Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | आत्महत्याएं कभी झूठ नहीं बोलतीं!- चंदन श्रीवास्तव

आत्महत्याएं कभी झूठ नहीं बोलतीं!- चंदन श्रीवास्तव

Share this article Share this article
published Published on Jul 23, 2015   modified Modified on Jul 23, 2015
पुराने समय में ‘कागद की लेखी' और ‘आंखिन की देखी' के बीच अकसर एक झगड़ा रहता था. कागद की कोई लिखाई जिंदगी की सच्चाई से मेल ना खाये, तो फिर कबीर सरीखा कोई ‘मति का धीर' पोथी में समाये ज्ञान से इनकार भी कर देता था.

यह अघट तो आधुनिक समय में घटा कि प्रत्यक्ष को मानुष पर और मानुष को आवेगों पर निर्भर मान कर शंका के काबिल मान लिया गया और तरजीह दस्तावेजी साक्ष्यों को दी जाने लगी. तर्क दिया गया कि दस्तावेजों के तथ्य वैज्ञानिक विधि से संकलित किये जाते हैं, सो वे मानवीय भूलों से परे हैं और इसी कारण किसी बात पर शंका की स्थिति में एकमात्र प्रमाण हैं. लेकिन क्या विधि के वैज्ञानिक होने भर से इस बात की गारंटी हो जाती है कि तैयार दस्तावेज के भीतर कोई कपट सांप की तरह फन काढ़ कर नहीं बैठा? कम-से-कम नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के नये दस्तावेज- ‘डेथ्स एंड स्यूसाइड इन इंडिया (2014)' को पढ़ कर तो ऐसा नहीं लगता.

कोई खोजी अगर जानना चाहे कि किसी एक साल के भीतर भारत में कितने किसानों ने आत्महत्या की, तो उसके पास तुरंता स्नेत के रूप में एनसीआरबी की रिपोर्ट है. 

सरकार का भला तो इसी में है कि उसकी किसान विरोधी नीतियों की पोल नहीं खुले, इसलिए किसानों की आत्महत्या से संबंधित कोई अखिल भारतीय दस्तावेज उसने तैयार करवाना जरूरी ही नहीं समझा. एनसीआरबी की रिपोर्ट में देश में किसी एक साल में हुई कुल आत्महत्याओं का लेखा-जोखा रहता है. इसी को आधार बना कर बीते वर्षो में किसान-आत्महत्याओं की राज्यवार संख्या और स्वभाव के बारे में कच्चे-पक्के अनुमान लगाये जाते रहे हैं. 

कुछ वर्षो से स्थिति ऐसी बन गयी थी कि किसान-आत्महत्याओं के भीतर से झांकते किसी विशेष रुझान का पता करना हो, तो एनसीआरबी की रिपोर्ट तात्कालिक समाधान की शक्ल में हाजिर नजर आती थी. इस साल की रिपोर्ट ने कुछ ऐसा कमाल किया है कि वर्षो से चले आ रहे किसान-आत्महत्याओं के रुझान एकबारगी उलट गये हैं.

एनसीआरबी की इस साल की रिपोर्ट में लिखा है कि वर्ष 2014 में देश में 5,650 किसानों ने आत्महत्या की. इस रिपोर्ट ने ही बताया था कि वर्ष 2009 में किसान-आत्महत्याओं की संख्या 17,368 थी. मतलब, नयी रिपोर्ट के आधार पर बड़ी आसानी से दावा किया जा सकता है कि बीते पांच वर्षो के भीतर किसानों के लिए देश में स्थितियां सुधरी हैं और किसान आत्महत्याओं में 67 फीसदी की कमी आयी है. 

तभी तो वर्ष 2013 में अगर कुल आत्महत्याओं में किसानों की संख्या 9 प्रतिशत थी, तो महज एक साल के अंतर से कुल आत्महत्याओं की संख्या में किसान-आत्महत्याओं की संख्या घट कर 4.3 प्रतिशत रह गयी है.

बीते दिनों ओलावृष्टि के बीच फसलों का भारी नुकसान हुआ और किसान इतना खस्ताहाल है कि बस एक फसल के मारे जाने से वह आत्महत्या की राह चुनने को मजबूर हुआ. जाहिर है, एनसीआरबी की कागद की लेखी हमारी आंखिन देखी से मेल नहीं खा रही, तो इसकी वजह रिपोर्ट लिखने की वजह में ही मौजूद है. 

पहले एनसीआरबी आत्महत्या से संबंधित अपने आंकड़ों में स्वरोजगार की श्रेणी में लगे लोगों में हुई आत्महत्याओं की गणना करते वक्त किसान और खेतिहर मजदूर को एक साथ रखती थी. इस वजह से 1996 की उसकी रिपोर्ट में किसान-आत्महत्याओं की संख्या अगर 13,729 थी, तो दस साल बाद 2006 की रिपोर्ट में किसान-आत्महत्याओं की संख्या 17,060 बतायी गयी. 
मतलब, एक दशक के भीतर सरकारी नीतियों में ऐसा कोई बदलाव नहीं आया कि किसान-आत्महत्या के आंकड़े में कोई नाटकीय बदलाव आये. इस बार की एनसीआरबी की रिपोर्ट में नाटकीय बदलाव दिखता है कलम की कारीगरी के कारण. इस बार रिपोर्ट में आत्महत्या करनेवाले किसानों की खेतिहर मजदूरों की संख्या अलग-अलग दिखायी गयी है. 

दोनों संख्याओं को एक साथ जोड़ दें, तो 2014 के लिए भी किसान-आत्महत्याओं का आंकड़ा 12,360 पर पहुंच जाता है और यह भी नजर आता है कि आत्महत्या करनेवाले ज्यादातर किसान आर्थिक तंगी की वजह से ऐसा कदम उठाने को मजबूर हो रहे हैं.

असल बात रिपोर्ट लिखने की नीयत से जुड़ी है. किसानी को एक सभ्यता मानेंगे तो ही नजर आयेगा कि किसान और खेतिहर मजदूर आपस में जुड़े हैं. आप तभी देख पायेंगे कि खेती जब घाटे का सौदा बनती है, तब ही कोई गांव-देहात छोड़ कर कहीं और दिहाड़ी मजदूरी करने को मजबूर होता है या फिर अर्थव्यवस्था के नये परिवेश में ‘अन-स्किल्ड' कहला कर बेरोजगार रहता है. 

और, इस संबंध को देखते ही एनसीआरबी रिपोर्ट में आपको दिखेगा कि आत्महत्या करनेवाले कुल लोगों में किसान, खेतिहर मजदूर, दिहाड़ी मजदूर और बेरोजगार अथवा सालाना एक लाख रुपये से भी कम कमानेवाले लोगों की संख्या सबसे ज्यादा यानी 70 प्रतिशत के आस-पास है. यह भी कि जिस नयी अर्थव्यवस्था में हमलोग फिलहाल जी रहे हैं, उसमें आत्महत्या करने की आशंका सबसे ज्यादा किसकी है. रिपोर्ट के अनुसार आत्महत्या करनेवाले कुल लोगों में मात्र 2.8 प्रतिशत लोग स्नातक स्तर की शिक्षा वाले थे, जबकि आत्महत्या करनेवाले कुल लोगों में माध्यमिक और प्राथमिक स्तर तक शिक्षा प्राप्त करनेवाले लोगों की संख्या 60 प्रतिशत और निरक्षर लोगों की संख्या लगभग 15 प्रतिशत है.

इसी के अनुकूल साल 2014 में आत्महत्या करनेवाले कुल लोगों में सरकारी नौकरी में लगे लोगों की संख्या 1.7 प्रतिशत है तो सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में नौकरी करनेवाले लोगों की संख्या 1.1 प्रतिशत और निजी क्षेत्र की नौकरियों में लगे लोगों संख्या 4.7 प्रतिशत. 

इसके बरक्स स्वरोजगार में लगे लोगों की संख्या आत्महत्या करनेवाले लोगों की कुल तादाद में बीस प्रतिशत के आसपास है. अगर छात्र, बेरोजगार और स्वरोजगार में लगे लोगों को एक साथ जोड़ लें और एक साथ जोड़ने के लिए यह मानक रखें कि इनके सबको नियमित आमदनी का स्नेत हासिल नहीं, तो नजर आयेगा कि 2014 में आत्महत्या करनेवाले कुल लोगों में एक तिहाई तादाद ऐसे ही मजबूरों की है.

इस बात पर बहस चलती रहेगी कि आत्महत्या को अपराध की श्रेणी में रखा जाये या नहीं, लेकिन एक बात अटल है कि कोई भी आत्महत्या हमेशा जीवन जीने के लिए बनायी गयी व्यवस्था पर एक करुण टिप्पणी होती है. 

किसान, मजदूर, छात्र और बेरोजगारों का, आत्महत्या करनेवाले कुल तादाद में, ज्यादा की संख्या में होना एक संकेत हैं कि हम इनके जीवन जीने लायक स्थितियां लगातार कम करते जा रहे हैं.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/526547.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close