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न्यूज क्लिपिंग्स् | आजाद मीडिया के पक्ष में तर्क-- मृणाल पांडे

आजाद मीडिया के पक्ष में तर्क-- मृणाल पांडे

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published Published on Jan 15, 2019   modified Modified on Jan 15, 2019
देश के हर चौराहे, चायखाने, पान की दुकान और शिक्षा परिसर में आजकल भारतीय लोकतंत्र के भविष्य पर चिंता जतायी जा रही है, नाना अटकलें लगायी जा रही हैं. और इन अटकलों का स्रोत मीडिया है, पारंपरिक या सोशल मीडिया.


आजादी के सत्तर वर्षों बाद देश जनता को जागृत करनेवाली ताकत के रूप में मीडिया को पहचान रहा है, जिसके विमोचन के लिए गांधी जी ने ‘नवजीवन' नामक साप्ताहिक अखबार गुजराती और हिंदी में निकाला था. तब से आज तक हमारे मीडिया ने सत्ता के महल को भारत की जनता के लिए लगातार पारदर्शी और जवाबदेह बनाया है. जब अंग्रेज थे, तो उनकी आलोचना पर भारतीय अखबारों पर प्रतिबंध लगाने, उनकी परिसंपत्तियां सील करने और यदाकदा संपादकों को जेल भेजने का क्रम लगातार बना रहा.


आज भी सरकार और मीडिया के बीच यह तनाव सदा बना रहता है, जो चुनाव काल में और भी गहरा होने लगता है. सरकार जितना विपक्ष से या संसद की बैठकों से डरती है, उतना ही आजाद मीडिया के उस रसूखदार हिस्से से भी डरती है, जिसे विज्ञापनों या अन्य सौगातों के जरिये भी वह पालतू नहीं बना पायी. जब-जब मीडिया सीबीआई प्रमुख हटाने पर या जांच प्रक्रिया और न्यायिक कार्यप्रणाली या सरकारी फाइलों की अपारदर्शिता पर सवाल उठाता है, तब-तब सरकार हिकारत से कहती है आज का मीडिया बाजारू, अभद्र किस्म के छुटभैये पत्रकारों से भरता जा रहा है, खासकर सोशल मीडिया. दुनियादार पालतू मीडिया के बरक्स छुटभैया होना अगर आजादी का मानक हो, तो यह क्या कोई गुनाह है?


आज सीबीआई और सीवीसी के रोल पर, रिजर्व बैंक या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की स्वायत्तता तथा कृषि की दुर्दशा पर अगर मीडिया तीखे सवालों के बाण सरकार पर छोड़कर जनता की तरफ से उनके जवाब मांग रहा है, तो आपत्तिजनक क्या है? क्या ये तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं जनता की जमीन पर, जनता की रक्षा के लिए, जनता द्वारा दिये करों से नहीं बनायी गयी हैं?


और अब, जबकि सूचना संचार क्रांति डिजिटल अक्षरों से, ई-अखबारों से, डिश टीवी से देश के कोने-कोने में आंचलिक जनता की गांठ लुटियन की दिल्ली के राजपथ से सत्ता गलियारों से कसकर जोड़ चुकी है, सरकारी जवाबदेही पर करोड़ों निगाहें टिकवानेवाला मीडिया क्या लोकतंत्र का पहरुआ नहीं है? मीडिया तक जनता की ललकभरी पहुंच इस बात का प्रतीक है कि आम जनता अब राजनीति में अपनी हिस्सेदारी और उसमें वयस्क मताधिकार की ताकत को समझने लगी है. इससे भारतीय लोकतंत्र का लगातार भारतीयकरण हो रहा है. हालांकि, शिकायत की जा सकती है कि मीडिया के इस विस्तार ने और उसमें सीधी भागीदारी से सोशल मीडिया को बड़े पैमाने पर अपना रहे हमारे युवा उद्दंड, दुराग्रही बन रहे हैं.


साल 2019 के आम चुनाव इस मायने में भयावह हैं कि अबकी बारी सभी मतदाताओं को अपने जीवन और आजीविका की रक्षा के लिए कुरुक्षेत्र के अर्जुन की तरह हर कदम पर दुविधा, अंतर्द्वंद्व और पछतावे को झेलना है.


आलोक वर्मा पर लगे आरोप सही थे कि गलत? उनके साथ जो बर्ताव जिस तरह जिन लोगों के हाथों हुआ, वह कितना तर्क या न्यायसंगत था? मायावती और अखिलेश का गठजोड़ कितना सामयिक दलगत हितस्वार्थों से उपजा है और कितना भारतीय लोकतंत्र की जरूरतों से? इन सवालों पर आज 21वीं सदी में जनमी मतदाताओं की नयी पीढ़ी पर भी विचार करने की अनिवार्य मजबूरी है. एक विशाल पार्टी महाधिवेशन में भाजपा के अध्यक्ष ने शाब्दिक छक्के-चौके लगाते हुए अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से यह कहा कि यह चुनाव उनकी पार्टी के लिए पानीपत की तीसरी लड़ाई जितना महत्व रखता है. पर सोशल मीडिया ने तुरंत बताना शुरू कर दिया कि नहीं, यह उससे भिन्न है, और कहीं अधिक महत्व रखता है.


पानीपत में दिल्ली बादशाहत की हार ने जो लंबी दासता हमको दी, आज हम उसे दलीय प्रवक्ताओं, वक्ताओं के एकरंगी चश्मे से नहीं, मीडिया के दिखाये सही इतिहास के प्रसंग में नये तरह से देख सकते हैं. तब हम भारतीय पानीपत में हारे तो भारत के बादशाही खेमों में लूटपाट, मारकाट हुई.


उसके बाद बादशाह दरबदर भले न हुए, पर जनता एक बादशाह की दासता से दूसरे की दासता में खामोशी से समाने को बाध्य थी. सामंती युग में उसकी जीवनधारा शासक निरपेक्ष थी. उसकी मड़ैया में खेती, हारी-बीमारी, शादी-ब्याह भगवान या साहूकारों के भरोसे ही थे. पशु मेलों-मंडियों में खरीद-फरोख्त भी जैसे-तैसे लगातार होती रहती थी. अकाल पड़ा तो भाग्य, बरखा हुई तो भी नसीब. दरबार और उसका रहस्यमय संसार, नाच-गाना भितरघात और षड्यंत्र, यह सब उसकी पैठ से बाहर ही रहे थे, सो वह सियापा किसका करती?


लेकिन, आज लोकतंत्र है. हर चुनाव हमको लूटपाट या हंगामेवाली नहीं, दिमागी उथल-पुथल से भरे राज्य परिवर्तन का तोहफा देता है. तब जो देश जड़ था, वह आजादी के 70 वर्षों में अब अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से ठोस उम्मीद करना और अपने हितस्वार्थों को पहचानना सीख गया है.


अखिल भारतीय स्तर पर भी, और इलाकाई स्तर पर भी उसे बार-बार मंदिर-मंडल, मुफ्त बीमा या फ्री साड़ी-दारू के उपहारों से बहलाया नहीं जा सकता. हमें अब बस यही कामना करनी चाहिए कि उसकी तमाम हरकतों की खबरें हमको सप्रमाण देते रहनेवाले हमारे मीडिया की आजादी इस नाजुक मोड़ पर कतई बाधित न हो. और इन चुनावों तक का रन अप मीडिया की मार्फत हमको देश के कोने-कोने में बनती-बिगड़ती अपार संभावनाओं और षड्यंत्रों से परिचित करवा दे.


मीडिया अपने देशवासियों की हर तरह की छवियां हमको ईमानदारी से निरंतर दिखाता रहे, ताकि उन दृश्यों की कोई छेड़छाड़ या फेक खबरें हम तुरंत भांप सकें. हम अखिल भारतीय परिदृश्य की सारी गंदगी और संभावनाएं, सारी फूट और एकजुटता एक साथ निरंतर देख सकें. हमारे कान फूट की सम्मोहक फुसफुसाहटों को भी सुनकर विचलित न हों, बल्कि उनसे डरे बिना अपने विवेक से सही और गलत का फैसला कर सकें.


हम अपने निखालिस भारतीय निकम्मेपन से नाराज हों, लेकिन सत्ता की आंखों में आंखें डालकर उससे, लोकतांत्रिक संस्थानों को तोड़फोड़ पर अपनत्व से साफ कठोर सवाल पूछें, सकर्मक जानकार बनकर पूछें. लोकतंत्र में यही आजाद मीडिया का वरदान है. अब बतौर मीडिया उपभोक्ता यह हम पर है कि हम कौन सी राह चुनें.


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1241155.html


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