक की इजाजत नहीं थी, “जब हमने पुलिस अफसरों से कहा कि हमें पेशाब लगी है, तो उन्होंने हमसे कहा कि सेल में ही पेशाब कर लो”, आलम ने कहा. “हमने मुस्लिम युवकों को बाथरूम ले जाते वक्त बुरी तरह पिटते देखा था. यह देख कर हम में से किसी ने भी फिर बाथरूम जाने देने के लिए नहीं कहा.”

उनकी गालियां तो बिल्कुल सांप्रदायिक रंगों में रंगी हुई थीं. आलम ने कहा, पकड़ कर लाए गए लोगों से जबरदस्ती “जय श्रीराम” के नारे लगवाए गए. उन्होंने याद करते हुए कहा कि उस रात पुलिसवालों ने बहुत सारे मुस्लिमों की पिटाई की. वे शेखी बघारते हुए बताते कि उन्होंने उस दिन कितने मुसलमानों को गोलियां मारी है.

दयालपुर के मोहम्मद राजी भी पकड़ कर लाए गए उन युवकों में से थे. उन्हें 24 फरवरी को 2:30 बजे दिन में पकड़ा गया था. उन्होंने बाद में बताया कि वह काम करके घर लौट रहे थे कि रास्ते से ही उन्हें उठा लिया गया. “एक पुलिस वाले ने मेरा नाम पूछा और फिर मुझे डंडे से मारा और अपनी गाड़ी में बैठने को कहा,” राजी ने बताया. थाने आने के रास्ते में पुलिस ने कई मुसलमान लड़कों को जबर्दस्ती उठाया, और इस तरह हमें 4:30 बजे शाम को थाने लाया गया.”

राजी ने भी अगली चार रातों तक हिरासत में उन्हें दी गई भीषण यातनाओं का बयान किया. राजी ने बताया, “पहली रात तो उन्होंने मुझे इतना मारा कि मुझ पर उनकी दो लाठियां टूट गईं. फिर बेल्ट से मेरी पिटाई की गई और रूम हीटर पर पेशाब करने के लिए कहा गया.'' रूम हीटर के तार उघड़े हुए थे और राजी को यह डर सता रहा था कि अगर उन्होंने उस पर पेशाब किया तो उनके यौनांगों में करंट लग जाएगा. “मैं चुपचाप खड़ा रहा. खुद को और पीटे जाने के लिए मन ही मन तैयार करता रहा,” उन्होंने कहा. खैर, पुलिस ने हीटर पर पेशाब करने के लिए उन पर और जोर नहीं डाला.

भारतीय अपराध प्रक्रिया संहिता हिरासत ​में लिए गए किसी व्यक्ति को अदालत में मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए बिना थाने में 24 घंटे से ज्यादा समय तक रखने का अधिकार पुलिस को नहीं देती है. अभियुक्तों के परिवारों की तरफ से वकीलों की एक टीम ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और 28 फरवरी को एक मजिस्ट्रेट ने दयालपुर पुलिस थाने को आदेश दिया कि वह हिरासत में लिए गए युवकों को अदालत में पेश करे. तब जाकर इसके एक दिन बाद पुलिस ने उन्हें अदालत में पेश किया.

मजिस्ट्रेट ने उनके वकीलों को भी पुलिस थाने में अपने मुक्किलों से मिलने की इजाजत दी. हिरासत में लिए गए 24 में से 5 लोगों को उनके वकीलों के वहां पहुंचने से पहले ही अदालत ले जाया गया था. लेकिन आलम और राजी के साथ कुछ अन्य लोग तब तक पुलिस लॉकअप में ही थे. “हम उनकी बुरी हालत को देखकर गहरे सदमें में थे,” उनके वकीलों में से एक ने बताया. ''उन्हें गालियां दी जा रही थीं. पकड़ कर लाए गए कई सारे लोग तो लॉकअप की फर्श पर सुन्न से बैठे हुए थे.”

वकीलों के मुताबिक दिल्ली पुलिस ने हिरासत में लिए गए पहले पांच लोगों को आर्म्स एक्ट के तहत गिरफ्तार दिखाया था, इस प्रावधान का इस्तेमाल अवैध हथियार रखने वाले व्यक्ति के खिलाफ किया जाता है. अदालत ने उन सब को न्यायिक हिरासत में भेज दिया. उन पांचों के वकील तब तक वहां पहुंचे भी नहीं थे कि पुलिस ने अदालत में उनकी पेशी करा दी थी. लेकिन 19 अन्य लोगों को जब पेश किया गया तो उनके वकील वहां मौजूद थे. इन वकीलों ने अपने मुक्किलों पर हिरासत में ढाए गए पुलिसिया जुल्म की शिकायत की, लेकिन पुलिस ने इसे खारिज कर दिया. पुलिस ने इस आरोप से भी इनकार किया कि इन लोगों को अवैध तरीके से हिरासत में लिया गया है और यह कि 24 घंटे की तय सीमा बीतने के बावजूद इन्हें अदालत में पेश नहीं किया गया है. पुलिस ने यह दावा किया कि बाकी सभी 19 लोगों को 24 फरवरी को दर्ज की गई दो एफआइआर के तहत उसी दिन थोड़ा पहले दयालपुर पुलिस थाने के इलाके से गिरफ्तार किया गया था.

10 लोगों को पहले एफआइआर नंबर 57/2020 के तहत गिरफ्तार किया गया था. इन्हें सांप्रदायिक हिंसा भड़कने के दौरान 23 फरवरी की रात को खजूरी खास में शेरपुर चौक के पास स्थित एक चिकन शॉप और वाहनों के जलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. एफआइआर में एक भी साजिशकर्ता का नाम नहीं लिया गया था. दूसरे एफआइआर 58/2020 में हिंसा का आम जिक्र किया गया था और इसमें भी किसी आरोपी के नाम नहीं लिये गए थे. बाकी बचे 9 लोगों को इसी आरोप में गिरफ्तार किया गया था. वकील के मुताबिक, “पुलिस दर्ज की गई दो एफआइआर में बांटे जाने वाले नामों को लेकर स्पष्ट नहीं थी”, जबकि वह इन्हें पेशी के लिए अदालत लाई थी.

यह दावा करने के बावजूद कि इन लोगों को उसी दिन गिरफ्तार किया गया था, पुलिस उन्हें अपनी हिरासत में लेकर उनसे आगे की पूछताछ नहीं करना चाहती थी : लिहाजा, उसने इनकी पुलिस हिरासत मांगने के बजाय अदालत से इन्हें न्यायिक हिरासत में भेजे जाने की गुहार लगाई; जबकि पुलिस हिरासत में उनसे पूछताछ की जा सकती थी.

मजिस्ट्रेट रिचा मनचंदा ने इन लोगों की रिहाई पर गौर नहीं फरमाया. इसकी जगह उन्होंने दो एफआइआर में दर्ज मामलों में एक जैसा देते देते हुए इन अभियुक्तों को 13 मार्च तक न्यायिक हिरासत में रखे जाने का फरमान सुनाया.

आरोपितों के वकीलों ने पुलिस हिरासत में अपने मुवक्किलों को यातनाएं देने के आरोप लगाते हुए इनकी फौरन मेडिकल जांच की मांग की. पुलिस ने इसका विरोध किया और दावा किया कि उनकी जांच पहले ही हो चुकी है. मनचंदा वकीलों की बात से सहमत हो गईं और दिल्ली की मंडोली सेंट्रल जेल पहुंचने पर इन लोगों की मेडिकल जांच की गई. आलम की मेडिकल जांच में खुलासा हुआ कि उनकी “पीठ और नितम्ब पर खरोंच के बड़े निशान” तथा “बाई जांघ, दाईं जांघ के ऊपर और नितम्बों पर गहरे जख्म” हैं.

गिरफ्तार किए गए इन लोगों को अदालत में पेश किए जाने तक यह नहीं मालूम था कि उन्हें किस जुर्म में गिरफ्तार किया गया है. “हमें कुछ भी मालूम नहीं पड़ा कि वे हमारे बारे में क्या बातें कर रहे थे,” राजी ने कहा. जब उन्हें जेल लाया गया, तब राजी को मालूम हुआ कि उन्हें एफआइआर-58 के तहत गिरफ्तार किया गया था. आलम को एफआइआर-57 के तहत गिरफ्तार किया गया था.

आलम के वकील ने 11 मार्च को उनकी जमानत की पहली अर्जी दाखिल की. इस अर्जी में उन्होंने हिरासत में उनके साथ किए गए जुल्म और सबूत के रूप में अपनी मेडिकल जांच रिपोर्ट को पेश किया. साथ ही, अनुराग घई के हलफनामे को भी पेश किया जिसमें उनकी फार्मेसी तथा छत पर लगे सीसीटीवी के फुटेज को सबूत के रूप में पेश किया गया जिसके आधार पर यह साबित करने की कोशिश की गई कि एक दिन पहले गिरफ्तार किए जाने के पुलिसिया दावे के एकदम उलट आलम की गिरफ्तारी चार दिन पहले की गई थी. जमानत अर्जी में कहा गया है, “सच तो यह है कि एफआइआर में किसी भी तथाकथित अभियुक्त का न तो नाम लिया गया है और न ही उसका विस्तृत विवरण दर्ज किया गया है. इसके मायने हैं कि पुलिस ने अपनी मर्जी से मुस्लिम युवकों को चुनचुन कर उठाया और जिन्हें वह गिरफ्तार करना चाहती थी, गिरफ्तार किया.”

हुकुम सिंह ने, जो इस केस के जांच अधिकारी (आइओ) थे, दिल्ली पुलिस की तरफ से अदालत में अपना जवाब पेश किया. उन्होंने दावा किया कि एक अज्ञात ‘खास मुखबिर’ ने उन्हें खबर दी कि 28 फरवरी की 3 बजे भोर में शेरपुर चौक पर कुछ लोग दंगा करने के इरादे से इकट्ठा हुए हैं. इसके बाद पुलिस वहां पहुंची और इन अभियुक्तों को गिरफ्तार किया. हुकुम सिंह ने अपने जवाब में लिखा है, “ये अभियुक्त आम जनता में अव्यवस्था फैलाना चाहते थे,” “शांति भंग करने की कोशिश की”, “देश विरोधी नारे लगाए” और “संपत्ति को जलाने, नुकसान पहुंचाने का काम किया”. उन्होंने अदालत से अपील की कि अगर इन अभियुक्तों को छोड़ा गया तो दंगा और भड़क सकता है. मजिस्ट्रेट विनोद कुमार गौतम ने एफआइआर-57 के तहत गिरफ्तार सभी लोगों के मामले में एक जैसी वजह गिनाते हुए उन्हें जमानत पर रिहा करने से इनकार कर दिया.

आलम के वकीलों ने सेशन जज की अदालत में जमानत के लिए दूसरी अर्जी दाखिल की. इसमें पहली अर्जी की बातों और इसके समर्थन में दिए गए सबूतों को रखते हुए अदालत से अपील की गई थी कि हुकुम सिंह के हलफनामे में अभियुक्त की पहचान के आधार या उस पर लगाए गए तथाकथित गुनाहों के मद्देनजर उसकी भूमिका/गतिविधियों का कोई भी ब्योरा नहीं दिया गया है”. न्यायाधीश सुधीर कुमार जैन ने पुलिस द्वारा एक भी सबूत पेश करने में विफल रहने पर कोई टिप्पणी नहीं की और आलम की जमानत अर्जी खारिज कर दी. जैन ने अपने आदेश में लिखा, “आलम को मौका ए वारदात से ही पकड़ा गया था और वह बड़े पैमाने पर हिंसा और आगजनी के मामलों में लिप्त था.”

आलम के वकीलों ने उसकी जमानत की मांग को लेकर दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. न्यायाधीश मुक्ता गुप्ता ने अपने आदेश में पुलिस की दावे में भारी अंतरों का विस्तार से उल्लेख किया. पुलिस ने दो चश्मदीद होने का दावा किया था हालांकि वह एक चश्मदीद का ही बयान ले सकी थी. यहां तक कि उस बयान में भी, जैसा कि न्यायाधीश गुप्ता ने टिप्पणी की कि “यह सर्वग्राही बयान है और इसमें किसी अभियुक्त की पहचान नहीं होती है.” न्यायाधीश ने “पुलिस कस्टडी की मांग न करने को” बहुत अजीब बताया और बचाव पक्ष के इस निवेदन को दर्ज किया कि सीसीटीवी फुटेज इस बात की तस्दीक करते हैं कि आलम और नावेद को 24 फरवरी को ही गिरफ्तार किया गया था. “निश्चित रूप से याचिकाकर्ता और सह अभियुक्त की गिरफ्तारियों को लेकर एक रहस्य बना हुए है,” मुक्ता गुप्ता ने लिखा, “जो याचिकाकर्ता के शरीर पर बने जख्मों के निशान से और पुष्ट होता है.” पुलिस के दावों पर संदेह होने के इतने सारे कारण गिनाने के बावजूद न्यायाधीश गुप्ता ने आलम की जमानत अर्जी खारिज कर दी.

पुलिस ने इस केस में अप्रैल में चार्जशीट दाखिल की. उसने 10 अभियुक्तों में से 9 के कबूलनामे को दर्ज किया. इन बयानों में से सात आरोपितों के बयान एक जैसे थे. यह उन बयानों के मनगढंत होने की तरफ इशारा करता था. अन्य दो बयानों के कुछ हिस्सों की भाषा एक जैसी थीं. ठीक एक जैसी जुबान में सातों अभियुक्तों ने अपने गुनाह कबूल किए थे. “हमने वहां खड़े दूसरी बिरादरी के लोगों को डंडे से मारा” सभी सातों ने बाद में एलान किया, “हम आज भी झगड़े के इरादे से वहां खड़े थे”. सभी नौ बयान इस कबूलानामे से खत्म होते थे, “मुझसे गलती हो गई, माफ किया जाए.”

आखिरकार आलम को मई में जमानत पर रिहा किया गया, जब एक जज ने टिप्पणी की कि चार्जशीट दायर होने के बाद अभियुक्त को न्यायिक हिरासत में रखने से कोई मकसद हल नहीं होता है. एफआइआर-57 के तहत गिरफ्तार सभी अभियुक्तों को रिहा किया जा रहा है. मामले की सुनवाई जारी रहेगी. एफआइआर-58 के तहत नामजद लोग अभी भी सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं और उनमें से कई अभी भी जेल में हैं.

जब आलम और अन्य लोगों को जब दयालपुर थाने में रखा जा रहा था, हिंदू भीड़ ने पूरी उत्तरी दिल्ली में अपना कहर बरपाया था. मुसलमानों के घरों और उनकी परिसंपत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया था. इस दंगे में 50 से ज्यादा लोग मारे गए थे, जिनमें बड़ी तादाद मुसलमानों की थी. कुछ लोगों की मौत उन्हें बुरी तरह से पीटे जाने की वजह से हुई थी तो बाकी लोगों को चाकुओं से गोद दिया गया था या गोली मारी गई थी. कारवां ने एक वीडियो प्रसारित किया था, जिसमें एक हिंदू दंगाई ने बिना किसी पछतावे के हमलों में हिस्सा लेने और तीन मुसलमानों को जिंदा जलाने का बखान किया था.

हजारों मुसलमानों ने अपने घर गंवाए थे या मारे खौफ के अपने घरों से भाग गए थे. मुसलमानों के कारोबारों को खास तौर पर निशाना बनाया गया था. अंदर से ढही हुई और जली ये इमारतें आज भी खड़ी हैं और इनकी बगल में हिंदुओं की संपत्तियों को खरोंच भी नहीं लगी है. दंगे में कई मस्जिदें भी आग के हवाले कर दी गई थीं.

भारतीय गणतंत्र में लक्षित और व्यापक सांप्रदायिक हिंसा का हमेशा से एक स्थानिक स्वरूप रहा है. फरवरी में हुई हिंसा में खासकर 1984 की मजबूत प्रतिध्वनियों को सुना जा सकता है, जब उन्मादी हिंदू भीड़ ने देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 3,000 सिखों का संहार कर दिया था और इसके बाद, सन् 2002 में गुजरात में कम से कम 7,000 मुसलमानों का संहार किया था. दोनों मामलों में आईं ढेरों रिपोर्टें इनमें राजनीतिक नेतृत्व और पुलिस का सीधा हाथ होने की ओर इशारा करती हैं; केवल आधिकारिक रिपोर्टें ही उनकी जटिलता को बढ़ाती है.

2019 में एक रैली को संबोधित करते बीजेपी नेता कपिल मिश्रा. कई सारी शिकायतों में कपिल मिश्रा के खिलाफ उत्तर-पूर्व दिल्ली में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा भड़काने और उनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने का आरोप लगाया गया है.. सोनू मेहता/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस2019 में एक रैली को संबोधित करते बीजेपी नेता कपिल मिश्रा. कई सारी शिकायतों में कपिल मिश्रा के खिलाफ उत्तर-पूर्व दिल्ली में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा भड़काने और उनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने का आरोप लगाया गया है.. सोनू मेहता/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस
2019 में एक रैली को संबोधित करते बीजेपी नेता कपिल मिश्रा. कई सारी शिकायतों में कपिल मिश्रा के खिलाफ उत्तर-पूर्व दिल्ली में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा भड़काने और उनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने का आरोप लगाया गया है. सोनू मेहता/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस
फरवरी में, दिल्ली में हुई हिंसा भारतीय मुसलमानों के खिलाफ सालों से चले आ रहे दोषारोपण का हिस्सा थी, जिसे भारतीय जनता पार्टी के वैचारिक पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदुत्व ताकतों को उकसा कर मुमकिन किया था. सीएए विरोधी प्रदर्शन हिंदुत्व प्रोजेक्ट के खिलाफ सबसे घने हालांकि लोकप्रिय प्रतिरोधों की अभिव्यक्ति थे,जिसने कपिल मिश्रा को इस तरह से उत्तेजित कर दिया था. हमले के दौरान और उसके बाद बहुत सारे सबूत उभर कर सामने आए हैं, जो दिल्ली पुलिस और बीजेपी की सांठगांठ को दर्शाते हैं.इस हिंसा से उबरे हुए दो दर्जन से अधिक लोगों और गवाहों ने हमें बताया कि वे हिंसा के दौरान और उसके बाद अपने साथ हुई ज्यादतियों के बारे में विस्तार से अधिकारिक शिकायत दर्ज कराने कई बार पुलिस थाने गए थे. उनमें से अधिकतर लोगों को तो भगा दिया गया, ज्यादातर मामलों में उन्हें गालियां दे कर खदेड़ दिया गया और धमकियां दी गईं कि अगर उन्होंने शिकायत दर्ज कराने पर जोर दिया तो उन्हें फर्जी मुकदमों में फंसा दिया जाएगा. ज्यादातर शिकायतकर्ताओं ने कहा कि उनकी शिकायतें मान भी ली गईं तो पुलिस ने पुलिस और राजनीतिक गठजोड़ की ओर इशारा करने वाले विवरणों को उनमें से जानबूझकर हटा दिया. यहां तक कि पुलिस अधिकारियों और बीजेपी नेताओं के नाम भी हटा दिए.

कई मुसलमान तो मुस्तफाबाद के ईदगाह मैदान पर बने अस्थायी राहत शिविरों में पुलिस हेल्प डेस्क पर ही अपनी शिकायतें दर्ज करा सके थे. यह शिविर मार्च तक काम करता रहा था. इन शिकायतों पर उस थाने या संबद्ध थानों की मुहरें लगी रहती थीं. इन शिकायतों में से कुछेक की कॉपी भी की गई और उनमें से कई शिकायतों को प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय, दिल्ली के उपराज्यपाल के दफ्तर और अनेक पुलिस थानों में भी भेजे जाने को चिह्नित किया गया था.

कारवां के पास ऐसी ढेर सारी शिकायतें हैं, जिन्हें उत्तर-पूर्व दिल्ली के बाशिंदों ने फरवरी में दर्ज कराया था. कई लोगों ने वीडियो इंटरव्यू भी दिए हैं, जिनमें उन्होंने अपनी शिकायतों को दोहराया है ओैर कहा है कि केस वापस लेने के लिए पुलिस उन पर दबाव डाल रही है.

एक महिला शिकायतकर्ता ने दर्ज कराया है कि उसने पड़ोस के चांद बाग इलाके में तीन सीनियर पुलिस अफसरों को प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाते और उनकी हत्या करते देखा है. एक दूसरी महिला ने दर्ज कराया कि उसने असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर को फोन पर कपिल मिश्रा को यह भरोसा दिलाते सुना है कि “ फ्रिक न करें, हम गलियों को उनकी लाशों से इस कदर पाट देंगे कि वह कई पीढ़ियों तक इसे याद रखेंगे.” हालांकि एक अन्य शिकायत में कहा गया है कि उसने पुलिस अफसरों को एक मस्जिद और मदरसे को लूटने व उन्हें फूंके जाने के पहले उनका मुआइना करते देखा था. यहां से लूटी गई रकम को बीजेपी नेता सत्यपाल सिंह के घर भेजने का निर्देश देते सुना था.

उत्तर प्रदेश के बागपत से भारतीय जनता पार्टी के सांसद सत्य पाल सिंह का नाम कई शिकायतों में लिया गया है. उनके और कपिल मिश्रा के अलावा, जिन बीजेपी नेताओं के नाम दर्ज कराए गए हैं, उनमें उत्तर प्रदेश के लोनी से बीजेपी विधायक नंद किशोर गुर्जर भी शामिल हैं. लोनी दिल्ली की सीमा पर है, जो उत्तर-पूर्वी दिल्ली और उत्तर प्रदेश को अलग करता है. बागपत यहां से 25 किलोमीटर दूर उत्तर में पड़ता है.

शिकायतों में, दिल्ली के करावल नगर क्षेत्र से बीजेपी विधायक मोहन सिंह बिष्ट और पूर्व विधायक जगदीश प्रधान भी शामिल हैं. प्रधान, हिंसा से कुछ ही हफ्ते पहले हुए विधानसभा चुनाव में मुस्तफाबाद सीट से हार गए थे.

बीबी, बच्चों के साथ खड़े इकराम. इकराम का कहना है कि उनके साथ चार मुस्लिम युवकों को 24 फरवरी की रात को खजूरी खास थाने में यातनाएं दी गई थीं. पेशे से दर्जी इकराम ने कहा कि पुलिस ने उन्हें फर्जी तरीके से फंसाया और जमानत पर छूटने से पहले उन्हें तीन महीने जेल में रहना पड़ा.. शाहीन अहमद/कारवांबीबी, बच्चों के साथ खड़े इकराम. इकराम का कहना है कि उनके साथ चार मुस्लिम युवकों को 24 फरवरी की रात को खजूरी खास थाने में यातनाएं दी गई थीं. पेशे से दर्जी इकराम ने कहा कि पुलिस ने उन्हें फर्जी तरीके से फंसाया और जमानत पर छूटने से पहले उन्हें तीन महीने जेल में रहना पड़ा.. शाहीन अहमद/कारवां
बीबी, बच्चों के साथ खड़े इकराम. इकराम का कहना है कि उनके साथ चार मुस्लिम युवकों को 24 फरवरी की रात को खजूरी खास थाने में यातनाएं दी गई थीं. पेशे से दर्जी इकराम ने कहा कि पुलिस ने उन्हें फर्जी तरीके से फंसाया और जमानत पर छूटने से पहले उन्हें तीन महीने जेल में रहना पड़ा. शाहीन अहमद/कारवां
जिन पुलिस अफसरों के बारे में शिकायतें की गई हैं, उनमें डिप्टी पुलिस कमिश्नर वेद प्रकाश सूर्य भी शामिल हैं, जो कपिल मिश्रा के भड़काऊ भाषण के वक्त उनके बाजू में खड़े थे. उनके साथ ही, अतिरिक्त पुलिस कमिश्नर अनुज कुमार और दिनेश शर्मा के नाम भी दर्ज कराए गए हैं. इनके अलावा, हिंसा के दरम्यान दयालपुर थाने के एसएचओ रहे तारकेश्वर सिंह और उनके पड़ोसी भजनपुरा थाने के एचएचओ रहे आर एस मीणा के भी नाम लिये गए हैं.

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्देशों-आदेशों में बार-बार ताकीद की है कि संज्ञेय अपराध की किसी भी शिकायत पर एफआइआर दर्ज करना पुलिस का कर्त्तव्य है. फिर भी, शिकायतों में दर्ज किए गए बीजेपी नेताओं में से एक के भी खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई. यहां तक कि प्राथमिकी में दर्ज पुलिसवालों में से एक के भी खिलाफ न तो विभागीय जांच कराई गई और न उन पर कार्रवाई हुई. पुलिस ने यह कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया कि ये शिकायतें काफी देर से की गईं, लेकिन उसने कई शिकायतों में दर्ज इस तथ्य को भी नजरअंदाज कर दिया कि पुलिस ने मामला दर्ज न कराने के लिए लोगों पर किस हद तक दबाव डाला, और कि किस तरह पुलिस ने अहम ब्योरे और नामों को दबा दिया.

इतना ही नहीं, दिल्ली पुलिस मुसलमानों पर किए गए हमलों के अहम पहलुओं की जांच करने में भी बुरी तरह नाकाम रही है. बहुत सारी शिकायतों में यह खुलासा किया गया है कि उन्मादी हिंदू भीड़ ने किस तरह उन पर गोलियां चलाई, उन पर पेट्रोल बम फेंके और भजनपुरा पुलिस थाने से सटे, एक प्राइवेट मोहन नर्सिंग होम और अस्पताल की छत से पुलिस की मौजदूगी में उन पर पत्थर बरसाए गए. उस समय के कई वीडियो सामने आए हैं, जो यह दिखाते हैं कि जिस वक्त नर्सिंग होम की छत से हिंदू दंगाई गोलियां बरसा रहे थे, उसी समय सामने की छत पर अपनी जान बचाने की कोशिश करते एक मुस्लिम युवक को गोली मार दी जाती है. पुलिस ने अस्पताल में हुए इस वाकयात की जांच की भी जहमत नहीं उठाई.

उन्मादी हिंदू भीड़ और पुलिस तथा नेताओं की सांठगांठ की जांच करने के बजाए दिल्ली पुलिस ने शक-शुबहा पैदा करने वाले सबूतों के आधार पर सैकड़ों मुस्लिम बाशिंदों को ही दागी ठहरा दिया. यह दावा किया कि नागरिक कार्यकर्ताओं, सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों तथा मशहूर मुस्लिम हस्तियों ने इस हिंसा की साजिश रची. दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने दंगे के तथाकथित साजिशकर्ताओं के खिलाफ बेहद कठोर कानून गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत मामला दर्ज किया है. इसके तहत 19 लोग अगस्त महीने के आखिर तक गिरफ्तार किए जा चुके थे. इनमें से मात्र एक व्यक्ति जमानत पर रिहा हुआ था.

गुजरात में, नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते 2002 में मुस्लिम विरोधी हिंसा हुई थी. जिन पुलिस अफसरों ने अपने हलकों में मुसलमानों के खिलाफ खून-खराबे को रोकने की कोशिश की थी या जिन्होंने इस हिंसा में नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के हाथ खून से रंगे होने का आरोप लगाया था, उन्हें दंगा थमने के बाद दंडित किया गया था. ऐसे पुलिस अफसर, जिन्होंने उन्मादी और हिंसक भीड़ को अपनी मनमर्जी करने की खुली छूट दी थी तथा दंगों के लिए कसूरवार ठहराए जा रहे राजनीतिक नेतृत्व का बचाव किया था, उन्हें पुरस्कृत किया गया था. उस समय, गुजरात पुलिस सीधे-सीधे प्रदेश के गृह मंत्री अमित शाह के प्रति जवाबदेह थी. दिल्ली पुलिस भी केंद्र सरकार और खास कर गृह मंत्रालय के प्रति जवाबदेह है. मौजूदा केंद्र सरकार के मुखिया नरेन्द्र मोदी हैं, जबकि गृह मंत्री अमित शाह हैं.

दयालपुर थाने में पकड़ कर रखे गए लोगों में एक 17 वर्षीय मुस्लिम किशोर था, जिसका नाम एफआइआर-58 में दर्ज किया गया था. पुलिस हिरासत में उसके साथ किए गए सलूक का ब्योरा आलम और राजी से मिलता-जुलता है. उसने बताया, “24 फरवरी को मैं अपने काम पर से घर लौट रहा था, जब पुलिस अधिकारियों ने मुझे रोका. उन्होंने मुझसे मेरा नाम पूछा और डंडों से पीटने लगे. फिर मुझे अपनी गाड़ी में बैठा लिया. उस गाड़ी में तीन-चार लोग पहले से ही बैठे हुए थे, वे सभी मुस्लिम थे.”. दयालपुर पुलिस थाने में उन लोगों को लॉकअप में इंतजार करने को कहा गया. फिर जल्दी ही उनकी पिटाई शुरू हो गई. “वह आए और बेल्टों से हमें पीटने लगे,” उस 17 वर्षीय किशोर ने कहा. “हमने उनसे कहा कि हम बस अपना काम-धंधा कर रहे थे. यह बात वे भी जानते थे. यह पिटाई इतनी निर्मम थी कि पुलिस ने “अपनी बेल्ट और डंडे तक हम पर तोड़ डाले”. उसने पैरों को बांध कर की गई पिटाई के बारे में बताते हुए अपनी पूरी पीठ और देह पर जहां-तहां उभरे निशानों को भी दिखाया.

जब कोई पिटाई से अपना होश-हवास खो बैठता तो वे उसके चेहरे पर पानी के छींटे मारकर होश में लाते और कहते “साले ड्रामा कर रहा है. वे फिर से उसकी पिटाई करने लगते.” कई लोगों को छत पर ले जाया गया था. लौट कर उन्होंने बताया कि वहां उन्हें पहले नंगा किया गया और फिर पीटा गया.” पिटाई का यह सिलसिला 28 फरवरी को अदालत में बंदियों की पेशी तक जारी रहा. बंदियों को बाथरूम तक जाने की इजाजत नहीं थी. “अगर कोई (पेशाब जाने के लिए) कहता तो पुलिस वाले बाथरूम जाने तक डंडे से उसे पीटते जाते”, 17 वर्षीय किशोर ने बताया. “मैंने पैंट में ही कई बार पेशाब कर दी थी.” उसे शौच जाने की जरूरत नहीं थी क्योंकि ''हमने कुछ खाया नहीं था.” हिरासत में रखने के कई दिनों के बाद, “हमें पहली बार 27 फरवरी को खाने के लिए पूरी और सब्जी दी गई थी. इसके पहले, वह हमें केवल पानी देते थे.” बंदियों को हर रोज ''दो लीटर की दो पानी की बोतलें'' दी जाती थीं, जिनमें सभी को काम चलाना होता था. उस किशोर ने बताया, “बंदियों को रात में जाड़ा लगता था, लेकिन उन्हें ओढ़ने के लिए कुछ नहीं दिया गया था.”

सीएए विरोधी मुस्लिम प्रदर्शनकारियों और हिंदू भीड़ के बीच हिंसा की गवाह बनी यमुना विहार और चांदबाग को बांटने वाली वजीराबाद की सड़क. हिंदू भीड़ के साथ पुलिस भी दिखाई दे रही है.. 

पूरा रिपोर्ताज पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


प्रभजीत सिंह व अर्शु जॉन, https://hindi.caravanmagazine.in/politics/the-bjp-and-delhi-police-hand-in-the-delhi-violence-hindi


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