Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | आदिवासी समाज का वह योद्धा-- रामचंद्र गुहा

आदिवासी समाज का वह योद्धा-- रामचंद्र गुहा

Share this article Share this article
published Published on Feb 7, 2018   modified Modified on Feb 7, 2018
जीवनी लिखने की विधा अपने यहां बहुत विकसित नहीं हो पाई है। हम जीवित लोगों की चापलूसी करना तो जानते हैं, पर गुजर चुके लोगों के बारे में अधिकार के साथ लिखने की अंतरदृष्टि विकसित नहीं कर पाए। अतीत से लेकर आज तक के नेताओं पर किताबें मिल जाएंगी, लेकिन उनमें से कुछ ही होंगी, जो साहित्य या पढ़ने लायक किताब होने की शर्त पूरी करें। गोखले पर बी आर नंदा, पटेल पर राजमोहन गांधी और राधाकृष्णन पर एस गोपाल की किताबें इन्हीं ‘कुछ' में शामिल हैं।


राजनीति और सार्वजनिक मामलों तक ही नहीं, साहित्यिक-सांस्कृतिक इतिहास का भी हाल इससे बहुत अलग नहीं है। मुझे तो शोध करके लिखी गई शिवराम कारंथ, महाश्वेता देवी और पंडित रविशंकर की जीवनी पढ़ना अच्छा लगता, मगर दुर्भाग्य से ये उपलब्ध ही नहीं हैं। उम्मीद है, यह सब बदलेगा। मैं जीवनियों पर काम कर रहे चार महत्वपूर्ण लेखकों को जानता हूं। इनकी किताबें तो अंग्रेजी में होंगी, पर अभी-अभी हिंदी में आई एक जीवनी की चर्चा जरूरी लग रही है, जिसे पत्रकार सुदीप ठाकुर ने आदिवासी मूल के कार्यकर्ता लाल श्याम शाह को केंद्रित करके लिखा है। एक ऐसा इंसान, जिसे उसका गोंडवाना तो जानता-पहचानता ही है, जिसके काम की अनुगूंज पूरा देश सुनता है।


आदिवासी अभिजात से आने वाले 1919 में जन्मे लाल श्याम शाह के पास इतनी जमीन और वन संपदा का स्वामित्व था कि वह शान की जिंदगी जी सकते थे, लेकिन उन्होंने अपने समाज की सेवा का विकल्प चुना व आदिवासी महासभा बनाकर आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन के अधिकार और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिए संघर्ष करते रहे। समूचे मध्य भारत का आदिवासी समाज उन्हें सम्मान से याद करता है।


शाह का संघर्ष आजादी बाद भी जारी रहा। निर्दलीय चुनाव लड़े और पहला चुनाव बहुत कम मतों से हार गए, हालांकि अदालत ने चुनाव रद्द कर दिया। दोबारा हुए चुनाव में शाह जीते, लेकिन कुछ ही समय बाद ठेकेदारों, अफसरशाही और राजनेताओं द्वारा आदिवासियों के शोषण से क्षुब्ध होकर विधानसभा से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफे में लिखा कि किस तरह सरकार ने ‘आदिवासियों को रद्दी की टोकरी में फेंककर ठेकेदारों के धन के आगे घुटने टेक दिए हैं'।


किताब आदिवासी हितों के लिए लाल श्याम शाह के प्रयासों को परत-दर-परत खोलती है। लेखक की पैनी नजर चुनावी राजनीति से बाहर रहकर शाह के उन संघर्षों पर भी है, जहां वह प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों के हक व विस्थापन का कारण बनने वाली विनाशकारी परियोजनाओं के खिलाफ लड़ते दिखते हैं। इसमें ‘पृथक गोंडवाना' राज्य का संघर्ष भी है, भले ही वह सफल न हो सका। ऐसा होता, तो आज के छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा के आदिवासी बहुल पर्वतीय व वन क्षेत्र इसमें शामिल होते। सुदीप ठाकुर की नजर में शाह चिंतक भी हैं, कार्यकर्ता भी। आदिवासियों की मुश्किलों और कानूनी पेचीदगियों पर उनकी समझ साफ थी। उनका मानना था कि संविधान ने तो जनजातियों के अधिकारों के संरक्षक के रूप में राष्ट्रपति और राज्यपालों की व्यवस्था बनाई थी, पर इन संस्थाओं ने भी आदिवासी हितों को तिलांजलि देकर उन्हें नौकरशाहों व धनिकों के रहमोकरम पर छोड़ दिया। इसके उलट शाह आदिवासी हितों के लिए लड़ते रहे।


किताब में पंडित नेहरू के साथ लाल श्याम शाह की अक्तूबर 1960 में रायपुर में हुई मुलाकात का जीवंत ब्योरा है। पंडित नेहरू रायपुर में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बैठक के लिए आए। शाह ने आदिवासियों की समस्याएं सीधे प्रधानमंत्री तक पहुंचाने के लिए एक पदयात्रा की, जिसमें दूरदराज से हजारों आदिवासी रायपुर पहुंचे और कांग्रेस बैठक स्थल से चंद मील दूर के मैदान में एकत्र हुए। उद्देश्य पृथक गोंडवाना राज्य के गठन और आदिवासियों को आर्थिक सुरक्षा देने जैसी मांगें उन तक पहुंचाना था। शाह बस इतना चाहते थे कि नेहरूजी आदिवासियों से दो बातें कर लें, पर प्रधानमंत्री के करीबी उन्हें कांग्रेस बैठक तक ही सीमित रखना चाहते थे। ऐसे में, पंडित नेहरू से मिलने शाह वहीं पहुंच गए, जहां वह ठहरे थे। उन्हें बताया कि किस तरह हजारों आदिवासी कई दिन चलकर सिर्फ इसलिए वहां तक आए हैं कि वह उनकी बात सुन लें। इसका असर हुआ और पंडित नेहरू सुरक्षा ताम-झाम को दरकिनार कर आदिवासियों से मिलने खुद गाड़ी चलाकर गए और उनकी मांगों को गंभीरता से लेने का आश्वासन दिया।


लाल श्याम शाह 1962 में चंदा लोकसभा क्षेत्र (अब महाराष्ट्र का चंद्रपुर) से चुने गए, लेकिन यहां भी दो साल के अंदर ही आदिवासियों की उपेक्षा से क्षुब्ध होकर इस्तीफा दे दिया, क्योंकि सरकार आदिवासी हितों को दरकिनार कर, पूर्वी पाकिस्तान के विस्थापितों को मध्य भारत के जंगलों में बसाना चाह रही थी।


आगे चलकर इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। 1975 में उन्होंने आपातकाल लगा दिया और किसी भी दल में शामिल न होने के बावजूद शाह भी गिरफ्तार कर लिए गए। वह एक साल जेल में रहे, लेकिन सत्ता की प्रताड़ना उन्हें कमजोर नहीं कर सकी। अस्सी के दशक में वह ‘जंगल बचाओ, मानव बचाओ' आंदोलन में सक्रिय हो गए, जिसकी ध्वनि दूर तक सुनाई दी।


यही वह समय था, जब सरकार इंद्रावती पर बड़े बांधों की शृंखला की योजना बना रही थी, जो विशाल प्राकृतिक जंगलों के खत्म होने और हजारों आदिवासी परिवारों के विस्थापन का कारण बनता। शाह जानते थे कि ऐसी परियोजनाएं जनजातीय लोगों के लिए लाभ कम, नुकसान ज्यादा लाती हैं। उन्होंने प्रख्यात गांधीवादी बाबा आम्टे के साथ मिलकर इन विनाशकारी योजनाओं के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया और कम-से-कम दो परियोजनाएं रुकवाने में तो वह सफल हो ही गए। 1988 में उनकी मृत्यु हुई, लेकिन जुझारू तेवर के साथ उनका संघर्ष अंतिम सांस तक जारी रहा।


लाल श्याम शाह मध्य भारत के आदिवासी समाज की आवाज और विवेक थे। बकौल सुदीप ठाकुर, वह अक्सर अपने हस्ताक्षर ‘लाल श्याम शाह आदिवासी' के रूप में करते थे, जो अपने समाज के प्रति उनके समर्पण व प्रतिबद्धता से उपजे गर्व की भावना का प्रतीक था। आज के नेताओं की तरह वह निजी हितों की खातिर सत्ता-संघर्ष में नहीं कूदे, बल्कि अपने समाज के आत्मसम्मान और हक के लिए लड़े। यह किताब अपने ऐतिहासिक महत्व के लिए तो पढ़ी ही जानी चाहिए, इसलिए भी पढ़ी जानी चाहिए कि यह आज की पीढ़ी को शाह की विरासत आगे बढ़ाते हुए उनके सपनों का भारत बनाने की प्रेरणा देती है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-ramchandra-guha-article-in-hindustan-on-05-february-1784779.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close