Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | अब स्वयं न्यायपालिका न्याय की कसौटी पर-- शेखर गुप्ता

अब स्वयं न्यायपालिका न्याय की कसौटी पर-- शेखर गुप्ता

Share this article Share this article
published Published on Jan 16, 2018   modified Modified on Jan 16, 2018

ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री हेरॉल्ड विल्सन की इस मशहूर पंक्ति को बदलने का लोभ हो रहा है कि ‘एक हफ्ता राजनीति में बहुत लंबा वक्त होता है।' मैं कहूंगा कि पिछला वीकेंड भारत के न्यायिक इतिहास में बहुत लंबा समय था। क्योंकि अपने सांस्थानिक प्रश्नों को सार्वजनिक बहस में लाने वाले चार जजों से पूछा गया कि इससे सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली कैसे प्रभावित होगी तो उन्होंने कहा कि वे सोमवार को कोर्ट जाएंगे और सबकुछ पहले जैसा चलता रहेगा।

 

लेकिन, उससे 48 घंटे पहले काफी कुछ घट चुका है। परदे के पीछे सुलह के प्रयास हुए होंगे, सारे पक्षों की ओर से राजनीतिक गतिविधियां हुई होंगी और सबसे महत्वपूर्ण हमारे सामने आए चार न्यायाधीशों, अपने बंधुओं के निशाने पर आए मुख्य न्यायाधीश और अन्य 20 न्यायाधीशों ने आत्मपरीक्षण किया होगा। ध्यान रहे कि हमारी व्यवस्था में सुप्रीम कोर्ट के सभी जज समान हैं। कोर्ट में तो मुख्य न्यायाधीश भी ‘फर्स्ट अमंग इक्वल' (समान जजों में प्रथम) हैं। हालांकि, प्रशासकीय स्तर पर वे इन चार्ज हैं। यही पर विवाद है। पहले जैसे काम के लिए दोनों ‘पक्षों' के बीच काफी कुछ ठीक करना होगा। हमारे शीर्ष न्यायाधीशों को दो पक्षों के रूप में बताना दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि हम तो कोर्ट में इस उम्मीद से जाते हैं कि हमारे विवाद पर कोई जज फैसला कर देगा लेकिन, माननीय न्यायाधीशों के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है। इसके लिए तो वरिष्ठ, निष्पक्ष सांस्थानिक दिमाग चाहिए जो इस मुद्दे पर गौर करे। अब ऐसे कद का कोई व्यक्ति नहीं है। पिछले ढाई दशक में सुप्रीम कोर्ट ने खुद को अपनी सांस्थानिक सीमाओं में सीमित कर लिया है। कानून मंत्री का उससे ज्यादा संवाद नहीं है कम से कम कांग्रेस के हंसराज भारद्वाज के दिनों के बाद से फिर चाहे उनकी राजनीतिक होशियारी उनके कानूनी हुनर अथवा कद से आगे ही रहती थी। यह भी संभावना नहीं है कि तुलनात्मक रूप से पद पर नए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जजों को परामर्श दे सकें। लेकिन संभव है कि यह वह क्षण हो जब वे राष्ट्रपति के योग्य भूमिका निभाकर खुद को स्थापित कर सकें।


हम जिस एंग्लो-सेक्सन व्यवस्था का पालन करते हैं उसमें न्यायिक प्रक्रिया मुख्यत: नज़ीरों से चलती है। दुर्भाग्य से इस मामले कोई नज़ीर नहीं है। वरिष्ठता को दरकिनार करने, आंतरिक राजनीति, अच्छा जज होने पर शिकार बनाए जाने और मित्रवत होने पर पुरस्कृत करने जैसी घटनाएं हुई हैं खासतौर पर इंदिरा गांधी के दौर में। शायद इन वर्षों ने हमें हमारे सर्वकालिक सर्वाधिक सम्मानित जज भी दिए : जस्टिस एचआर खन्ना। फिर चाहे उन्हें देश का मुख्य न्यायाधीश नहीं बनने दिया गया, जिसके वे हकदार थे। लेकिन इस तरह कभी नहीं हुआ। दशकों तक सबकुछ कोलेजियम के भीतर ही रहा। यहां कुछ भी पारदर्शी नहीं है, कुछ भी सार्वजनिक नहीं किया जाता। क्यों किसी को जज नियुक्त किया गया या क्यों किसी को वंचित रखा गया। कोई असहमति नहीं, कोई विरोध नहीं। कुछ भी रिकॉर्ड पर नहीं रखा जाता। इस सर्वशक्तिमान न्यायपालिका के क्लब में सबसे वरिष्ठ जज मौन व गोपनीयता की शपथ पालते रहे हैं। यह अब तक टूटी नहीं थी। घर की बात घर में ही रहनी चाहिए। अब इसे तोड़ दिया गया है। पहले मुख्य न्यायाधीश के बाद वरिष्ठता में दूसरे जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर ने और अब अन्य तीनों ने भी। जब न्यायपालिका राजनीतिक वर्ग से लड़कर अपने लिए कोलेजियम की व्यवस्था कर रही थी तो इसे समझना मुश्किल नहीं था। हममें से कई (इस लेखक सहित) लोगों ने इसे समर्थन दिया। तर्क था कि व्यवस्था में चाहे जो खामियां हों पर इसे राजनीतिक वर्ग से दूर रखना ही बेहतर है। क्योंकि हम सीबीआई और अन्य एजेंसियों जैसा विनाश नहीं चाहते थे।


न्यायपालिका ने हमें निराश नहीं किया। जब संवैधानिक या स्वतंत्रता संबंधी बड़े प्रश्न उठे जैसे हाल ही में प्रायवेसी के मूल अधिकार का उठा था तो इसने सही फैसले लिए। लेकिन, इस प्रक्रिया में इतने खुद को अपने भीतर मजबूती से बंद कर लिया। संसदीय कार्यवाही के सीधे प्रसारण, सूचना के अधिकार के कानून और बड़े पैमाने पर हैकिंग और फोन टेप लीक, जिन्हें अदालतें बार-बार वैध ठहरा रही हैं, के दिनों में यह रवैया ठीक नहीं है। इतने बरसों में न्यायपालिका अत्यधिक संरक्षणवादी हो गई है। कोलेजियम की सदस्यता भी दर्जे का प्रतीक बन गई। इसकी प्रक्रिया पर कोई प्रश्न उठाने या पारदर्शिता की मांग का विरोध किया गया। जस्टिस चेलमेश्वर का विरोध भी अप्रत्याशित नहीं था। वे कोलेजियम की प्रक्रिया में खुलेपन की मांग कर रहे थे। इनकार करने पर कुछ समय से उन्होंने इसकी बैठकों में जाना छोड़ दिया। ताजा विवाद कुछ ‘संवेदनशील' मामलों की सुनवाई के लिए बेंच के गठन को लेकर है। जस्टिस चेलमेश्वर ने इसे भारतीय इतिहास का निर्णायक क्षण बताया है। हमारे राजनीतिक इतिहास में एक व्यक्ति के विद्रोह से निर्णायक क्षण आने के उदाहरण है, जिसमें किसी सर्वशक्तिमान नेता अथवा आराम से चल रही सरकार को चुनौती दी गई हो। इंदिरा गांधी तब सत्ता के चरम पर थीं जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने उन्हें झटका दिया। इसी तरह राजीव गांधी को भी वीपी सिंह के विद्रोह से चोट पहुंची। क्या नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (कैग) विनोद राय की चुनौती के बिना यूपीए 2014 के चुनाव में इतनी बुरी तरह हारता? हालांकि श्रेय जस्टिस जीएस सिंघवी को भी है, जिन्होंने बड़े घोटालों खासतौर पर 2जी पर मजबूत फैसले दिए।


सच तो यही है कि न तो खुद चेलमेश्वर और न मुखर होने वाले अन्य जजों में वह शक्ति है कि वे मोदी सरकार की रफ्तार को झटका दे सकें। सिन्हा की तरह वे सरकार के किसी मामले की सुनवाई नहीं कर रहे हैं। अभी तो यह उनके संस्थान की भीतरी लड़ाई है। इसीलिए सरकार ने अब तक तो इस विवाद से दूर रहने की बुद्धिमानी दिखाई है। यह विवाद क्या रूप लेता है यह इस पर निर्भर है कि मुख्य न्यायाधीश कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। मेडिकल कॉलेज जैसे कई विवादित मुद्‌दे सिर्फ न्यायपालिका तक सीमित हैं। उनका क्या होता है इसका महत्व है पर सिर्फ न्यायपालिका के कद व सम्मान के लिए। लेकिन, कई उच्चस्तरीय राजनीति से जुड़े मामले भी हैं। इन पर मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की विज़्डम की परीक्षा होगी।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)


https://www.bhaskar.com/news/ABH-LCL-now-on-the-test-of-self-judicial-justice-5792403-PHO.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close