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न्यूज क्लिपिंग्स् | आम बजट आम लोगों के लिए-- बिभाष

आम बजट आम लोगों के लिए-- बिभाष

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published Published on Jan 25, 2017   modified Modified on Jan 25, 2017
बजट बसंती जाड़े से खिसक कर चिल्ला ठंडे के मौसम में आ गया है. कड़कड़ाती ठंड में बजट की तैयारियां चल रही ही हैं कि इसी बीच दो रिपोर्ट चर्चा में आ गयीं. एक रिपोर्ट है वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा जारी इन्क्लुसिव डेवलपमेंट इंडेक्स-2017 और दूसरी रिपोर्ट है ऑक्सफैम रिपोर्ट. दोनों ही रिपोर्ट पूंजीवादी संस्थाओं द्वारा जारी की गयी हैं.


इन रिपोर्टों को पढ़ने से साफ झलकता है कि पूंजीवाद सहम गया है. नवउदारवाद की सीमाएं नजर आने लगी हैं. विकास की गति थमी हुई है. बड़ा झटका सब-प्राइम संकट ने दिया. इन्क्लुसिव डेवलपमेंट इंडेक्स खुद वामपंथ की ओर खड़ा हो कर प्रश्न करता है- पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पर यह आरोप लगाया जाता है कि इस व्यवस्था में आय का वितरण समतामूलक नहीं है और इसमें कोई सुधार संभव नहीं है, क्या इस आरोप को झुठलाया जा सकता है? वहीं ऑक्सफैम ने अपने रिपोर्ट को शीर्षक दिया है 'ऐन इकोनॉमी फॉर दी 99 %' यह कहते हुए कि एक ऐसी मानव अर्थव्यवस्था का निर्माण किया जाये, जो सबके लिए हो न कि कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए. रिपोर्ट साफ तौर पर कहता है कि सन् 1990 से 2010 के बीच जब से नयी अर्थव्यवस्था लागू की गयी गरीबी दूर करने की रफ्तार घटी खासकर महिलाओं में.


पूंजीवाद का मुख्य लक्ष्य रहा है अधिक से अधिक लाभ कमाना. लाभ कमाने के लिए हर तरह का हथकंडा अपनाया गया. कंपनियों ने टैक्स से बचने की हर जुगत की. सरकारों ने भी विकास के लिए उद्यम लगाने के नाम पर कंपनियों को तरह-तरह के टैक्स हॉलिडे दिये. नतीजा फिर भी निकला, तो यह कि कुछ लोग धनी होते गये और आम लोग गरीब ही रहे, बल्कि गरीबी बढ़ती ही गयी. इसीलिए पिछले साल के ऑक्सफैम रिपोर्ट का शीर्षक था 'ऐन इकोनॉमी फॉर दी 1 %', जिसे इस साल बदल कर 99 % के लिए अर्थव्यवस्था कर दिया गया.


रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के एक प्रतिशत लोगों के पास बाकी लोगों से ज्यादा संपत्ति है और मात्र आठ लोगों के पास दुनिया के आधे गरीबों से ज्यादा संपत्ति है. यह रिपोर्ट एक तरफ अमीरी की विकरालता के आंकड़े पेश करती है तो दूसरी तरफ गरीबी की भयावहता के. कॉरपोरेट अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए टैक्स अदायगी से बचने के अतिरिक्त श्रमिकों की आमदनी पर दबाव बनाये हुए हैं. जबकि डिविडेंड भुगतान बढ़ता गया है. सूक्ष्म और लघु उद्यम पूंजी के अभाव में मर रहे हैं और किसानों का अंतिम उत्पाद की कीमत में हिस्सा गिरता गया है.


इन्क्लुसिव डेवलपमेंट इंडेक्स कहता है कि लोग अगर खुशहाल नहीं हैं, तो जीडीपी में वृद्धि का कोई मतलब नहीं है. लेकिन, यह रिपोर्ट नयी आर्थिक नीतियां तैयार करने के नुस्खे प्रस्तावित करते हुए भी वही पुराना बाजारवाद का राग अलापता नजर आता है, जब प्रश्न करता है, क्या समाज की विस्तृत भागीदारी के उद्देश्य से नये आर्थिक मूल्य-सृजन कर बाजार व्यवस्था विकसित की जा सकती है? वैसे पंद्रह-सूत्री नुस्खा जो सुझाया गया है, उनमें मुख्य है समतामूलक व्यवस्था स्थापित करने के लिए लोगों को शिक्षित और दक्ष बनाना, जिससे अर्थव्यवस्था कारकों तक उनकी पहुंच बढ़ सके.


इसके लिए भ्रष्टाचार को खत्म करते हुए आधारभूत संरचनाएं स्थापित की जायें, संस्थागत वित्त सर्वसाधारण को उपलब्ध कराया जाये और श्रम की उत्पादकता बढ़ाने के लिए श्रम का उचित और सम्मानजनक भुगतान किया जाये. इन्हीं पंद्रह-सूत्री पैरामीटर्स के आधार पर विश्व के 109 देशों की रैंकिंग तय की गयी, तो भारत को साठवां स्थान मिला और पड़ोसी पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका की रैंकिंग भारत से ऊपर होने पर भी बड़ा हो-हल्ला हुआ. ज्ञात हो कि भारत को जीडीपी वृद्धि में 52वां स्थान मिला है. मतलब, भारत में जीडीपी विकास दर यद्यपि कि ज्यादा है, लेकिन लोगों तक विकास के लाभ नहीं पहुंच पा रहे हैं.


यह बजट नयी परिस्थितियों में पेश किया जायेगा. विमुद्रीकरण के कारण किसानों और व्यवसायियों के हाथ में नकदी की कमी बनी हुई है. हाउसहोल्ड के पास भी खर्च करने के लिए नकदी नहीं है. कैशलेस भुगतान व्यवस्था अब भी प्रभावी तरीके से लागू नहीं हो पायी है. इस कारण उत्पादन और उपभोग दोनों निचली ऑरबिट में पहुंच गये हैं. अर्थव्यवस्था में इसकी गति के अनुरूप तरलता बनाये रखना प्रथम लक्ष्य होना चाहिए.


ऐसी रिपोर्टें हैं कि विमुद्रीकरण की वजह से बड़ी संख्या में मजदूर नौकरियां गंवा कर अपने गांवों में वापस आ गये हैं, फलस्वरूप मनरेगा में रोजगार की मांग बढ़ गयी है. इन परिस्थितियों में जो सबसे जरूरी पहल होनी चाहिए, वह है गांवों में रोजी-रोजगार के अवसरों का सृजन. यही वह अवसर है, जब गांवों में कुटीर उद्योगों को पुनर्स्थापित करने की ठोस पहल की जाये. पंचायतों के माध्यम से बड़े पैमाने पर सूक्ष्म और लघु उद्यमों की स्थापना का व्यापक कार्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए. खेती का विकास प्राथमिकता पर जमा ही हुआ है. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के नुस्खे से ज्यादा जरूरी है हम महात्मा गांधी के आर्थिक मॉडल का अध्ययन कर अपने लिए माकूल विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था का निर्माण करें.


विमुद्रीकरण के कारण भुगतान संकट से निबटने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्रीपेड इंस्ट्रुमेंट्स दिशा-निर्देश नवोन्मेषण को बढ़ावा नहीं देते, जिसके कारण भुगतान व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा नहीं बढ़ पा रही है. अन्य देशों की तरह हमारे देश में भी प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए प्रीपेड इंस्ट्रुमेंट्स के लिए लाइसेंस की प्रक्रिया सरल बनानी चाहिए.


साल-दर-साल बजट तैयार किया जाता है, योजनाएं शुरू करके लागू की जाती हैं, जीडीपी के आंकड़ों पर नजर रखी जाती है, लेकिन सर्वसाधारण की आर्थिक समस्याएं लगातार बनी हुई हैं और अर्थव्यवस्था कुछ ही लोगों की जागीर बनी हुई है. अब लगता है कि कॉरपोरेट लालच ऊंट के पीठ पर आखिरी तिनका की हद तक पहुंच गया है. इसका एहसास उन्हें है, लेकिन पहल आम आदमी के पक्ष में हो, यही अभीष्ट है. इस बजट से आम आदमी को ऐसे संकेत मिलने चाहिए.


http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/931884.html


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