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न्यूज क्लिपिंग्स् | राजद्रोह: जुबान बंद रखो, वरना...

राजद्रोह: जुबान बंद रखो, वरना...

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published Published on Mar 15, 2021   modified Modified on Mar 15, 2021

-आउटलुक,

“राजद्रोह कानून का दुरुपयोग चिंताजनक हद तक बढ़ा”

तानाशाही और लोकलुभावनवाद का जोर जिस दौर में स्थापित लोकतंत्रों में भी बढ़ रहा है, राजद्रोह का कानून सरकार का पसंदीदा औजार बन गया है। भारत में पहले भी कई सरकारें राजनैतिक वजहों से राजद्रोह कानून का इस्तेमाल करती रही हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से असहमति को गैर-कानूनी साबित करने के लिए इसका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग भारी चिंताजनक है। इसे लोकतंत्र में गिरावट और सत्तारूढ़ लोगों की बेचैनी, दोनों का संकेत माना जा सकता है। राजद्रोह के विचार में उग्र राष्ट्रवाद की भावना जुड़ी हुई है, जो सत्ता में बैठे लोगों के सार्वजनिक विमर्श का केंद्रीय तत्व है। अगर राष्ट्र को खतरे में मानते हैं तो कुछ लोगों पर राष्ट्र-विरोधी होने का तमगा मढ़ना जरूरी हो जाता है। वे एक्टिविस्ट, कलाकार, पत्रकार, छात्र, यहां तक कि व्यंग्यकार और कॉमेडियन भी हो सकते हैं। वे पर्यावरण मुद्दे पर अभियान चलाने वाले, परमाणु बिजली संयंत्र का विरोध करने वाले से लेकर आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी जमीन से विस्थापन का विरोध करने वाले भी हो सकते हैं। यहां तक कि राष्ट्र के खिलाफ महा-षड्यंत्र रचने जैसे बेतुके आरोप भी राष्ट्रवाद-विरोध की बहस का हिस्सा हो सकते हैं।

यकीनन राजद्रोह की बहस सरकार के लिए चीजें आसान कर देती है, क्योंकि इससे देश राष्ट्र-प्रेमियों और राष्ट्र-विरोधियों में बंट जाता है। इसके जरिए दमन और अन्याय को भी जायज ठहराया जाता है। सरकार किस हद तक जा सकती है, इसकी भी कोई सीमा नहीं है। पूरी की पूरी यूनिवर्सिटी को राष्ट्र-विरोधी बताया जा सकता है और जानी-मानी शख्सियतों पर भी सिर्फ इसलिए आरोप मढ़े जा सकते हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी कि असहमति के बिना लोकतंत्र का वजूद नहीं रह सकता। बिहार के मुजफ्फरपुर में 2019 में ऐसी ही चिट्ठी लिखने वाले 49 शख्सियतों पर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के आदेश पर एफआइआर दर्ज कर ली गई थी। इन शख्सियतों में श्याम बेनेगल, मणि रत्नम और अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकार, सौमित्र चटर्जी, अपर्णा सेन और रेवती जैसी अभिनय क्षेत्र की शख्सियतें, इतिहासकार रामचंद्र गुहा और शास्त्रीय गायिका शुभा मुदगल जैसे लोग थे। बाद में यह मुकदमा वापस ले लिया गया।

राजद्रोह के कानून के दुरुपयोग को देखने के दो तरीके हैं। एक, आज असहमति और विरोध को दबाने के लिए इसका जिस तरह इस्तेमाल हो रहा है, और दूसरे, दशकों से केंद्र और राज्य सरकारें इसका जैसा इस्तेमाल करती रही हैं। यह सही है कि एनसीआरबी (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) के आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धारा 124ए का इस्तेमाल लगातार बढ़ता जा रहा है। 2015 में 30, 2016 में 35, 2017 में 51, 2018 में 70, और 2019 में 93 मामले दर्ज हुए। और ठहरिए, पूरी तस्वीर इतनी-सी नहीं है। इस कानून का दुरुपयोग हर रंग-पात के निर्वाचित नेताओं के तहत किया जाता रहा है।

2015 में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता की सरकार ने शराब नीति की आलोचना करने पर लोक गायक एस. कोवम पर राजद्रोह का मुकदमा मढ़ दिया। साल भर बाद केरल में ओमान चांडी की कांग्रेस सरकार की पुलिस ने मल्लापुरम में एक आदमी को इसलिए गिरफ्तार कर लिया कि उसके सोशल मीडिया पोस्ट में सेना के एक शहीद को कथित तौर पर खराब ढंग से पेश किया गया था। 2016 में कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धरमैया की कांग्रेस सरकार के तहत पुलिस ने बेहतर वेतन और जीवन-यापन की मांग करने वाले अपने दो अधिकारियों पर राजद्रोह का मुकदमा लगा दिया।

इन मामलों और हाल में एक्टिविस्टों और पत्रकारों के खिलाफ दिल्ली पुलिस के मामलों को बेशक कानून का बिना सोचे-समझे इस्तेमाल कहा जा सकता है। पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि की जमानत मंजूर करने के दौरान दिल्ली की एक अदालत ने यह बात खुलकर कही भी। अदालत ने कहा, “हर लोकतांत्रिक देश में लोग सरकार के नैतिक पहरुए होते हैं... कोई राज्य की नीतियों से असहमत है तो सिर्फ इसी आधार पर जेल में नहीं डाला जा सकता... राजद्रोह का अपराध सरकार के आहत अभिमान को सहलाने के लिए चस्पां नहीं किया जा सकता।”

आइपीसी की धारा 124ए के तहत राजद्रोह के ज्यादातर मामलों में एक आम बात यह है कि उनमें बमुश्किल ही सजा हो पाती है। लेकिन इससे आरोपी व्यक्ति पर बेइंतहा परेशानियां टूट पड़ती हैं। वह सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं कर सकता, उसे अपना पासपोर्ट जमा करना होता है और भारी कानूनी और भावनात्मक कीमत चुकानी पड़ती है। जो थकाऊ मुकदमा झेल रहे हैं, उनके लिए कानूनी प्रक्रिया ही सजा बन जाती है। चाहे मुकदमे का नतीजा जो भी निकले, राजद्रोह के हर मामले में लोकप्रिय नेताओं पर सवाल उठाने वालों पर परेशानियां और दाग झेलना पड़ता है।

एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि कई साल से बिना उपयुक्त आरोप-पत्र के राजद्रोह के मुकदमे बढ़ रहे हैं। ज्यादातर मामलों में सरकार या कानून पर अमल करने वाली एजेंसियों को आरोप-पत्र दाखिल करने की जल्दबाजी ही नहीं दिखती। 2015 से 2019 के बीच राजद्रोह के मामले 30 से तिगुना होकर 93 पर पहुंच गए, जबकि 135 मामले उसके पिछले वर्षों से लंबित हैं। इनमें सिर्फ 40 मामलों में आरोप-पत्र दाखिल किया गया, 29 लोग बरी हो गए और एक को सजा हुई। सजा की दर कम होने की एक वजह यह है कि ज्यादातर मामले राजद्रोह की परिभाषा में सही नहीं ठहरते, न्यायिक समीक्षा में खरे नहीं उतरते। कथित तौर पर राष्ट्र-विरोधी नारा लगाने के मामले इसके तहत नहीं आने चाहिए, जब तक उससे हिंसा न फैले। 1975 में सुप्रीम कोर्ट बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में फैसला दे चुका है कि खालिस्तान का नारा लगाना राजद्रोह नहीं, क्योंकि उससे समुदाय के दूसरे लोगों में प्रतिक्रिया नहीं होती।

इसके बावजूद बेंगलूरू की छात्रा अमूल्या लियोन नोरोहा पर पिछले साल राजद्रोह का आरोप मढ़ दिया गया। उसने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शन में ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ और उसके फौरन बाद ‘हिंदुस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाए और उसके बाद उसे अपनी बात पूरी करने से रोक दिया गया। उसे तीन महीने जेल में बिताने पड़े और जमानत तभी मिली, जब पुलिस 90 दिनों की तय अवधि में आरोप-पत्र दाखिल नहीं कर पाई। जेएनयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के कई छात्र आज भी कथित तौर पर राष्ट्र-विरोधी नारे लगाने के आरोप झेल रहे हैं। कई बातें हिंसा को बढ़ावा देने वाली साबित नहीं की जा सकतीं। लेकिन कानूनी प्रक्रिया अमूमन मायने ही नहीं रखती, जब एकमात्र उद्देश्य संभावित विरोधियों में डर पैदा करना हो।

तथ्य यह भी है कि आइपीसी में राजद्रोह की धारा 1870 में शामिल की गई। इसी से जाहिर है कि उसका मकसद अंग्रेजी राज के खिलाफ आवाज उठाने पर अंकुश लगाना था। उसे ब्रितानी कानून के आधार पर बनाया गया था लेकिन ब्रिटेन में राजद्रोह का कानून 2009 में खत्म कर दिया गया। भारत में यह कानून न सिर्फ बना रहा, बल्कि आजादी के सात दशक बाद इसमें तेजी आ गई है। सिद्धांत में इसके लिए अलगाव और दुश्मनी भड़काने की कोशिशों की बातें हैं, लेकिन इन पर शायद ही गंभीरता से गौर किया जाता है। दो-टूक कहा जाए तो बिना वास्तविक वैमनस्य भड़काए असहमति का इजहार, मानहानि या अलहदा विचार राजद्रोह के दायरे में नहीं आते।

इस दायरे में देखें तो हाल का लगभग कोई भी मामला राजद्रोह की न्यायिक समीक्षा पर खरा नहीं उतरता। चाहे वह किसान आंदोलन के पक्ष में सोशल मीडिया ‘टूलकिट’ साझा करने का पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि का मामला हो, या मुंबई में धार्मिक दुर्भावना भड़काने का कंगना रनौत पर आरोप हो या कथित तौर पर किसान आंदोलन की भ्रामक खबर देने के लिए कांग्रेस नेता शशि थरूर, पत्रकार राजदीप सरदेसाई, मृणाल पांडे तथा दूसरे लोगों के खिलाफ मामला। दिशा रवि की जमानत अर्जी पर फैसले के दौरान दिल्ली की अदालत की कानून की व्याख्या पर गौर करें तो दिशा या दूसरे एक्टिविस्टों और पत्रकारों के खिलाफ मामला बनता ही नहीं है।

पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


विपुल मुदगल, https://www.outlookhindi.com/view/general/sedition-by-govt-opinion-vipul-mridgul-56550


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