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न्यूज क्लिपिंग्स् | भारत की जेलों में कैद औरतों की अनकही कहानियां

भारत की जेलों में कैद औरतों की अनकही कहानियां

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published Published on Aug 7, 2021   modified Modified on Aug 8, 2021

-जनपथ,

सावित्री को जेल में छह साल हो गये हैं। जमानत तो नहीं हुई, केस भी जाने कब खतम हो। पति के अत्याचारों से तंग आने पर एक दिन हाथापाई में उसकी हत्या हो गयी। अब मायके और ससुराल वालों के साथ ही बच्चे भी पिता की हत्यारिन मानकर उसकी सुध नहीं लेते हैं। रामरति से उसके अपनों ने भी इसलिए मुंह फेर लिया कि पति और ससुराल वालों के अत्याचारों से तंग आकर अपने दोनों बच्चों को मारकर खुद पंखे से लटक गयी थी, लेकिन बचा ली गयी। वह मरी तो नहीं लेकिन अब जिन्दा लाश बनकर जेल काटने को मजबूर है। फरज़ाना की बहू ने गुस्से में जहर खा लिया और दहेज हत्या में बेटा और मां दोनों पिछले आठ साल से जेल में हैं। कोई करीबी नहीं है जो कि भागदौड़ करके उनकी हाइकोर्ट से जमानत करवा ले। महज 19 साल की थी जब संगीता जेल में आयी, प्रेमी के साथ पति की हत्या में शामिल होने के अपराध में। तीस साल की होने को है, न प्रेमी ने पूछा न मायके वालों ने। सीधी-सादी गांव की बहू जेल के कायदे सीख कर दबंग तो हो गयी है लेकिन उसके भीतर का दर्द उसकी खामोश आंखें बयां करती हैं। वर्षों, महीनों, दिनों को गिनती भूलती कितनी ही महिलाएं जेल की कैद से आज़ादी की चाहत में असमय ही दुनिया से चली जाती हैं या इतनी संवेदनहीन हो जाती हैं कि उनका जीवन महज खाना और सोने तक ही सीमित रह जाता है।

आज़ादी का ख्वाब दिल में पाले देश की जेलों में कैद महिलाओं की अनगिनत कहानियां हैं। इनमें से कितनी गुनाहगार हैं और कितनी बेगुनाह हैं, यह आमतौर पर कानून नहीं, बल्कि पुलिस के गढ़े गये सबूतों के साथ-साथ समाज और अदालतों का पितृसत्तात्मक नज़रिया तय करता है। कुछ पेशेवर अपराधी महिलाओं को छोड़ दें तो अधिकांश महिलाएं समाजिक मूल्यों और महिला विरोधी परम्पराओं के दबाव, पुरुषों द्वारा गुलाम बनाकर रखने की मनोवृत्ति और औरत के प्रति परिवार के उपेक्षित रवैये के कारण अपराधी बन जाती हैं या बना दी जाती हैं, जिस पर अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है।

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि आज भी पुलिस-प्रशासन का जेण्डर दृष्टिकोण सामन्ती और पिछड़ा है। यहां तक कि महिला पुलिस अधिकारी और कर्मचारी भी उन्हीं महिला विरोधी मानदण्डों और गालियों का प्रयोग बेधड़क करती हैं जो कि पुरुषों द्वारा किये जाते हैं। सवर्ण पितृसत्तात्मक मानसिकता का इतना अधिक प्रभाव यहां पर होता है कि पुलिसकर्मी महिला मामलों को संवेदनशील तरीके हल करने में सक्षम नहीं होते हैं। अधिकांश तो महिला को अपराधी सिद्ध कर देने भर की ड्यूटी तक ही सीमित रहते हैं। कई बार यह देखा गया है कि महिलाकर्मी पुरुषवादी दृष्टिकोण से महिला अपराधियों के साथ ज्यादा अमानवीय और अभद्र व्यवहार करती हैं। चोरी, देह व्यापार से जुड़ी या गरीब महिला अपराधियों, विशेषकर दलितों और मुस्लिम महिलाओं की गिरफतारी के समय पुलिसकर्मी नियमों का पालन नहीं करते हैं। पुरुष कर्मियों द्वारा महिलाओं के साथ महिला पुलिसकर्मी की उपस्थिति में भी अपमानजनक व्यवहार किया जाता है, लेकिन वे या तो चुप लगा जाती हैं या फिर इस प्रक्रिया में काफी हद तक शामिल हो जाती हैं।         

जब महिला बन्दियों को कोर्ट की पेशी के लिए ले जाया जाता है तो महिलाएं पूरा दिन संकोच और डर से पेशाब अथवा अन्य प्राकृतिक जरूरत नहीं बता पाती हैं। यहां पर महिला बन्दियों के लिए कोई अलग व्यवस्था पहले तो होती नहीं है, यदि हो भी तो वहां तक जा पाने की राह बहुत कठिन होती है। बन्दी महिलाएं तमाम शारीरिक और मानसिक परेशानी से गुजरती हुई कितनी प्रकार की बीमारियों को ढोती हैं, लेकिन सिपाहियों का डर और उनकी निगरानी में बैठी बन्दी महिलाओं को दर्द झेलने की आदत पड़ जाती है। यदि कोई महिला हिम्मत करके अपनी जरूरत बता भी दे तो या तो महिला गार्ड उसको धमका देती हैं या फिर पुरुषकर्मियों की घूरती निगाहें उनकी जरूरत को दबा देती हैं। अदालत की तारीख के दिन यदि किसी महिला बन्दी का महावारी का समय हो तो आठ से दस घण्टे जमीन पर बैठना अत्यंत पीड़ादायी और अमानवीय होता है।

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


चंद्रकला, https://junputh.com/open-space/state-of-women-inmates-in-indian-jails-and-untold-stories/


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