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न्यूज क्लिपिंग्स् | 'अब किसान हजामत भी नहीं बनवाते !'-- अजय शर्मा

'अब किसान हजामत भी नहीं बनवाते !'-- अजय शर्मा

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published Published on Nov 2, 2015   modified Modified on Nov 2, 2015
लातूर के सोनावटी गांव के हज्जाम चंद्रकांत बाबू परेशान हैं. अब उनकी दुक़ान पर उतने किसान हजामत बनवाने नहीं आते जितने दो साल पहले आते थे.
चंद्रकांत का धंधा आधा रह गया है. मराठवाड़ा के इस गांव में इस साल बारिश सामान्य से आधी हुई है.
सूखे के बावजूद इस साल लोगों ने गन्ना उगाने की कोशिश की ताकि वो पिछले साल के नुक़सान की भरपाई कर सकें, मगर हो गया उल्टा.
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योगेंद्र यादव की संवेदना यात्रा के साथ जब मैं देर रात सोनावटी गांव पहुँचा तो देखा कि चंद्रकांत बाबू की दुकान खुली थी. पूछा तो पता चला कि चंद्रकांत की दुकान में भी उतना ही सूखा है जितना पड़ोस के खेत में.

कैसे बनवाएंगे दाढ़ी

 

वो मुझसे बोले, ''बारिश की वजह से काम नहीं रहा है अब. इनके (किसानों के) खेत में ही काम नहीं है, तो ये लोग कहां से दाढ़ी बनवाने आएंगे. ये भी खाली बैठे हैं. दाढ़ी बनवाने के लिए पैसा नहीं है. अगर बनवाते हैं, तो उधार करते हैं. हम भी चार-आठ दिन तक ढकेलते हैं, सोचते हैं कि चलो आज नहीं तो कल देंगे.''
कर्नाटक, तेलंगाना और महाराष्ट्र से लेकर मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा तक, हर जगह इस बात के सबूत मिलते गए कि बारिश की कमी ने किसान ही नहीं, उससे जुड़े हर पेशे-कारोबार को सुखा डाला है.
चंद्रकांत बताते हैं कि दो साल पहले तक उनकी दुकान पर रोज़ औसतन 15 किसान आते थे, अब सिर्फ़ 7-8 ही आते हैं और उनमें भी ज़्यादातर उधार पर हजामत बनवाते हैं.
चंद्रकांत की परेशानी है कि ऐसे हालात में वो भी उनसे कहें तो क्या कहें. जब फ़सल कटती है तो उन्हें किसान एक हिस्सा दे देते हैं, जिसके बदले वो साल भर उनके बाल काटने और हजामत बनाने का काम करते हैं. जब फ़सल ही नहीं होगी तो किसान उन्हें क्या देगा.

 

 

वह कहते हैं, ''बारिश दो साल से कम है और कम होती जा रही है. खेत में जो माल निकलता है उसी से दाढ़ी बनाने के पैसे देते हैं. ये हमारी परेशानी है न. हम उनको बोलेंगे तो क्या बोलेंगे.''
बाल काटने को भी चाहिए पानी
बाल काटने के काम में लगने वाले पानी की क़ीमत भी उन्हें पहले के मुक़ाबले ज़्यादा देनी पड़ रही है. सोनावटी का हर किसान और मज़दूर खरीदकर पानी पीता है.
15 लीटर पानी के घड़े की क़ीमत है दो रुपए. चंद्रकांत भी 400 रुपए महीने देकर पानी खरीदते हैं, क्योंकि हजामत बनाने और ग्राहकों को पिलाने पर 10 लीटर पानी लग जाता है.
उनका कहना था, ''रोज़ 10 लीटर के अंदर पानी इस्तेमाल होता है. दो लीटर तो ग्राहकों के पीने के लिए काम आता है. दिन में डेढ़ सौ लीटर पानी लगता है घर, जानवर और दुकान में. केवल दुकान में ही बिसलेरी का 10 रुपए का पानी लगता है. बिसलेरी की बोतल है 25 रुपए की, और दाढ़ी बनती है 10 रुपए की.''
लॉन्ड्री का काम आधा

 

 

मुझे बीड़ के गांव मादलमोही में पहुँचने पर पता चला कि चंद्रकांत बाबू से अच्छी हालत लॉन्ड्री चलाने वाले भास्कर लक्ष्मण जादव की भी नहीं है.
वो कहते हैं कि किसान अब कपड़े धुलवाने नहीं आते. पहले 300 रुपए रोज़ का काम होता था तो अब डेढ़ सौ भी दुकान से मुश्किल से उठा पाते हैं.
नतीजा ये कि तीन बच्चों का पेट भरने और स्कूल की फ़ीस देने के लिए उनकी पत्नी नंदा भास्कर ने घरों में बर्तन धोने का काम शुरू कर दिया है. खेती सूखी पड़ी है तो वो किसान भी उन्हें 300 रुपए महीने से ज़्यादा देने को तैयार नहीं, जिनके यहां वो काम करती हैं.

 

 

संवेदना यात्रा में शामिल एडवोकेट पीएस शारदा ने खेती से जुड़े धंधों और लोगों को लेकर काफ़ी पड़ताल की है.
उनका कहना था, ''जो-जो लोग किसान की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करते हैं, उनका भी बेड़ा गर्क होने के कगार पर है. किसी का धंधा आधा हो गया, किसी का 60 फ़ीसदी कम हो गया और जो वर्कर आता है, वह कहता है कि यहां भी सब भूखे ही हैं. वह भी सोच रहा है कि मैं कहां जाऊं.''
मैंने सुना है कि जब एक पेड़ सूखता है तो सिर्फ़ उसकी पत्तियां ही नहीं सूखतीं, फूल ही नहीं कुम्हलाते बल्कि उससे जुड़ी पूरी सृष्टि ही जैसे बांझ हो जाती है.

 


http://www.bbc.com/hindi/india/2015/10/151017_drought_series_trades_agriculture_aj


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