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न्यूज क्लिपिंग्स् | आदिवासी विकास के दो चेहरे- अरुण कुमार त्रिपाठी

आदिवासी विकास के दो चेहरे- अरुण कुमार त्रिपाठी

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published Published on Nov 13, 2013   modified Modified on Nov 13, 2013
जनसत्ता 9 नवंबर, 2013 : देश के जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं उनमें से चार राज्य ऐसे हैं जिनमें आदिवासियों की खासी आबादी निवास करती है, यह बात हम राहुल बनाम मोदी की बहस में भूल जा रहे हैं। संयोग से ये चुनाव ऐसे अवसर पर हो रहे हैं जब आदिवासियों के विकास और उनके बारे में सरकार की नई नीति को लेकर बहस उठ रही है और सरकार ने उनकी स्थिति के अध्ययन के लिए प्रोफेसर वर्जीनिया खाखा के नेतृत्व में एक समिति भी गठित कर दी है। इस समिति के सामने यह बात जरूर उठेगी कि अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे आदिवासियों को सांस्कृतिक सुरक्षा देना ज्यादा जरूरी है या आर्थिक। इसलिए यह उम्मीद बनती है कि गैर-आदिवासी समाज की धर्म और जाति की तनावपूर्ण और व्यक्तिवादी राजनीति से अलग इस देश के आदिवासियों के मुद््दों पर केंद्रित विमर्श मुख्यधारा में अपना स्थान पाएगा। दुर्भाग्य से वे मुद््दे कहीं उठ रहे हैं और कहीं गैर-आदिवासी समाज के अपने राष्ट्रवादी और नवउदारवादी एजेंडे के बीच खो गए हैं।

इसके बावजूद यह देखने लायक है कि देश के पूर्वोत्तर, मध्य और पश्चिमी प्रदेश में आदिवासी समाज की लोकतांत्रिक गतिविधियों और उससे निकले विकास का क्या स्वरूप है। साथ ही इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि क्या हम उनसे कुछ सीख सकते हैं या उन्हें महज सिखाने और सुधारने की आवश्यकता है। आज जब यह बात तेजी से उभर कर आ रही है कि पिछले बीस सालों में देश ने आर्थिक विकास तो किया लेकिन उसका मानव विकास सूचकांक चिंताजनक स्थिति में है, तब मिजोरम के तमाम आंकड़े सुखद अनुभूति देते हैं। मिजोरम देश का वह राज्य है जहां की 94.4 प्रतिशत आबादी आदिवासी है। लेकिन विकास के मानवीय सूचकांक में मिजोरम पिछड़ेपन की छाया से एकदम अलग दिखता है।

मिजोरम में साक्षरता दर 91.58 प्रतिशत है जो केरल के बाद देश में दूसरे नंबर पर है। वह राज्य शहरीकरण की गति के मामले में भी देश में दूसरे पायदान पर है। मिजोरम की प्रतिव्यक्ति आय पूर्वोत्तर राज्यों में सबसे ऊपर तो है ही, देश के कई गैर-आदिवासी राज्यों से भी कहीं आगे है। वहां के अठहत्तर प्रतिशत परिवार पक्के या आधे पक्के मकानों में रहते हैं। मिजोरम में बिजली की उपलब्धता 69.63 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत महज 55.85 प्रतिशत है। वहां शिशु मृत्यु दर 19 प्रति हजार है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 66 प्रति हजार है। आश्चर्य की बात है कि मिजोरम ने यह तरक्की सड़क, रेल लाइन, जल विद्युत परियोजना और पर्याप्त कॉलेज और शिक्षण संस्थानों के अभाव में की है। उसकी इस तरक्की के पीछे चर्च की भूमिका तो है ही, उससे भी बड़ी भूमिका वहां की सामुदायिक एकता की है।

हम इस बात पर बहुत चर्चा करते हैं और यह हमारे विमर्श का राष्ट्रीय विषय भी रहता है कि पूर्वोत्तर के आदिवासी समाज आपस में लड़ते रहते हैं लेकिन इस तरफ ध्यान नहीं दे पाते कि किस तरह से आदिवासी समाज अपनी एकता से एक अच्छा सुशासन कायम करते हुए तरक्की कर सकता है। यंग मिजो एसोसिएशन और चर्च की सक्रियता के कारण वहां भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है और समाज की एकता ने राजनीति को अपने आगे झुका रखा है। इसका ताजा उदाहरण चुनावों में भी देखने को मिल रहा है।

मिजोरम के एक सशक्त जनसंगठन मिजो पीपुल्स फोरम (एमपीएफ) ने राजनीतिक दलों को हिदायत दी है कि वे चुनाव के दस दिनों में घर-घर जाकर प्रचार नहीं करेंगे। उसने यह भी हिदायत दी है कि वे राजनीतिक दल एमपीएफ से पूछे बिना न तो सार्वजनिक सभाएं करेंगे न ही पार्टी कार्यालय खोलेंगे। कई चर्चों और स्वयंसेवी संगठनों के इस मोर्चे ने बड़े राजनीतिक दलों से यह भी कह दिया है कि वे उसकी अनुमति के बिना अपने स्टार प्रचारकों की रैलियां भी नहीं करेंगे।

इस संगठन के नैतिक असर को देखते हुए सभी राजनीतिक दलों ने उसकी हिदायत को मानते हुए उससे समझौता कर लिया है। रोचक बात यह है कि इन हिदायतों पर चुनाव अधिकारी को भी कोई आपत्ति नहीं है और उनका कहना है कि भले ही यह किसी धार्मिक संस्था की हिदायत हो पर इसके पीछे समाज की नैतिक ताकत है और चुनाव आयोग और उनका मकसद समान है।

हालांकि मिजोरम में आदिवासी समाज की एकता से सब कुछ अच्छा-अच्छा ही हो रहा हो ऐसा भी नहीं है। यहां के हमार, चकमा, मरास और लाइस ने ब्रू आदिवासी मतदाताओं को धमकाया है कि वे उन्हें मतदान नहीं करने देंगे। इस समय ब्रू समुदाय के लोग त्रिपुरा में राहत शिविरों में रह रहे हैं। यहां चुनाव आयोग का उनसे मतभेद है।

सन 1987 में उग्रवाद से बाहर निकल कर राज्य बने मिजोरम में एक और बड़ी विडंबना स्त्रियों के राजनीतिकरण और उन्हें राजनीति में स्थान देने के बारे में है। वहां के 6.86 लाख मतदाताओं में 3.37 लाख पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या 3.49 लाख है, लेकिन वर्षों तक उनका विधानसभा में कोई प्रतिनिधि नहीं था।

छत्तीसगढ़ जो कि मिजोरम के चौदह साल बाद यानी 2001 में राज्य बना, आज आदिवासी विकास की बिल्कुल अलग कहानी कह

रहा है। माओवादी और हिंदूवादी प्रभावों में फंसा यह राज्य और यहां के आदिवासी मानव विकास सूचकांक में काफी पीछे हैं। कम से कम मिजोरम से तो बहुत ही नीचे उनका स्थान है। पूर्वोत्तर और मध्य भारत का यह फर्क उस समय और ध्यान देने लायक बन जाता है जब आदिवासी विकास की राष्ट्रीय तस्वीर पर नजर डाली जाती है। 30.6 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले इस राज्य का मानव विकास सूचकांक 0.358 है और इस लिहाज से इसका देश के अन्य राज्यों में तेईसवां स्थान है।

छत्तीसगढ़ का स्वास्थ्य सूचकांक 0.49 यानी देश में सबसे कम है। यहां की आधी से ज्यादा ग्रामीण आदिवासी और शहरी दलित आबादी गरीब रेखा से नीचे है और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आधी महिला आबादी कुपोषित है। यहां महज सत्ताईस प्रतिशत आबादी के पास शौचालय की सुविधा है। यह स्थिति तब है जब यहां की विकास दर 8.2 प्रतिशत यानी देश में सबसे बेहतरीन बताई जाती है और कहा जाता है कि रमन सिंह सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली और मनरेगा जैसी योजनाओं को अच्छी तरह से लागू किया है।

विडंबना यह है कि कांग्रेस और भाजपा जैसी प्रमुख पार्टियां अब आदिवासी विकास के किसी अलग मॉडल और सलवा जुड़ूम जैसे अभियानों पर कानूनी फैसले और माओवादी चुनौती पर खुलकर बात करने से बच रही हैं। हालांकि कांग्रेस ने पहली बार अपने घोषणापत्र में उग्रवाद का जिक्र किया है और आदिवासियों का विश्वास जीतने को प्राथमिकता दी है। कांग्रेस ने यह भी कहा है कि माओवादियों पर तभी सुरक्षा बलों की कार्रवाई की जाएगी जब जरूरी हो।

आदिवासियों की इक्कीस प्रतिशत आबादी और नर्मदा बचाओ जैसे असरदार आंदोलन की धरती मध्यप्रदेश में आदिवासी न तो राजनीतिक तौर पर संगठित हो पाए हैं न ही उनका अपना मजबूत नेतृत्व बन पाया है। हालांकि उन्होंने पिछले डेढ़ दशक में कांग्रेस छोड़ कर भाजपा और फिर गोंडवाना गणतंत्र जैसी पार्टी का दामन पकड़ा है लेकिन विकास और सम्मान का उनका एजेंडा बिखराव का शिकार है। एक तरफ वन अधिकार कानून के तहत उनके लाखों दावे लंबित हैं तो दूसरी तरफ गोंडी जैसी बोली, जिसे बीस लाख लोग बोलते हैं, स्कूलों में मान्यता नहीं पा सकी है।

जाहिर है कि आदिवासियों के अस्तित्व से जुड़े आर्थिक अधिकारों के साथ उनकी भाषा और संस्कृति से जुड़े अस्मिता के अधिकार भी महत्त्वपूर्ण हैं। ये सब एक तरफ बड़ी परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन से नष्ट हो रहे हैं तो दूसरी तरफ मान्यता न मिलने से।

भारतीय भाषा फाउंडेशन के संस्थापक गणेश देवी ने हाल में किए गए महत्त्वपूर्ण भाषा सर्वेक्षण में उद््घाटित किया है कि भारत में एक हजार से ऊपर भाषाएं होती थीं, जिनमें से 230 भाषाएं मर गर्इं और महज 870 भाषाएं बच रही हैं। मरने वाली इन भाषाओं में ज्यादातर आदिवासी भाषाएं हैं। इसकी वजह उनमें से कुछ को जरायम पेशा जाति घोषित कर उनकी भाषा को कलंकित किया जाना है तो कुछ का शहरीकरण और लगातार विस्थापित और गरीब होते जाना है। यहां यह जानना उत्साहवर्धक है कि भील समाज आर्थिक तौर पर समृद्ध हुआ तो उनकी भिल्ली भाषा फलफूल रही है। इसका सीधा अर्थ है कि जिस समाज में आत्मविश्वास आता है उसकी भाषा भी दीर्घायु होती है।

आज मध्य और पश्चिम भारत के पिछड़े और संकटग्रस्त आदिवासियों को पूर्वोत्तर से सीखने की जरूरत है। आदिवासी ही क्यों, गैर-आदिवासी भी मिजोरम जैसे राज्यों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। इसी विचार को जमीन पर उतारते हुए साढ़े तेरह फीसद आदिवासी आबादी वाले राजस्थान के दौसा के स्वतंत्र आदिवासी सांसद किरोड़ीलाल मीणा ने नेशनल पीपुल्स पार्टी का गठन किया है और लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष पीए संगमा को इसका नेतृत्व सौंपा है। उन्होंने राजस्थान के डूंगरपुर, उदयपुर और बांसवाड़ा में बड़ी रैलियां की हैं और खेती के लिए मुफ्त बिजली-पानी की मांग के साथ सच्चर समिति की रपट लागू किए जाने और गुज्जर, रेबाड़ी और बंजारों को आरक्षण देने की मांग उठाई है।

चुनावी राजनीति में आदिवासी मुद््दों की चर्चा इसलिए भी जरूरी है कि 2004 से 2009 के बीच आदिवासी वोटों का प्रतिशत गिरा है। सन 2004 में राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी मतदान का प्रतिशत इकसठ था जो 2009 में चार प्रतिशत घट कर सत्तावन पर आ गया। जबकि 2009 का राष्ट्रीय औसत 58.3 और दलितों और ओबीसी मतदान का प्रतिशत क्रमश: 60.5 और 59.9 था। उस दौरान हुए सीएसडीएस के सर्वेक्षणों का मानना है कि दूसरे तबकों के मुकाबले उन आदिवासियों की संख्या काफी कम थी जो मानती थी कि उनके वोटों से फर्क पड़ता है। इसी के साथ इनमें उन आदिवासियों की संख्या भी कम थी जो मानती थी कि उनको लोकतांत्रिक अधिकार मिले हैं।

आदिवासियों की यह दशा निश्चित तौर पर व्यवस्था से उनके अलगाव की कहानी कहती है। यही दौर आदिवासी समाज के तीव्र विस्थापन और उनके माओवादी आंदोलनों की तरफ आकर्षित होने का भी है। इसलिए आज जरूरत उनके जनादेश की भाषा समझने, उसे व्यवस्था को समझाने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनके विश्वास को बढ़ाने की है।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/54417-2013-11-09-04-43-48


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