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न्यूज क्लिपिंग्स् | इस प्रतिबंध के बड़े खतरे- योगेन्द्र यादव

इस प्रतिबंध के बड़े खतरे- योगेन्द्र यादव

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published Published on May 17, 2012   modified Modified on May 17, 2012

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के कार्टून पर मचा हंगामा पिछले हफ्ते भर से एक विडंबना की शक्ल में मेरी सोच से लगातार टकरा रहा है. राष्ट्रीय पाठय़पुस्तकों में शायद पहली बार आंबेडकर को भारतीय गणतंत्र के प्रमुख संस्थापकों के तौर पर दिखाने की कोशिश की गयी थी. लेकिन, संसद में इस कोशिश पर ही इस दलील के साथ हमला बोला गया कि किताब में शामिल एक कार्टून उनका अपमान करता है.

मुझे आंबेडकर को पढ़ने का सलीका सिखाने वाले प्रोफेसर सुहास पलशीकर को कुछ दलित नेता आंबेडकर के नाम पर निशाना बना रहे थे. सच कहूं तो मुझे यह आशंका शुरू से थी कि इन पुस्तकों पर कभी न कभी कोई न कोई समूह हमला बोलेगा. लेकिन यह हमला खुद को सामाजिक न्याय के पैरोकार बताने वाले करेंगे, इसकी आशंका कभी नहीं की थी.

बीते छह दिनों में हमने उन सभी लोगों को समझाने की कोशिश की, जिनमें दूसरों की बात सुनने का थोड़ा सा भी धैर्य है. प्रो पलशीकर ने ऐसी कोशिश उन पर हमला करने वालों के साथ भी की.

यह एक विडंबना ही है कि जिस कार्टून पर विवाद खड़ा किया जा रहा है, वह वास्तव में एनसीइआरटी की राजनीति शास्त्र की किताब में इस्तेमाल किये गये दर्जनों काटरूनों से कहीं ज्यादा मासूम और नरम हैं.

यह कार्टून न तो बाबा साहेब के बारे में है, न ही नेहरू जी के बारे में. इसका मुख्य पात्र घोंघा रूपी संविधान है. कुछ गलत व्याख्याओं के सहारे इसे आपत्तिजनक ठहराने की कोशिश की जा रही है.

पहला, कार्टून के संदेश को तोड़-मरोड़कर पेश करने की मंशा से इस सकारात्मक पक्ष को नजरअंदाज किया जा रहा है कि यहां संविधान की कमान आंबेडकर के हाथ में है और वे ही इसे चाबुक से हांक रहे हैं.

बजाय इसके, आंबेडकर के पीछे चाबुक लिये नेहरू के खड़े होने की व्याख्या इस रूप में की जा रही है कि नेहरू आंबेडकर को हांक रहे हैं. यह एक संभावित नकारात्मक प्रतीक को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने जैसा है. दूसरा, कार्टून की व्याख्या अभिधा में की जा रही है, यह कार्टून में छिपे व्यंग्य की विशेषता को ही खारिज कर अर्थ का अनर्थ कर देता है.

तीसरा, कार्टून के उस लिखित अंश पर कोई बात नहीं हो रही है जिसमें संविधान निर्माण में लगे लंबे वक्त को इसकी खासियत के तौर पर पेश किया गया है. यहां प्रशंसा के भाव से बताया गया है कि विभिन्न मुद्दों पर वाद-विवाद और संवाद के चलते संविधान निर्माण में देरी हुई.

चौथा, इस कार्टून को किताब में इस्तेमाल हुए नेहरू, इंदिरा गांधी और दूसरे नेताओं के कार्टूनों से अलग करके पेश किया जा रहा है. पांचवां, इस पूरी किताब में सामाजिक न्याय की अवधारणा को जो महत्व दिया गया है, उसे नजरअंदाज किया गया है.

इस पूरे मसले पर लगातार सोचते रहने के बाद मैं इसी नतीजे पर पहुंचा हूं कि यह बहस अब आंबेडकर या कार्टून से आगे निकल गयी है. दरअसल, खतरा वह नहीं होता, जो सामने दिख रहा होता है. खतरा वह होता है जो हमारी नजरों से दूर होता है.

खतरा यह है कि यह बस शुरुआत है. संसद में शिक्षा मंत्री ने पाठ्य-पुस्तकों के दूसरे ‘आपत्तिजनक’ काटरूनों और पूरी अध्ययन सामग्री की समीक्षा करवाने की बात की. कई सांसद आजादी के बाद के भारत की कहानी के कड़वे सच को दर्ज करने वाली इन किताबों को लेकर असहज हैं. बहुत मुमकिन है कि आंबेडकर के नाम का इस्तेमाल बस ढाल की तरह किया जा रहा हो.

यह मसला एनसीइआरटी जैसी संस्थाओं की स्वायत्ता से जुड़ा हुआ है. खतरा सिर्फ सरकार के हाथों स्वायत्ता गंवाने का ही नहीं है. वैसे जगजाहिर है कि सरकारी बाबुओं के सामने ऐसी स्वायत्तता नाममात्र की ही होती है.

सांसदों में कहीं कोई दुविधा नजर नहीं आयी. वे पाठ्य पुस्तक से जुड़े मसले को सदन में ही निपटाना चाहते थे. इसकी परवाह किये बगैर कि इनका निर्माण एक समुचित आंतरिक प्रक्रिया द्वारा किया गया था. असल खतरा यह है कि यह सब हमें सामान्य घटना जैसा लग सकता है और संस्थाओं की स्वायत्तता का मुद्दा पीछे छूट सकता है. चिंता सिर्फ यह नहीं कि इससे हमारी अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा पैदा होगा.
आज मीडिया इतना स्वतंत्र है कि वह सरकार से टकरा सकता है.

वैसे भी पाठ्य-पुस्तकें अभिव्यक्ति की आजादी का बेरोक-टोक इस्तेमाल करने का मंच नहीं होतीं. इन्हें लिखते वक्त काफी सावधानी बरतनी पड़ती है. लेकिन यहीं एक खतरा यह भी है कि हमने वह मौका गंवा दिया है, जो तय करता कि पाठ्य-पुस्तकों के संदर्भ में अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा क्या है.

टीवी पर बहस के दौरान एक पढ़े-लिखे और जागरूक सांसद ने शिकायत की कि यह कार्टून युवा छात्रों के मन में शंका के बीज बोता है. क्या यह खतरनाक नहीं कि हम यह मान लें कि पाठ्य-पुस्तकों का काम शंकाएं पैदा या सवाल खड़े करना नहीं होना चाहिए?

प्रो पलशीकर के कार्यालय पर हुए हमले ने कुछ क्षण के लिए हमारा ध्यान ऐसे प्रोजेक्ट से जुड़े बुद्धिजीवियों पर मंडराते खतरों की ओर खींचा. उन्होंने इस हमले का सामना बेहद गरिमा और साहस के साथ किया. दरअसल मैं उन्हें इसी रूप में ही जानता हूं.

अगर मेरी बारी आयी, तो मैं भी उनकी राह पर चलने की कोशिश करूंगा. लेकिन यह बहस का उतना बड़ा मुद्दा नहीं है. सबसे बड़ा खतरा मनोवैज्ञानिक है. सवाल है कि इससे भविष्य में पाठय़-पुस्तक लिखने वालों को क्या संदेश जायेगा? जाहिर है वे हर पैरे, हर फोटो, हर चित्र को सेंसरशिप की निगाह से देखेंगें, ताकि आज या कल किसी समूह को आपत्तिजनक लगने वाली कोई सामग्री न शामिल हो जाये. सबसे खराब सेंसरशिप लेखक के अवचेतन में शक्ल लेती है. वैसे भी अगर गलती की आशंका से बचने के इरादे से काट-छांट की जाये, तो यह न तो रुचिकर होगा, न स्तरीय.

खतरा यह नहीं है कि अस्मिता की राजनीति संसद में बहुमत के बल पर जीत जायेगी. असल खतरा यह है कि यह प्रकरण अंतत: दलित राजनीति को ही कई रूपों में नुकसान पहुंचा सकता है.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ दलित-बहुजन नेताओं ने ही राजनीतिज्ञों की स्थापित छवि के अनुरूप व्यवहार किया. दुखद यह है कि किताब के कार्टून की बजाय इस संसदीय बहस के शोर-शराबे और मीडिया में इसकी गूंज से खुद बाबा साहेब आंबेडकर की अवमानना हो सकती है.

खतरा यह है कि दलित नेतृत्व और उनके वफादार बुद्धिजीवी जिस सेंसरशिप की आज मांग कर रहे हैं, वह असल में आंबेडकर को एक खोखले प्रतीक तक सीमित कर सकता है. बाबा साहेब को पूजनीय, लेकिन खोखला प्रतीक बनाना किसी कार्टून से ज्यादा बुरा होगा.


http://www.prabhatkhabar.com/node/156849


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