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न्यूज क्लिपिंग्स् | अलोकतांत्रिक भारत और आरक्षण--- केसी त्यागी

अलोकतांत्रिक भारत और आरक्षण--- केसी त्यागी

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published Published on Sep 19, 2018   modified Modified on Sep 19, 2018
गत सप्ताह एससी-एसटी एक्ट में संशोधन का विरोध करते सवर्णों द्वारा ‘भारत बंद' का आह्वान किया गया था. इस मुद्दे पर भी बयानबाजी के जरिये अगड़ी-पिछड़ी जातियों को बांटने की राजनीतिक पहल हुई.

यह पहली घटना नहीं है. पिछड़ों को प्राप्त आरक्षण समाप्त करने, अगड़ों के साथ पक्षपात करने जैसे भ्रामक दुष्प्रचार बतौर हथकंडे समय-समय इस्तेमाल होते रहे हैं. समझना होगा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15-4 के तहत राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने का अधिकार है. इनके बावजूद अब तक इनका आर्थिक-सामाजिक उत्थान नहीं हो पाया है. सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना-2011 के आंकड़ों के अनुसार, ग्रामीण अनुसूचित जाति के मात्र 3.95 फीसदी परिवार ही सरकारी नौकरी में हैं.

ग्रामीण अनुसूचित जनजातियों की इन नौकरियों में भागीदारी 4.36 फीसदी की है. प्रत्येक 15वें मिनट में एक दलित के हिंसा की रिपोर्ट है. प्रतिदिन छह दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं होती हैं. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 10 वर्षों (2007-2017) के दौरान दलित हिंसा में 66 फीसदी की बढ़ोतरी भी सामाजिक कलंक है. ऐसी सूरत में भी पिछड़ों के आरक्षण समाप्त करने तथा अन्य योजनाओं में कटौती करने की सिफारिशें न्यायसंगत नहीं हैं.

सवर्णों में भी आर्थिक-शैक्षणिक पिछड़ापन विद्यमान है. नीतीश कुमार द्वारा 27 जनवरी, 2011 को सवर्ण आयोग का गठन किया गया था. सवर्णों के बीच आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ापन के अध्ययन के बाद आयोग की रिपोर्ट अगड़ी जाति के प्रति स्थापित मिथकों को स्पष्ट करती है. रिपोर्ट के अनुसार अगड़ी जातियों की बड़ी आबादी को रोजगार नहीं मिल पा रहा है.

हिंदू व मुसलमानों की अगड़ी जातियों में काम करनेवाली कुल आबादी के एक चौथाई यानी 25 प्रतिशत जनसंख्या रोजगार से वंचित और आर्थिक तंगी की चपेट में है. हिंदुओं में सबसे अधिक बेरोजगारी भूमिहारों में है. इस जाति के औसतन 11.8 फीसदी लोगों के पास रोजगार नहीं है. अगड़ी जातियों में काम करनेवाली आबादी जिसमें रोजगार और बेरोजगार दोनों शामिल हैं, हिंदुओं में 46.6 फीसदी और मुसलमानों में 43 फीसदी है. शहरी और ग्रामीण इलाकों में ऊंची जातियों के बीच बेरोजगारी का स्तर लगभग एक समान ही है. इन जातियों की महिलाओं के काम-काज में भागीदारी भी काफी कम है.

एक और आंकड़े की मानें, तो सवर्ण जाति का 56.3 फीसदी हिस्सा तनख्वाह व मजदूरी पर निर्भर करता है. ग्रामीण इलाकों में हिंदू सवर्णों की 34 फीसदी जनसंख्या के पास नियमित आमदनी नहीं है, जबकि मुसलमान सवर्णों के 58 फीसदी लोग नियमित आमदनी से वंचित हैं. ग्रामीण बिहार में गरीबी के कारण ऊंची जाति के 49 फीसदी हिंदू और 61 फीसदी मुस्लिम स्कूल व कॉलेज नहीं जा पाते. इन जातियों में हायर सेकेंड्री तक की शिक्षा ग्रहण करनेवाली ग्रामीण आबादी महज 36 फीसदी है, जबकि मुसलमानों में यह मात्र 15 फीसदी ही है.

इन जाति समूहों की लगभग एक चौथाई आबादी साक्षर नहीं है. इस स्थिति में बिहार सरकार ने सवर्णों के पिछड़ेपन की सुध लेते हुए सलाना डेढ़ लाख से कम आमदनी वाले सवर्ण परिवार को गरीब मानकर सभी कल्याणकारी योजनाओं के दायरे में रखने की अनुशंसा की है.

इस श्रेणी में आनेवाले सवर्ण छात्रों को दसवीं कक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने पर 10,000 रुपये की प्रोत्साहन राशि तथा पहली से लेकर 10 कक्षा के विद्यार्थियों को प्रति वर्ष 600 से 1,800 रुपये तक की छात्रवृत्ति देने का प्रावधान किया गया. सरकार द्वारा 100 करोड़ की राशि इन योजनाओं पर खर्च हेतु आवंटित की गयी है.

हाल में केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान द्वारा गरीब सवर्णों के लिए सरकारी नौकरियों में 15 फीसदी आरक्षण की मांग की गयी थी. बसपा सुप्रीमो मायावती भी गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की सिफारिश कर चुकी हैं. ऐसे वातावरण में सभी दलों को सवर्ण आरक्षण पर आम सहमति बनाकर उन्हें मुख्यधारा में लाने की पहल करनी होगी.

ऐसे प्रयासों से न केवल सवर्णों की बिगड़ती स्थिति में सुधार आयेगा, बल्कि भारतीय समाज में न्याय व विश्वास के संतुलन में भी स्थिरता आयेगी. लगभग सभी राजनीतिक दलों के विचार व चुनावी घोषणाओं में ‘सबका साथ-सबका विकास' का भाव होता है, इसलिए अन्य राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर इस मुद्दे पर एकता का परिचय कल्याणकारी होगा.

समाज के उन वर्गों को भी अपने बड़बोलेपन तथा राजनीतिक चालबाजी से बचने की जरूरत है, जो आये दिन दलितों, पिछड़ों के आरक्षण की समाप्ति की वकालत करते हैं. उन्हें समझना चाहिए कि भीमराव आंबेडकर वंचित जातियों के लिए देश में मौजूद अवसरों में उनकी भागीदारी चाहते थे.

उनकी इच्छा थी कि संवैधानिक संस्थाएं दबे-कुचले लोगों के लिए अवसरों का रास्ता खोलें और लोकतंत्र में उनकी भी हिस्सेदारी बनाएं. वह आर्थिक-सामाजिक गैर बराबरी जैसे विष को दूर कर राष्ट्रीय एकता चाहते थे. अतिशयोक्ति नहीं कि आज के मजबूत लोकतांत्रिक भारत निर्माण में उनका बड़ा योगदान है. अब वर्तमान पीढ़ी की जिम्मेदारी है कि राष्ट्र के सामाजिक सौहार्द को और आगे बढ़ाएं.
(यह लेखक के निजी विचार हैं.)

https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1206669.html


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