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न्यूज क्लिपिंग्स् | आदिवासियों का इतिहास सहेजने में जुटा योद्धा

आदिवासियों का इतिहास सहेजने में जुटा योद्धा

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published Published on Jul 11, 2012   modified Modified on Jul 11, 2012

विनम्र व सहज अंदाज में बात करने वाले 69 वर्षीय बुलू इमाम अपनी उपलब्धियों का श्रेय खुद नहीं लेते. बल्कि इसे सबों के प्रयास का फल बताते हैं. इमाम साहब बातचीत के दौरान सहज ही झारखंड गौरव स्वर्गीय रामदयाल मुंडा को याद करते हुए कहते हैं कि उन्होंने उनसे पहले से काम शुरू किया था और उनका योगदान काफी बड़ा है. बातचीत में विनम्रता के बावजूद भरपूर तार्किकता उनके व्यक्तित्व को खास पहचान देती है.

आदिवासियों के लिए काम करने के कारण उन्हें इस वर्ष 12 जून को लंदन में हाउस ऑफ लार्डस (इंग्लैंड की संसद का ऊपरी सदन) में गांधी अंतरराष्ट्रीय शांति आवार्ड (गांधी इंटनेशनल पीस आवार्ड) जैसा प्रतिष्ठित सम्मान मिला. पर अपनी इस उपलब्धि पर इतराने के बजाय वे कहते हैं कि उनका योगदान कुछ खास नहीं है, उनसे ज्यादा काम करने वाले लोगों की बड़ी संख्या है. उन्हें कला एवं संस्कृति के माध्यम से मानवता की सेवा एवं अहिंसा के विचारों को आदिवासी जीवन व समाज में फैलाने में दिये गये अहम योगदान के लिए यह सम्मान दिया गया. उन्हें प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन के साथ संयुक्त रूप से यह सम्मान दिया गया.


गांधी शांति पुरस्कार मिलने के बाद उनके नाम की चर्चा आज हजारीबाग और झारखंड की चौहद्दी के बाहर देश-विदेश में हो रही है. पर उनकी आज की इस अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पीछे उनके दशकों की मेहनत है. उनके व्यक्तित्व के कई आयाम हैं : मानवाधिकार कार्यकर्ता, पर्यावरणविद, कलाप्रेमी, पुरातात्विक महत्व की चीजों का संरक्षक, कवि, लेखक, पेंटर, फिल्म निर्माता आदि-आदि. अपने शहर हजारीबाग से बेहद प्रेम करने वाले इमाम साहब एक साथ इन तमाम मोर्चो पर काम करते हैं. ये बहुआयामी प्रयास एक ही उद्देश्य से किये जा रहे हैं. इसके पीछे उनका ठोस तर्क है. वे आपको आसानी से यह समझा देंगे कि दरअसल ये सारे काम बस वे आदिवासियों के लिए कर रहे हैं.

चाहे वह पुरातात्विक महत्व की चीजों के संरक्षण का काम हो, पर्यावरण संरक्षण के लिए किये जा रहे प्रयास हों या आदिवासियों के विस्थापन का सवाल. इमाम साहब कहते हैं : जब मैं पुरातात्विक महत्व की चीजों को संरक्षित करता हूं या पर्यावरण के सवाल को उठाता हूं, तो इसका उद्देश्य होता है आदिवासियों के हितों की रक्षा, उनके विस्थापन को रोकना, उनकी संस्कृति बचाना. वे कहते हैं कि पाषाणकालीन हथियार व अन्य चीजें, पेंटिग, गुफा चित्र इस बात के प्रमाण हैं कि आदिवासी यहां के सबसे पुराने निवासी हैं. इससे पता चलता है कि पांच हजार, सात हजार या उससे भी पहले दस हजार साल पूर्व भी ये यहीं रहा करते थे.

कोवहर या सोहराय पेंटिंग की बात भी मैं इसलिए करता हूं. वे कहते हैं कि इतिहास की जानकारी कई चीजों से मिलती है. वे चीजें मौखिक भी होती है, चित्र के रूप में भी, लिखित व कलाकृति के रूप में. इमाम साहब कोयला खनन या अन्य कारणों से हो रहे पर्यावरण को नुकसान, दामोदर व कर्णपुरा घाटी को हो रहे नुकसान के मुद्दे को इसलिए उठाते हैं, क्योंकि इसके कारण आदिवासियों का हक छीना जा रहा है और वे अपनी ही जमीन से विस्थापित हो रहे हैं.
वे बताते हैं कि पर्यावरण मनुष्य के मौलिक अधिकारों में शुमार होना चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से बोलरिया को छोड़ दुनिया के किसी भी देश ने अपने नागरिकों को पर्यावरण का अधिकार नहीं दिया है. बुलू इमाम के अनुसार, जब स्वच्छ व बेहतर पर्यावरण संविधान प्रदत्त आपका अधिकार नहीं है, तो जाहिर है खनन के नाम पर हजारों पेड़ काटे जायेंगे, विकास के नाम पर लोगों का पलायन होगा. और इससे कई तरह के संकट उत्पन्न होंगे.
इमाम साहब को पिछले साल 19 नवंबर 2011 को ही यह पुरस्कार मिलना था, लेकिन कुछ समूहों द्वारा उत्पन्न की गयी बाधा के कारण इसमें विलंब हुआ. बाद में उन आपत्तियों को खारिज कर दिया गया. उनकी कोशिशों से ब्रिटिश संसद में आदिवासियों के मुद्दे उठाये गये. वे बताते हैं कि वहां के आदिवासी मामलों के प्रभारी सांसद मार्टिन हारबुट ने आदिवासियों के मुद्दों व समस्याओं को गंभीरता से लिया.
बुलू इमाम के द्वारा स्थापित संग्राहलय संस्कृति में पुरातात्विक व सांस्कृतिक महत्व की कई चीजें हैं. वे 1987 से इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (आइएनटीएसीएच) के हजारीबाग चेप्टर के संयोजक भी हैं. इस नाते इस क्षेत्र में सांस्कृतिक, पुरातात्विक महत्व की चीजों के संरक्षण व संवरण के साथ ही वे पर्यावरण बचाने के अभियान से भी जुड़े हैं.
परिवार भी है खास : बुलू इमाम का परिवार भी खास है. उनके परदादा नवाब सैयद इमदाद इमाम को अंगरेजों ने 1893 में शम्स-उल-उलेमा की उपाधि दी थी. 1909 में उन्हें नवाब का ओहदा दिया गया था. वे अपने समय के बड़े मशहूर व लोकप्रिय कवि(शायर) थे. नवाब साहब पर अनेक पीएचडी किये गये. उनके दादा सैयद हसन इमाम 1918 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे. उनका परिवार भी कला व संस्कृति की रक्षा के कार्य से जुड़ा हुआ है. उनकी पहली पत्नी ऐलिजाबेथ इमाम जहां बच्चों के लिए कई स्कूलों को स्थापित कर उसके संचालन के काम से जुड़ी हैं, वहीं दूसरी पत्नी फिलोमिना इमाम मशहूर चित्रकार हैं. उनके सभी बेटे-बेटी भी पेंटिग व कला से जुड़े हैं. उनकी बेटी जूलियट इमाम भी जानी-मानी चित्रकार हैं. उनके बेटे जस्टिन इमाम व उनकी पत्नी भी कला से जुड़ी है.


1998 में शुरू किया गया पुरस्कार : सुरूर होदा व डायना सुमाकर ने 1998 में गांधी फाउंडेशन की स्थापना की थी. यह सम्मान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति व अहिंसा के माध्यम से मानवता के लिए किये गये बेहतर काम के लिए दिया जाता है. बुलू इमाम व विनायक सेन को यह सम्मान ब्रिटिश संसद सदस्य लॉर्ड भिखू पारेख ने प्रदान किया. इससे पहले वर्ष 2006 में प्रसिद्ध भारतीय फिल्म अभिनेत्री व सामाजिक कार्यकर्ता शाबाना आजमी को यह सम्मान मिला है. इमाम साहब के पुरस्कार ग्रहण करने के मौके पर पत्नी एलिजाबेथ इमाम के अलावा संसद सदस्य मार्टिन हावर्ड, उमर हयात, वियंका जयगर, सलीम इसदानी खान, जोनाथन पैरी, विनोद टेलर समेत कई जानी-मानी हस्तियां मौजूद थीं.
(साथ में हजारीबाग से परवेज आलम)

बुलू इमाम के प्रमुख योगदान
1987 से आइएनटीएसीएच के हजारीबाग चेप्टर के कन्वेनर हैं.
कोयला खनन से दामोदर घाटी के अस्तित्व पर उत्पन्न हुए संकट से निबटने के लिए अभियान चला रहे हैं.
राकआर्ट (पत्थर पर बनी कलाकृति) के संग्रह के लिए सक्रिय.
1992 में हजारीबाग में पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक महत्व की चीजों के संरक्षण के लिए संस्कृति म्यूजियम की स्थापना.
1993 में आदिवासी महिला कलाकारों के लिए को-ऑपरेटिव की स्थापना की.
आदिवासी संस्कृति पर कुछ फिल्मों का निर्माण किया.
2006 में अमेरिका के गोल्डमेन आवार्ड की संशोधित सूची में हुए शामिल.
टीडब्ल्यूएसी की टीम का आस्ट्रेलिया में एक पेंटिंग इवेंट में नेतृत्व किया.
आइसीओएमओएस में नियमित रूप से अपनी रिपोर्ट पेश करते रहे हैं.
लेखन, कविता रचना, पेंटिंग, शोध सहित कई कार्यो से जुड़े हैं.

http://www.prabhatkhabar.com/node/181656?page=show


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