Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | आर्थिक उदय का वह नायक- संजय बारु

आर्थिक उदय का वह नायक- संजय बारु

Share this article Share this article
published Published on Mar 10, 2016   modified Modified on Mar 10, 2016
आज कच्चे तेल की कीमतों के गिरने पर दुनिया इस चिंता में दुबली हुई जा रही है कि इसका आर्थिक विकास पर कितना बुरा असर पड़ेगा। हालांकि कच्चे तेल के मामले में पूरी तरह आयात पर निर्भर भारत इस परिस्थिति पर न तो खुश होता दिखता है, और न ही दुखी।

दरअसल, भारतीय नीति-नियंता उन कीमतों को नहीं भूल पाए हैं, जो उन्हें तेज वृद्धि के दौरान चुकानी पड़ी थी। उनका मानना है कि अगर तेल की कीमतों में मौजूदा गिरावट का कोई नकारात्मक पहलू है भी, तो वह उन बढ़ी कीमतों के मुकाबले कम परेशानी पैदा करने वाला है। बेशक तेल की कीमतों में तेज वृद्धि भारतीय अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ाती है, मगर यह हमें ऊर्जा का किफायती व कुशल उपयोग करना भी सिखाती है। फिर भी, तेल की कीमतों में तेजी की वजह से अर्थव्यवस्था पर जो तमाम सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं, उनमें कोई इतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि 1991 में हमने देखा है।

वह 1990 की सर्दी थी, जब सद्दाम हुसैन के नेतृत्व में इराक ने कुवैत पर हमला किया और पश्चिम एशियाई तेल अर्थव्यवस्था में हलचल मचा दी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में न सिर्फ सरकार के खर्च अधिक थे, बल्कि उस पर उधार भी ज्यादा थे। लिहाजा भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से ही आर्थिक संकटों से जूझ रही थी। और अब उसे इस समस्या का सामना करना था कि भुगतान में किस तरह संतुलन साधा जाए? राजीव गांधी सरकार ने रक्षा उपकरणों की खरीद के लिए विदेशी मुल्कों से भारी कर्ज उठा रखा था। तब तेल की कीमतों में वृद्धि के कारण हमारा विदेशी मुद्रा भंडार कम हो गया था, जिसके कारण यह सवाल उठने लगे थे कि भारत कर्ज चुकाने में सक्षम है भी कि नहीं?

सार्वजनिक क्षेत्रों में कमजोर निवेश और बाहरी कर्ज के बढ़े दबाव के कारण वैश्विक क्रेडिट रेटिंग में भारत की स्थिति काफी कमजोर हो गई थी। स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स, मूडीज जैसी पश्चिमी रेटिंग एजेंसियों सहित जापानी बांड रिसर्च इंस्टीट्यूट ने भी भारत की रेटिंग इनवेस्टमेंट ग्रेड से नीचे तय कर दी थी। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संस्थानों से भी भारत को बतौर कर्ज अमेरिकी डॉलर तभी मिल सकते थे, जब वह व्यापक आर्थिक सुधार की उनकी शर्तों को मान ले। हालांकि दोनों वित्तीय संस्थान इसे लेकर आशान्वित नहीं थे कि कम सांसदों वाली चंद्रशेखर सरकार अपने बजट व अन्य आर्थिक नीतियों को लेकर संसद का भरोसा जीत लेगी।

दिसंबर, 1990 में तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार दीपक नैयर और भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर सी रंगराजन को वाशिंगटन भेजा, ताकि वे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) को मना सकें। मगर वे दोनों खाली हाथ लौट आए। आईएमएफ ने किसी भी तरह की वित्तीय मदद देने से पहले भारत सरकार को संसद में बहुमत साबित करने और बजट पास करवाने को कहा था। इसी तरह, जब यशवंत सिन्हा जापान की मदद लेने टोक्यो गए, तो वह भी सिर्फ ढेर सारी सलाहों के साथ वापस लौटे थे। आर्थिक बदहाली के उस दौर में अनिवासी भारतीय भी देश से अपनी जमा-पूंजी निकालने लगे थे। इसने सरकार को सोना गिरवी रखने को मजबूर किया, ताकि आयात और बाहरी कर्ज का भुगतान करने के लिए जरूरी डॉलर मिल सकें। यह पूरा आर्थिक संकट ऐसे वक्त में सामने आया, जब दो महत्वपूर्ण सियासी नाटक खेले जा रहे थे। घरेलू हालात की बात करें, तो कांग्रेस का समर्थन खोकर चंद्रशेखर सरकार गिर गई और चुनाव की घोषणा हो गई। चुनाव के दरम्यान ही राजीव गांधी की हत्या हो गई। चुनाव में किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं आ सका। कांग्रेस ने पी वी नरसिंह राव के नेतृत्व में अल्पमत सरकार बनाई।

उस वक्त के बाहरी हालात भी काफी चुनौतीपूर्ण थे। लंबे अरसे से भारत का मित्र सोवियत संघ का पतन हो गया था और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका एकमात्र शक्तिशाली मुल्क के तौर पर उभर आया था। अमेरिका से निकटता दिखाते हुए भारत को फिर से अपनी विदेश नीति तय करनी पड़ी। भारत को विदेशी निवेशकों को लुभाना था, ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था पर दूसरे मुल्कों का भरोसा बढ़े। यह भार अब प्रधानमंत्री नरसिंह राव पर डाल दिया गया था कि वह आर्थिक संकट से उबरने के लिए ऐसी राजनीतिक सूझबूझ का परिचय दें, ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश बढ़े, नया बाजार पैदा हो और रक्षा आपूर्ति के नए स्रोत मिल सकें।

नरसिंह राव ने निराश भी नहीं किया। अर्थव्यवस्था को उदार बनाकर, देश के भीतर व बाहर से निजी निवेश के लिए दरवाजे खोलकर, रक्षा आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए इजरायल की तरफ कूटनीतिक हाथ बढ़ाकर और अमेरिका, जापान व यूरोपीय संघ के साथ संबंध मजबूत बनाकर उन्होंने जवाहरलाल नेहरू-इंदिरा गांधी के दौर की आर्थिक व विदेश नीति को नए सिरे से गढ़ा।

भारतीय आर्थिक व विदेश नीति में इस तरह के आमूल-चूल बदलाव ने भारत में दुनिया का भरोसा बढ़ाया। इसने न सिर्फ भारतीय कारोबारियों को नए निवेश के लिए प्रेरित किया, बल्कि भारत की विकास दर को भी आगे बढ़ाया। भारत की राष्ट्रीय आय में साल 1900-1950 के बीच जहां लगभग सालाना शून्य की दर से, 1950-1980 के बीच 3.5 फीसदी की दर से और 1980 के दशक में 5.5 फीसदी सालाना की दर से वृद्धि हुई थी, वहीं साल 1991-2015 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था करीब सात फीसदी सालाना की दर से बढ़ी।

ऐसा नहीं है कि 1991 का सुधार बहुत आसान था। देश के पारंपरिक कारोबारी समूह अर्थव्यवस्था की इस गति से खुश नहीं थे। उन्होंने इसके विरोध के लिए बॉम्बे क्लब का गठन भी किया। वहीं, वामपंथी पार्टियां और मजदूर संघ भी विरोध का झंडा उठाए खड़े हो गए। खास बात यह है कि राव को अर्जुन सिंह और ए के एंटोनी जैसे अपनी ही पार्टी के नेताओं का विरोध झेलना पड़ा। नतीजतन, अप्रैल, 1992 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की तिरुपति बैठक को राव ने संबोधित करने का फैसला लिया और उसमें अपनी नीतियों के पक्ष में तर्क रखे। उन्होंने सही कहा था कि भारत को गंभीर आर्थिक संकट से उन्होंने बचा लिया है। यह उन्हीं का राजनीतिक नेतृत्व था, जिसमें मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्रियों ने प्रमुख आर्थिक सुधारों की शुरुआत की। आईएमएफ के तत्कालीन निदेशक मिशेल केमडेसस के साथ 1992 में हुई मुलाकात में राव ने यह साफ-साफ कहा था कि वह उन तमाम कदमों को उठाएंगे, जो भारत में निवेश और रोजगार बढ़ाने के लिए जरूरी हैं, मगर वह उन नीतियों को कभी लागू नहीं करेंगे, जिनसे एक भी नौकरी के खत्म होने का खतरा हो। राव ने अपनी नीति को मध्य मार्ग कहा- कोई दक्षिणपंथ या वामपंथ नहीं।

आज 25 वर्षों के बाद भारत की गिनती तेज उभरती अर्थव्यवस्था में हो रही है। चीन की आर्थिक रफ्तार कम होने, और ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका व रूस में नकारात्मक विकास दर के कारण भारत अभी एकमात्र चमकता नक्षत्र है। इसलिए वक्त की भी यही मांग है कि भारत के आर्थिक उदय में ऐतिहासिक योगदान देने के लिए नरसिम्हा राव को भारत रत्न दिया जाए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-crude-oil-prices-economic-growth-impact-520133.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close