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न्यूज क्लिपिंग्स् | अपनी सभ्यता की शर्तों पर- रमेशचंद्र शाह

अपनी सभ्यता की शर्तों पर- रमेशचंद्र शाह

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published Published on Jul 20, 2014   modified Modified on Jul 20, 2014
जनसत्ता 15 जुलाई, 2014 : तात्कालिक आवश्यकता इस समाज में ही अतर्निहित, लेकिन दबी-घुटी मूल्य चेतना और आत्म-ज्ञान को उभारने-जगाने की है। फिलहाल लक्षण कुछ ऐसे ही प्रतीत हो रहे हैं कि नया राजनीतिक नेतृत्व अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में इस मानी में ज्यादा संवेदनशील और जनोन्मुखी होगा। अवसरवादियों-चाटुकारों, नकलचियों और अल्पसंख्यक-तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले दंभी पुण्यात्माओं का अभयारण्य नहीं, जो कि अपने ही देश को उपनिवेश की तरह बरतते रहे हैं। सभी क्षेत्रों के बुद्धिमान और कर्मठ लोगों के बीच वास्तविक समस्याओं को लेकर जीवंत-पारस्परिक आदान-प्रदान, क्रिया-प्रतिक्रिया का वातावरण बने, तभी जो एक लाइलाज दुश्चक्र-सा बन गया है पिछले पचास-साठ बरसों के दौरान- हमारे समाज का बौद्धिक, भावनात्मक और आर्थिक शोषण करने वालों का, उसके टूटने की संभावना बनेगी।

अंतत: समूचे समाज और समूची सभ्यता की ओर से अपने खुद के कमाए गए ज्ञान और विवेक के बलबूते सोचने करने वाला ही ‘बुद्धिजीवी’ कहलाने का अधिकारी होता है, न कि किन्हीं अमूर्त और परोपजीवी अवधारणाओं को लेकर जुआ खेलने वाला। पर इसके लिए उस कोटि के स्वावलंबन की और सांस्कृतिक आत्मविश्वास की दरकार होती है, जो गांधीजी के ‘हिंद स्वराज’ में, श्रीअरविंद के ‘फाउंडेशंस आॅफ इंडियन कल्चर’ में और 1927 में ‘वैचारिक स्वराज’ की आवश्यकता को प्रतिपादित करने वाले केसी भट्टाचार्य सरीखे मनीषियों में और मुट््ठीभर ही सही, उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी कहला सकने वाले विद्वानों और कर्मज्ञों और रचनाकारों में भी अभी तक दिखाई देता है।

राजनीति हमारे सामुदायिक जीवन-रथ का ऐसा कमजोर पहिया कैसे और क्यों हो गया? इसे देखने और कर्मज्ञ दृष्टि से इस व्याधि का इलाज करने के लिए जहां अवस्थिति-बोध के साथ-साथ इतिहास बोध भी आवश्यक है, वहीं अपने सर्जकों चित्तकों की साखी को भी गंभीरतापूर्वक ग्रहण करना भी। वह साखी मात्र सैद्धांतिक न होकर वास्तविक परिस्थितियों और वास्तविक मानव-चरित्रों की पुनर्रचना से उपजती है। घटनाओं और चरित्रों का मर्मोद्घाटन करती हुई वह हमारी सामर्थ्य का ही नहीं, सीमाओं और दुर्बलताओं का भी यथावत साक्षात्कार कराती है। हमारी सामाजिक-राजनीतिक विफलताओं को भी उनकी जड़ तक पहुंच कर पहचानती है। अपनी इस अनिर्वायत: सत्यान्वेषिणी दृष्टि और प्रक्रिया के फलस्वरूप ही वह हमारी लुप्तप्राय शाक्त संवेदना को उकसाती और सही दिशा में नियोजित करती है, यानी ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ करने को प्रेरित करती है।

उदाहरण के लिए, अपने हिंदी साहित्य में ही निराला के साथ-साथ उनके अग्रज समकालीन कवि-नाटककार जयशंकर प्रसाद का स्मरण स्वाभाविक होगा। विशेष रूप से उनके नाटकों का। तभी यह बात हमारे सिर पर चढ़के बोलेगी कि अन्यान्य क्षेत्रों की प्रतिभाओं की तुलना में एक साहित्यकार की एतद्विषयक अंतर्दृष्टि किस कदर मर्मभेदी और असुविधाजनक सत्य को भी बेलाग ढंग से उजागर करने वाली हुआ करती है। और पीछे, बहुत पीछे भारतीय सभ्यता के प्रारंभ बिंदु या परवर्ती विकास का भी अवलोकन करें तो इस बात के पर्याप्त साक्ष्य मिल जाएंगे कि हमारे पुरखे न तो कालगति-सापेक्ष राजनीति या राजधर्म के प्रति उदासीन थे, न मानव-स्वभाव और देश-कालगत चुनौतियों के यथातथ्य स्वीकार और तदनुकूल कर्म की चुनौतियों से निपटने के उपाय-कौशल ढूंढ़ने-आजमाने के प्रति।

जो सभ्यता अपने आरंभिक चरणों पर ही एक ओर उच्चतम पुरुषार्थ चिंतन (‘मैडिटेटिव विज्डम’) की पराकाष्ठा स्वरूप उपनिषदों की रचना कर सकती है और दूसरी ओर जीवन यथार्थ की यथातथ्य समझ (कैलकुलेटिव विज्डम) के मूर्त रूप हितोपदेश पंचतंत्र की भी, उसकी जीवन-दृष्टि और विश्व-दृष्टि पर एकांगिता का आरोप कैसे लगाया जा सकता है?

एक ओर मनोमय-प्राणमय कोशों को अतिक्रांत करके ध्यान समाधिलभ्य एकाग्रता से उपजा पारमार्थिक ज्ञान, जो मनुष्य को उसके चरम पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ यानी संपूर्ण स्वतंत्रता को चरितार्थ करने में- आत्मज्ञान और परमात्म ज्ञान की देहरी पार करवाने में सक्षम होता है, और दूसरी ओर, निपट जैविक व्यवहार के स्तर पर, इस छल-कपट से पटी बेरहम दुनिया में जिया कैसे जाए, इसका यथातथ्य चित्रण एकदम दो टूक सीधी सरल बोधकथाओं के माध्यम से। मनुष्य जैसा बना है और मनुष्य को उसी की अंतर्निहित संभावना के अनुसार जैसा होना-बनना चाहिए, दोनों की भरपूर चेतना और स्वीकृति। यथार्थवाद और आदर्शवाद दोनों की कसौटियों पर खरी उतरने वाली वह समझ, जो इस जगत में मनुष्य की अवस्थिति के समग्र बोध से उपजती है; जो मानव-स्वभाव के किसी पक्ष को अनदेखा नहीं करती; जो सांसारिक सफलता को, जिंदगी की नियामतों का भरपूर लुत्फ उठाने की हमारी सहज अभिलाषा को भी अपनी जगह वाजिब महत्त्व देने से नहीं कतराती; उसे भी ‘पुरुषार्थ’ ही मानती और बताती है।

दूसरी ओर, साक्षात जीवनानुभव के ही दबाव से, ‘भोगा: न भुक्ता वयमेव भुक्ता:’ के प्रत्यक्ष अनुभव के सीमांत पर उन सारी अभिलाषाओं और सुखों की असारता-अनित्यता का साक्षात करते हुए उनके पार जाने की यानी उस अनन्य ‘सुख’, उस अनन्य अर्थ की खोज करने की दुर्दम्य अभीप्सा, जो अन्य सारे सुखों की तरह निस्सारता का आतंक न उपजाए, बल्कि स्थायी और नित्य सत्ता की झलक दे; क्षणभंगुर देह का नहीं, बल्कि उसी देह के माध्यम से अजर-अमर आत्मा के यथार्थ का प्रत्यक्ष कराए। उसकी खोज की अभीप्सा। वह भी पुरुषार्थ है; मगर अर्थ और काम की तुलना में कल्पनातीत रूप से उच्चतर पुरुषार्थ, जिसके उच्चतर और पारमार्थिक होने का, यानी मनुष्य का एकमात्र टिकाऊ और परम स्वार्थ होने का पता भी तभी चलता है, जब निम्नतर पुरुषार्थों को भी इसी देह से भोग और आर-पार जान लिया जाए।

तभी मनुष्य जान पाता है- किसी किताबी उपदेश से नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष जीवन भोग से, कि जिसे वह सुख समझता आया था, वह दरअसल दैहिक आसक्ति यानी गुलामी की उपज थी। जबकि उसकी अंतरतम पुकार और अभीप्सा ऐसे सुख की थी, जो स्वयं उसी के स्वभाव और स्वरूप में निहित स्वतंत्रता की चरम पुकार से उपजे; और उसे सर्वतंत्रस्वतंत्र होने के साक्षात और सर्वथा सत्यापनीय अनुभव तक पहुंचाए। मुक्ति जिसे कहते हैं और जिस रास्ते उसकी उपलब्धि संभव है, वह अनासक्त कर्मयोग या ज्ञानयोग का रास्ता भी तभी उसे समझ में आ सकता है।

पर शक्ति के अभाव में कुछ भी नहीं सध सकता; न इहलोक, न परलोक; यह तथ्य भी बारंबार रेखांकित किया गया है हमारे यहां। ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम’। कहना न होगा कि चारों पुरुषार्थों के बीच धर्म की ऐसी सेतुबंध सरीखी भूमिका भी आर्थिक और पारमार्थिक पुरुषार्थ-सिद्धि के निमित्त- यही इसी देश में सबसे जोरदार और टिकाऊ ढंग से सुनिश्चित की गई।

अब जहां तक हमारी अपनी सभ्यता की ऐतिहासिक उपलब्धियों और दुर्बलताओं के आकलन का ही नहीं, उसके सामने खड़े वर्तमान संकटों का हल भी सोचने की चुनौती का प्रश्न है, हमें इस तथ्य का सामना करना होगा कि आज की ‘ग्लोबलाइज्ड’ दुनिया में हम अपनी सांस्कृतिक विरासत के अतिरिक्त अन्य शक्तियों द्वारा भी परिचालित हो रहे हैं। बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में महात्मा गांधी की तरह श्रीअरविंद भी यही पाते हैं कि ‘अपने केंद्र और निजी आधार को ढूंढ़ना ही उद्धार का एकमात्र उपाय है।’ पर वे साथ ही साथ यह भी उतनी ही स्पष्टता के साथ देखते और दिखाते हैं कि... ‘हर प्रभाव को बहिष्कृत करना न तो संभव है, न वांछनीय।’ आजकल वैसी अलगाववादी उदासीनता संभव भी नहीं है।

हमारे लिए यूरोपीय आक्रमण से पहले की स्थिति में लौटने का प्रयत्न विफल और व्यर्थ होगा। काल-प्रभाव ऊपर से ही नहीं गुजरता, हमें अपने साथ बहा भी ले जाता है। हमारे विचारने-बोलने का ढंग अतीत आदर्शों का हमारा निरूपण भी नए विचारों और अनुभवों के अस्तित्व में आने के कारण बदल चुका होता है।

हम उन्हें नए दृष्टिकोणों की बढ़ी हुई शक्ति के द्वारा ही संपुष्ट कर सकते हैं।...श्रीअरविंद की यह चेतावनी आज भी उतनी ही, बल्कि पहले से भी अधिक प्रखर और प्रासंगिक है। वे साफ कहते हैं कि ‘हमें आधुनिक जगत का पूर्ण ज्ञान स्वायत्त करना होगा नहीं तो हम जीवित ही नहीं रह सकते।’ ‘हिंद स्वराज’ का लेखक ऊपरी तौर पर ऐसा लग सकता है कि इससे उलटी बात कह रहा है। मगर गौर करने की बात यह है कि वह किस आधुनिकता का विरोध कर रहा है और क्यों कर रहा है? उसका आधुनिकता-विरोध जिस चीज का विरोध है, उसे क्या श्रीअरविंद नहीं जानते? बखूबी जानते हैं।

यह गांधीजी का नहीं, श्रीअरविंद का कथन है कि ‘आधुनिक जगत पर यूरोपीय मनोवृत्ति का आधिपत्य है। हम इस अनुचित प्रधानता में सुधार करने और भारतीय मनोवृत्ति तथा सांस्कृतिक मूल्यों का प्रभुत्व पुन: स्थापित करने का दावा करते हैं। लेकिन यह तभी हो सकता है, जब भारत इन सभ्यताओं का सीधा सामना करके इनका एक ऐसा हल निकाले, जो उसके अपने आदर्शों और मूलभाव की पुष्टि करे।’....ऐसा हल निकालना ही अब हमारी राजनीति का सही ध्येय होना चाहिए: शक्ति की मौलिक कल्पना वही है।

क्या यह गहरे में कहीं ‘हिंद स्वराज’ के गांधी के ही मन की बात नहीं है? निस्संदेह दोनों की भाषा भिन्न है। पर क्या इसीलिए दोनों की दृष्टियां भी परस्पर विसंवादी और असंगत हो जाती हैं? दरअसल, दोनों ही अपनी सभ्यता की शर्तों पर आधुनिक होना चाहते हैं, छायाजीवी परोपजीवी बन कर नहीं। ठीक यही आग्रह उस कालखंड के सर्वाधिक तीक्ष्ण बुद्धिशाली दार्शनिक कृष्णचंद्र भट्टाचार्य का भी है, जैसा कि उनके सुप्रसिद्ध आलेख ‘वैचारिक स्वराज’ (1927) को पढ़ने पर पता चलता है।

समसामयिक जीवन के हमारे बदले हुए संदर्भों का ही तकाजा है कि हम अपनी पुरुषार्थ-केंद्रित परंपरा में निहित शक्ति-संचय और शक्तिप्रयोग की उस अनिवार्यता को भी नए सिरे से पहचानें और स्वायत्त करें जिसके अनुसार ‘धर्म भी उसी की रक्षा करता है, जो स्वयं धर्म की रक्षा कर पाने में समर्थ होता है’ (धर्मो रक्षति रक्षित:)। यह काम हमें किसी तथाकथित पुनरुत्थानवादी मानसिकता से प्रेरित होकर कदापि नहीं करना है; बल्कि इसीलिए करना है कि जो आवाज कभी सुनाई दे जाती थी, जो घटना कभी घटी थी हमारे अवस्थिति-बोध और कर्तव्यबोध को संयुक्त करने वाली ऊर्जा के विस्फोट की तरह- उसको फिर से अधुनातन जीवन संदर्भों के बीचोबीच पकड़ पाने का प्रयत्न हमें एक ऐसे खुले भविष्य के परिप्रेक्ष्य में करना है, जो हमारा हो सकता है। यही वह मार्ग याकि उपाय-कौशल और शक्ति-साधना है जिसका अवलंबन करके हम अपने वास्तविक वर्तमान में मुक्त हो सकते हैं और उस वर्तमान की सृजनात्मक संभावनाओं को भी थोड़ा-बहुत चरितार्थ कर सकते हैं।


http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=73528:2014-07-15-06-21-02&catid=20:2009-09-11-07-46-16


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